तिब्बती समाज की संघर्षगाथा

Published by
Archive Manager

दिंनाक: 26 Apr 2014 14:42:35

आज सम्पूर्ण विश्व तिब्बत के सवाल पर मौन साध जाता है। अनेक देश, जो समय-समय पर मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का ढोल पीटते नजर आते हैं, वे तिब्बत के लोगों की निजता और उनकी स्वतन्त्रता पर ऐसे मौन हो जाते हैं जैसे उन्हें सांप सूंघ गया हो। सीधे कहें तो वे या तो तिब्बत की अस्मिता और वहां के निवासियों की बातों को तरजीह नहीं देना चाहते या फिर वे चीन से डरते हैं। पूरी दुनिया ने देखा कि किस प्रकार चीन ने तिब्बत जैसे छोटे और शान्तिप्रिय राष्ट्र को अनावश्यक वेदना ही नहीं दी बल्कि वहां के लोगों के जीवन को ही निगल लिया। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और मानव अधिकारों की दुहाई देने वाले लफ्फाजी देश सिर्फ मूक दर्शक बनकर देखते रहे। सवाल इस बात का है कि क्या तिब्बत के लिए विश्व समाज की कोई जिम्मेदारी नहीं है? ऐसे नि:स्वार्थ अहिंसक मानव समूह पर राजनीतिक स्वार्थसिद्ध हेतु पराधीनता आरोपित करने को विश्व समुदाय तटस्थ होकर देखता रहेगा? हाल ही में प्रकाशित ह्यदेनपा-तिब्बत की डायरीह्ण लेखिका नीरजा माधव का ऐसा उपन्यास है, जिसमें तिब्बत के लोगों की भावपूर्ण वेदना और वहां की राजनीति और सामाजिक दरारों से छनकर जो चीत्कारें या रोशनी फूटती है,वही इस पुस्तक का मर्म है।
यह उपन्यास एक ऐसे नायक (गेशे जम्पा) पर आधारित है,जो भारत में शरणार्थी के रूप में बचपन से रह रहा था और अब अपने वतन तिब्बत जाने के लिए भारत से प्रस्थान कर चुका है। कथा के नायक गेशे जम्पा का परिवार तिब्बत में चीन की निकृष्ट कारगुजारियों का शिकार बन चुका था। लेखक ने अपने उपन्यास को शब्दरूप देते हुए लिखा-गेशे जम्पा जब अपने वतन तिब्बत पहंुचा तो वहां तैनात चीनी सैनिक उसे सशंकित नजरों से घूर रहे थे। उनकी अभद्र भाषा उनके आचरण की परिचायक थी और बता रही थी कि वे तिब्बतियों के साथ कैसा व्यवहार करते होंगे। उपन्यास में है कि चीन किस कदर तिब्बत की स्वतन्त्रता का नाम लेने मात्र से ही बौखला जाता है,उसका उदाहरण समय-समय पर यहां कुछेक विरोध करने वाले लोगों के गुपचुप विरोध प्रदर्शन से स्पष्ट हो जाता है। कुछ लोग अभी भी यहां पर तिब्बत को आजाद कराने के नारे या पोस्टर रातों-रात लिख जाते हैं, जिसके बाद क्रोध से दांत कटकटाते चीनी सैनिक आनन-फानन में तिब्बतियों को पकड़ कर जेलों में डाल देते हैं और उन्हें कैसी-कैसी यातनायें दी जाती हैं, शायद शब्दों में अभिव्यक्त करना संभव नहीं है।
ल्हासा शहर की वर्तमान स्थिति से अवगत कराते हुए लेखिका लिखती हैं कि यह शहर तिब्बत की राष्ट्रीय राजधानी का अपना पुराना स्वरूप खोकर केवल चीनी फौजी चौकी का रूप ले चुका है, जहां की जनसंख्या में चीनियों की संख्या स्थानीय तिब्बतियों से अधिक हो चुकी है। स्थानीय तिब्बती जनता और चीनियों के मध्य एक चौड़ी खाई स्पष्ट दिखाई देती है। हालांकि सरकारी प्रवक्ता सदैव विश्व पटल पर यही कहते आ रहे हैं कि यहां सब ठीक है और सरकार के सभी प्रयासों को तिब्बती जनता का पूरा समर्थन प्राप्त है। परन्तु ल्हासा शहर की दीवारों पर लगे चीन विरोधी पोस्टरों से पता चलता है कि चीनी अधिकारियों के रखे जाने का भारी विरोध यहां है। वैसे तो पूरे तिब्बत में चीनी सैनिक विद्यमान हैं। चीन की तिब्बतियों के प्रति दोहरी नीति और ज्यादती का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वहां पर रहने वाले चीनियों के घरों, दुकानों की शोभा देखते बनती है,जबकि बेचारे तिब्बती गंदे,पुराने कपड़ों में दिखाई पड़ते हैं।
लेखिका ने उपन्यास में विस्तार से लिखा है कि किस कदर चीन तिब्बत के बहाने भारत के कुछ क्षेत्रों पर अपनी नजर गड़ाये हुए है। आज तिब्बत में पांच लाख से अधिक चीनी सैनिकों की उपस्थिति से तिब्बती दयनीय स्थित में हैं। चीन ने तिब्बत के सभी प्राकृतिक संसाधनों पर एक तरह से पूरी पकड़ बना रखी है। साथ ही चीन अपने सभी परमाणु कार्यक्रम तिब्बती क्षेत्र में कर रहा है,जो भारत के लिए भी चिन्ता करने का विषय है। चीनी की कारगुजारियां सिर्फ यहां तक ही सीमित नहीं हैं,उसने तिब्बत के नक्शे को भी मनमाने ढंग से बदल दिया है। कुछ शहरों और कुछ प्रान्तों का नाम भी चीनी भाषा में कर दिया है। इन सब चीजों के पीछे चीनी शासन का केवल एक ही उद्देश्य है-तिब्बतियों के धार्मिक विश्वासों को समाप्त कर उन पर किसी भी तरह राज करना। नियति का क्रूर चक्र घूम रहा है। इन सब परिस्थितियों के बीच भी तिब्बती लोग आशा का दीप जलाये हुए हैं। बस उनको एक ही दंश सताता है और हर क्षण उन्हें उद्वेलित करता है कि हम शरणार्थी हैं,यहां अपने ही देश में गुलाम बन कर जी रहे हैं। इन दोनों स्थितियों से मुक्ति पाना ही तिब्बतियों का मुख्य लक्ष्य है। कुल मिलाकर यह पुस्तक तिब्बती समाज के दर्द और चीनी शासन द्वारा तिब्बती समाज पर किए जा रहे दमन पर केन्द्रित है।

अश्वनी कुमार मिश्र

पुस्तक का नाम – देनपा -तिब्बत की डायरी
लेखिका – नीरजा माधव
प्रकाशक – प्रभात प्रकाशन,
4/19,आसफ अली रोड
नई दिल्ली-110002
मूल्य – 300 रु., पृष्ठ-232

Share
Leave a Comment
Published by
Archive Manager

Recent News