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भूल का शूल

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Mar 29, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 29 Mar 2014 15:51:44

हेंडरसन-भगत रिपोर्ट चर्चा में है, बासठ के जख्म फिर हरे हो गए हैं। हम चीन के हाथों क्यों हारे? सेना की तैयारी पर्याप्त क्यों नहीं थी? चीन के प्रति नेहरू सरकार इतनी लट्टू क्यों थी कि उसने ह्ण52 से लद्दाख की सीमा पर बढ़तीं चीनी सेना की हलचलों और सड़क चौड़ी करते-करते खच्चर गुजरने की पगडंडी को राजमार्ग में बदलते जाने की तमाम खुफिया रपटों को हल्के में लेते हुए उन्हें रद्दी की टोकरी के हवाले करती रही? बीजिंग तिब्बत हड़प गया और हम उत्तर में अपनी मजबूत दीवार को ढहाते हुए देखते रहे। पंचशील की मादकता में खोए नेहरू ने रक्षा की ऐसी अनदेखी की कि जिसका खामियाजा नवंबर ह्ण62 में हमें उस चीन के हाथों उठाना ही पड़ा जो ह्यहिन्दी चीनी-भाई- भाईह्ण की आड़ में पीठ में खंजर घोंपने से तनिक भी नहीं चूका। संसद को अंधेरे में रखकर नेहरू ने उस युद्ध में हुई भूलों की जांच से मुंह जरूर फेर लिया लेकिन सेना की जांच कमेटी हेंडरसन-भगत कमेटी ने जो निष्कर्ष निकाला उसने साफ कर दिया कि सबसे पहले नेहरू, फिर तब के रक्षा मंत्री मेनन ने ही देश के स्वाभिमान को न केवल पलीता लगाया था बल्कि उस रपट को सार्वजनिक न करके देश को गुमराह किया था। आज हेंडरसन-भगत रपट के जो चंद हिस्से सामने आए हैं उन्होंने इस बात को मजबूत आधार दिया है कि ह्ण62 की हार के नायक नेहरू ही थे। लेकिन ह्ण62 क्या, बीजिंग की साजिशी कूटनीति आज भी स्टिंग ऑफ पर्ल्स के नाम से जारी है, भारत को चारों तरफ से घेरा जा रहा है। क्या है बीजिंग की मंशा और क्या है पाकिस्तान के साथ उसके गठजोड़ के निहितार्थ। पाञ्चजन्य की इस खास रपट में प्रस्तुत है हार के नायकों के खुलासे के साथ युद्ध के हालात और चीन की चालों का पूरा ब्यौरा।
हम 1962 में क्यों हारे? क्या थी वो वजह जिसे छुपाने में नेहरू का पूरा किचन केबिनेट पूरी मुस्तैदी से जुटा हुआ था? हेंडरसन-भगत रपट ने इस बाबत अप्रैल, 1963 में जो चौंकाने वाले खुलासे किए थे उसके कुछ हिस्सों पर नजर डालें तो यह बात दिन के उजाले की तरह साफ हो जाती है कि नेहरू के चीन मोह ने भारत को 62 में तो आहत किया ही था, उनके उत्तराधिकारियों ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आज भी बीजिंग को जिस तरह की तरजीह दी हुई है वह आने वाले वक्त में देश को फिर से गहरी चोट पहंुचा सकती है।
भारत और चीन के सन्दर्भ में अपनी सरकार की ओर से कभी भी गंभीर वार्ता अथवा किसी ठोस कूटनीतिक कार्यवाही का उदाहरण नहीं मिलता। लगभग आजादी के बाद से ही चीन हमारे लिए एक अबूझ पहेली बना हुआ है। तिब्बत की मुक्ति और 1962 के युद्ध के बाद से मानो चीन हमारा सार्वकालिक शत्रु ही बन गया हो। आएदिन भारत की सीमाओं पर अचानक घुसपैठ की गतिविधियां बढ़ाकर चीन अपनी दादागिरी सिद्ध करता है। हेंडरसन भगत की जो चौंकाने वाली रपट थी, उसका खुलासा करने में सरकार आज भी डरती है। देश की जनता इस रहस्य को जानती है, जिसके कारण हमारे हजारों सैनिक असमय कालकवलित हुए और हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर भारत की भूमि शत्रु ने कब्जा ली।
पं. नेहरू और मेनन की अक्षमता एवं लचर नीति तथा निर्णयशून्यता के चलते बिना निमंत्रण का यह युद्ध हुआ था। 1962 के युद्ध ने अकस्मात उपस्थित होकर देश के लोगों के सम्मुख विकास पुरुष के रूप में प्रचारित पं. नेहरू की वास्तविकता और प्रशासनिक अक्षमता को साबित कर दिया था। रपट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री की अदूरदृष्टि और अविवेक को उद्घाटित करते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी भारतीय सेना द्वारा शत्रु का डटकर मुकाबला करने के जज्बे को महत्व
प्रदान किया।
चीन के सन्दर्भ में रपट की प्रासंगिकता इसी कारण है कि चोरी और सीनाजोरी करने वाला चीन हमारी सम्प्रभुता को तब भी चुनौती देता था और आज भी उसके शत्रु क्रम में भारत शीर्ष पर है। इस संदर्भ में हेंडरसन रपट की प्रासंगिकता सिद्ध होती है। पाञ्चजन्य ने 1960 से लेकर आज तक यथावसर चीन की विस्तारवादी दृष्टि को प्रमुखता से उजागर करते हुए देश और समाज को जाग्रत किया। 
भारत का पड़ोसी देश चीन हमेशा से एक विद्वेषपूर्ण नीति पर चलता आया है और भविष्य में भी घोषित शत्रु देश पाकिस्तान से भी ज्यादा खतरा हमारी संप्रभुता को चीन से ही है। परंपरागत व्यापार में समृद्ध भारत का एक समय में चीन के साथ कोई बहुत ज्यादा संबंध रहा हो यह तो प्रमाण के साथ नहीं कहा जा सकता, लेकिन उस समय के व्यापारिक मार्गों के माध्यम से चीन आज भारत में घुसपैठ करने का निरंतर प्रयास कर रहा है। चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड समेत लेह लद्दाख क्षेत्र की सीमाओं पर अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाए अवश्यंभावी युद्ध का संकेत देता रहा है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारत में सक्षम और प्रभावी नेतृत्व का संकट और इसके साथ ही ठोस सामरिक नीति के अभाव में चीन ने हमेशा भारत की ओर आक्रांता वाली दृष्टि रखी।
1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण ही नहीं किया बल्कि इसकी भावभूमि 1950 के बाद से ही तैयार हो रही थी। हालांकि इसका संज्ञान तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को था, लेकिन उनकी लचर नीति और माओत्से तुंग और चाऊ एन लाइ पर अतिरिक्त विश्वास के कारण चीन का कुचक्र सफल हो पाया।
ऐतिहासिक दस्तावेज खंगालें तो अप्रैल 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ अपने विदेश मंत्री सहित भारत के प्रधानमंत्री के साथ विद्यमान सीमा संघर्ष पर चर्चा करने आए थे किंतु भारत की ओर से प्रभावी कूटनीति एवं ठोस सामरिक योजना प्रस्तुति के अभाव में मामला शिथिल ही रहा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि लौह पुरुष सरदार पटेल ने अपने दूरदृष्टिपूर्ण विवेक से मृत्यु पूर्व ही नेहरू को चीन से सतर्क रहने हेतु एक बड़ा पत्र लिखा, जिसको नेहरू ने गंभीरता से क्रियान्वित नहीं किया।
1957 तक चीन की जो भौगोलिक स्थिति और सीमा निर्धारित थी वह 1962 तक तिब्बत को कब्जे में करने और भारत के साथ युद्ध करने के बाद बहुत बढ़ गई। चीन ने सिंक्यांग-तिब्बत से आगे बढ़ते हुए 70 वर्ग मील से ज्यादा भारत के बड़े भूभाग को अपने कब्जे में ले लिया। परिणाम यह हुआ कि लगभग 14 हजार वर्ग मील भारतीय भूभाग पर चीन का आधिपत्य स्थापित हो गया। 13 और 14 नवंबर 1962 तक भारत के हाथ से वालोंग और तवांग का क्षेत्र भी निकल चुका था।  आज भी चीन तवांग (अरुणाचल प्रदेश) को अपनी शब्दावली में दक्षिणी तिब्बत कहता है। 1962 के युद्ध में भारत की ओर से लगभग 14 सौ सैनिक मारे गए, 17 सौ सैनिक लापता हुए और चीन ने चार हजार के लगभग युद्ध बंदी बना लिए। 20 अक्तूबर 1962 को चीनी सेना ने लद्दाख और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ आक्रमण किया। ज्यादातर लड़ाई 14 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर लड़ी गई।
32 दिन तक चलने वाले इस युद्ध की विशेषता यह रही कि इसमें केवल थलसेना ने ही लड़ाई लड़ी, दोनों ही पक्षों द्वारा वायु सेना और नौ सेना का इस युद्ध में प्रयोग नहीं किया गया। इस युद्ध में भारत की लगभग 35 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक भूमि चीन के कब्जे में चली गई।
भारत और चीन के बीच प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संघर्ष का यह अनवरत प्रकरण आजादी के तुरंत बाद के भारत से लेकर आज विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में स्थापित भारत के लिए एक सार्वकालिक चिंता का विषय बना हुआ है। 1962 के युद्ध की भूमिका तैयार करने से पूर्व भी चीन अलग-अलग तरीकों से भारत की संप्रभुता को चुनौती दे रहा था और आज वैश्विक दौर में वैज्ञानिक प्रगति और तकनीकी के बल पर शक्तिशाली हथियारों से लैस चीन और भी अधिक आक्रामक एवं विस्तारवादी दिखाई दे रहा है।
विडंबना यह है कि घोषित शत्रु से तो चौकन्ना रहा जा सकता है, लेकिन दोस्ती के कसीदे पढ़ते हुए छुरे की धार तेज करने वाले को भांपना सबके लिए संभव नहीं होता है। ल्ल

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