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जिस वृक्ष के नीचे गुरू जी को शहीद किया गया और वह कुआं
जहां गुरू जी ने स्नान किया था, वह स्थान आज भी सुरक्षित है।
गुरू तेगबहादुर सिखों के नौवें गुरुथे। धर्म, मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में उनका स्थान सर्वोच्च है। धर्म स्वतंत्रता की नींव श्री गुरुनानक देव ने रखी और शहीदी की रस्म शहीदों के सरताज श्री गुरु अर्जन देव द्वारा शुरू की गई। 18 अप्रैल को गुरु तेगबहादुर की जयंती धूमधाम के साथ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में मनाई गई।
उन्होंने मात्र 14 वर्ष की आयु में ही अपने पिता के साथ तत्कालीन सल्तनत द्वारा किए गए हमले के खिलाफ युद्ध में अनूठी वीरता का परिचय दिया था,जिससे उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से बदलकर तेगबहादुर (तलवार के धनी) रख दिया था। युद्धस्थल के भीषण रक्तपात का उन पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि उनका मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर परिवर्तित हो गया। जिसके बाद धैर्य, वैराग्य एवं त्याग की मूर्ति गुरु तेगबहादुर ने एकांत में लगभग 20 वर्षों तक सतत प्रभु चिंतन एवं घोर साधना की। वर्ष 1665 में आठवें गुरु हरकिशन के पंचतत्व में विलीन होने पर उन्हें अमृतसर के बकाला गांव में सिखों का नौवां गुरु घोषित किया गया था।
गुरू जी का बलिदान केवल धर्म पालन के लिए नहीं, बल्कि समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत के लिए था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन जीने का एक सूत्र था।
आततायी मुगल शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेगबहादुर का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरू जी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का सबसे बड़ा उदाहरण था। गुरू जी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युगपुरुष थे। उन्होंने धर्म, सत्य और ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपड़, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल) पहुंचे। यहां से गुरू जी प्रत्येक मानव को सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुंचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुंचे और यहां साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया। यहां से गुरू जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहां उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कायोंर् का ही विस्तार नहीं किया बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर धर्म का सच्चा ज्ञान बांटा। सामाजिक स्तर पर चली आ रही रूढि़यों, अंधविश्वासों की कटु आलोचना कर नए सहज जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित किए। उन्होंने प्राणी सेवा एवं परोपकार के लिए कुएं खुदवाए, धर्मशालाओं का निर्माण आदि जन परोपकारी कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं के बीच वर्ष 1666 में गुरु तेगबहादुर के यहां पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ, जो कि आगे चलकर सिखों के दसवें गुरू यानी गुरु गोबिन्द सिंह बने। शांति, क्षमा, सहनशीलता के गुणों वाले गुरु तेगबहादुर ने लोगों को प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरू जी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। उनके जीवन का प्रथम दर्शन धर्म, सत्य और विजय का मार्ग था। 1675 में गुरु जी मानव धर्म की रक्षा के लिए अन्याय एवं अत्याचार के विरुद्ध अपने चारों शिष्यों सहित धार्मिक एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए।
नहीं झुके गुरु तेगबहादुर
गुरु तेगबहादुर के समय में मुगल शासक औरंगजेब ने हिन्दू मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण कराया और हिन्दुओं पर मतांतरण का दबाव बनाया। उसने भारत के राज्यों-बंगाल, बिहार, राजस्थान, गुजरात और जम्मू के कश्मीरी हिन्दुओं पर मतांतरण नहीं करने पर अत्याचार शुरू कर दिए थे। इस बीच कश्मीरी हिन्दू आनंदपुर पहंुचे और गुरु जी से अपने प्राणों की रक्षा की फरियाद की। गुरू जी को यह सहन नहीं हुआ कि किसी को उसका धर्म त्यागने के लिए मजबूर किया जाए। इस पर गुरू जी ने कश्मीरी हिन्दुओं से कहा कि वे जाकर शेर अफगान को बोल दें कि पहले गुरु तेगबहादुर का मतांतरण कराओ उसके बाद हम भी अपना धर्म बदल लेंगे। यह संदेश सभी जगह आग की तरह फैलता हुआ औरंगजेब तक पहंुचा और उसने तुरंत गुरु तेगबहादुर को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया।
उधर गुरू जी अपने परिवार से विदा लेकर आनंदपुर से दिल्ली के लिए निकल पड़े। इस बीच आगरा में गुरू जी को उनके अनुयायियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। फिर उन पर इस्लाम अपनाने का दबाव डाला गया और उनके मना करने पर अत्याचार किए गए। इस पर गुरू जी ने कहा कि उन्हें अपना शरीर नहीं, बल्कि अपना धर्म प्यारा है। उनके नहीं मानने पर साथी सिखों की हत्या कर दी गई। यह देखकर भी गुरु तेगबहादुर डिगे नहीं। इसके बाद औरंगजेब ने उनसे कहा कि वे उसे कोई करिश्मा दिखाएं। इस्लाम स्वीकार करें या मरने के लिए तैयार हो जाएं। इस पर गुरू जी ने कहा कि वे बलिदान देने के लिए कब से तैयार हैं। फिर उन्हें एक पिंजरे में कैद कर नई दिल्ली के चांदनी चौक लाया गया जहां 11 नवम्बर, 1675 को मुस्लिम आक्रान्ता ने तलवार से उनका सिर धड़ से अलग कर दिया । वह स्थान अब गुरुद्वारा सीसगंज के नाम से प्रसिद्ध है। जिस वृक्ष के नीचे गुरू जी को शहीद किया गया और वह कु आं जहां गुरू जी ने स्नान किया था, वह स्थान आज भी सुरक्षित है।
इन्द्रधनुष डेस्क
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