विखण्डनवादी राजनीति और राष्ट्रवाद के बीच युद्ध
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विखण्डनवादी राजनीति और राष्ट्रवाद के बीच युद्ध

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Mar 25, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 25 Mar 2014 14:24:58

चुनाव आयोग द्वारा नौ चरणों में मतदान कार्यक्रम की घोषणा के साथ युद्ध का बिगुल बज गया है। बिगुल की आवाज कानों में पड़ते ही युद्ध क्षेत्र का जो दृश्य हमारे सामने आ रहा है वह पिछले 64 वर्षों में भारत की राजनीतिक यात्रा में से जो राजनीतिक संस्कृति पनपी है उसका नग्न रूप है। गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग और अंग्रेजों की विभाजक व पृथकतावादी राजनीति को परास्त करने के लिए 1934 से वयस्क मताधिकार से निर्वाचित संविधान सभा के द्वारा एक देशज संविधान के निर्माण की मांग उठाना शुरू किया था। ब्रिटिश कूटनीति ने उस मांग का अपहरण करके 1935 के एक्ट के अन्तर्गत केवल सोलह प्रतिशत व्यक्तियों के द्वारा 1937 में निर्वाचित प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष मतदान से चुनी गई संविधान सभा भारत पर थोप दी। इस संविधान सभा ने लार्ड वावेल के द्वारा नियुक्त एक आई.सी.एस. अधिकारी बी.एन.राव को संविधान का पहला प्रारूप बनाने का काम सौंप दिया और बी.एन.राव ने 1935 के भारत एक्ट की नींव तथा कैबिनेट मिशन प्लान के डिजायन पर एक प्रारूप बनाकर दे दिया और वही अन्ततोगत्वा थोड़े-बहुत संशोधन के साथ स्वाधीन भारत का संविधान बन गया। यह किसी को नहीं सूझा कि संविधान सभा को पहले बुनियादी अवधारणाओं की व्याख्या करनी चाहिए थी। भारत में राष्ट्रीयता की आधारभूमि क्या है? पाकिस्तान के रूप में देश विभाजन की मांग के पीछे कौन सी विचारधारा काम कर रही है? अंग्रेजों द्वारा प्रयुक्त अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक शब्दावली का औचित्य क्या है? भारतीय समाज को मुस्लिम, गैर-मुस्लिम में विभाजित करने के पीछे रणनीति क्या है? साम्प्रदायिकता, पंथ निरपेक्षता और राष्ट्रीयता जैसे शब्दों की भारत के संदर्भ में सही व्याख्या क्या नहीं होनी चाहिए? भारतीय संविधान में संघवाद की अवधारणा का कब और कैसे श्रीगणेश हुआ? गांधी जी 1916 से ही ग्राम पंचायत पर आधारित जिस स्वदेशी संविधान की बात करते आ रहे थे क्या वह सचमुच निरर्थक और कालबाह्य हो चुका था या अभी भी सार्थक है? ऐसे और कई मूलभूत प्रश्न हो सकते थे जिन पर संविधान रचना की प्रक्रिया शुरू करने से पहले विचार किया जाना चाहिए था। किंतु संविधान सभा की कार्रवाई को पढ़ने से विदित होता है कि इनमें से एक भी प्रश्न न उठाया गया, न उस पर विचार हुआ। सीधे-सीधे 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्यात्मक बीज वक्तव्य पर स्वीकृति की मुहर लगाई गई।
गांधी जी किनारे किए गए
1932 के पूना समझौते के अन्तर्गत जाति के आधार पर आरक्षण के सिद्धांत को अपना लिया गया। महात्मा गांधी को पूरी तरह किनारे कर दिया। जिस संविधान रचना का लक्ष्य भारत की मूलभूत भौगोलिक अखंडता के अधिष्ठान पर एक राष्ट्रभक्त एकात्म राष्ट्रीय समाज का निर्माण होना चाहिए, वही संविधान ब्रिटिश शासकों द्वारा आरोपित प्रशासनतंत्र, न्याय प्रणाली, शिक्षा प्रणाली, अर्थरचना आदि को न केवल बनाये रखने का, अपितु दिन दूना रात चौगुना विस्तार करने का माध्यम बन गया। उसी का परिणाम इस समय मची भगदड़, दल-बदल व जोड़-तोड़ के रूप में हमारे सामने है।

 

भाजपा के पक्ष में उमड़ते जन-ज्वार को देख विखण्डन की राजनीति करने वालों में डर पैदा हो गया है।  शायद यही वजह है कि कई बड़े नेता चुनाव न लड़ने के बारह बहाने खोजने लगे हैं।
अब तक पूरे देश में नरेन्द्र मोदी की 272 से अधिक रैलियां और जनसभाएं हो चुकी हैं। इनमें उमड़ता जन-ज्वार यह बताने के लिए काफी है कि वडोदरा से वाराणसी तक देश को मथने वाले मुद्दों पर मतदाता उठ खड़े हुए हैं और उन्हें एक आशा दिख रही है।
 मोदी की स्वीकार्यता कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर कछार तक महसूस की जा रही है।
जाति और मजहब की राजनीति करने वाले सेकुलर नेता इतने भयाक्रांत हो गए हैं कि वे लोग मोदी को लेकर बहुत ही छिछोरी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। दलों के बंधन भूलकर अनेक नेता पाला बदल कर भाजपा का दामन थामने लगे हैं।

 

एक ओर सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लिए लालायित राजनीतिज्ञ अपने लिए सुरक्षित दल और सीट खोज रहे हैं। इस भगदड़ में कहीं कोई विचारधारा या दल के प्रति निष्ठा का भाव नहीं है। भाई के विरुद्ध भाई, चाचा के विरुद्ध भतीजी, पति के विरुद्ध पत्नी, चुनाव युद्ध के लिए खम ठोंक रहे हैं। राजनीतिक सत्ता के लिए व्यक्ति केन्द्रित राजनीति में से उपजे वंशवाद की यह स्वाभाविक परिणति है। यदि करुणानिधि द्रमुक पार्टी को अपने वंश की सम्पत्ति बनाने पर तुले हुए हैं, तो उनके दो पुत्रों (स्तालिन और अलागिरि) में उस वंशवादी विरासत को हथियाने के लिए संघर्ष क्यों न हों? लालू यादव यदि अपनी पत्नी राबड़ी देवी, अपने पुत्र तेजस्वी और अपनी बेटी मीसा को सत्ता के आंगन में दाखिल कराने की कोशिश करें, तो उनके खासमखास रहे रामकृपाल यादव बगावत क्यों न करें? यदि रामविलास पासवान भाजपा से गठबंधन करके मिलीं सात सीटों में से पांच को अपने पुत्र एवं अन्य रिश्तेदारों में बांट लें तो आज या कल उनके परिवार में सत्ता संघर्ष क्यों न छिड़े? महाराष्ट्र में ठाकरे बंधुओं-उद्धव और राज की प्रतिस्पर्धा की काली छाया भाजपा-शिवसेना गठबंधन के लिए राहू बन जाए तो क्या आश्चर्य?
क्या भारतीय संविधान के निर्माताओं ने वंशवादी राजनीति को ही लोकतंत्र का अधिष्ठान माना था? यदि नहीं तो यह स्थिति क्यों पैदा हुई? वर्तमान परिदृश्य को देखकर लगता है कि अधिकांश राजनेता व्यक्तिगत सत्ताकांक्षी हैं, दल या राष्ट्र के लिए नहीं।
मजहब और जाति की राजनीति
अभी तक कहा जा रहा था कि भ्रष्टाचार और महंगाई ही आज का मुख्य प्रश्न है। अत: दागी राजनेताओं को चुनाव मैदान में उतरने से रोकना होगा। किंतु इस समय प्रत्येक दल दूसरे दलों पर दागी नेताओं को टिकट देने का आरोप लगा रहा है। लेकिन प्रत्येक दल दागी ठप्पा लगे राजनेताओं को टिकट देने के लिए स्वयं को भी मजबूर पा रहा है। क्योंकि उन्हें लोकसभा में अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक सीटें जीतना आवश्यक है। चुनाव जीतना ही प्रत्याशी चयन की मुख्य कसौटी बन गई है। किसी प्रत्याशी की जीत या हार का प्रश्न इस पर निर्भर नहीं करता कि वह दागी है या नहीं। बल्कि इस पर निर्भर करता है कि किसी जाति, क्षेत्र या सम्प्रदाय के आधार पर उसका जनाधार सुरक्षित है या नहीं। उदाहरण के लिए कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप भाजपा विरोधियों द्वारा मुख्य मुद्दा बना लिया गया। यह प्रचार इतना जोर-शोर से चला कि भाजपा ने उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए विवश कर दिया। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले उन्होंने अपना एक स्वतंत्र दल बना लिया जिसका परिणाम हुआ कि उन्होंने 10 प्रतिशत मत पाकर सिद्ध कर दिया कि लिंगायत वोटों का उनका जनाधार अभी भी सुरक्षित है। लिंगायत मतों का बड़ा भाग भाजपा से दूर होकर उनके पीछे चला गया। फलस्वरूप, भाजपा कर्नाटक में सत्ताच्युत हो गई। उसकी इस पराजय का उसके प्रतिद्वंद्वियों ने खूब प्रचार किया। उन्होंने इसे भाजपा की विचारधारा की पराजय तक कहा। जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था ने समाज को खंड-खंड विखंडित कर दिया है। पहली बार सोनिया गांधी के राजमहल 10, जनपथ में एक महत्वपूर्ण ह्यदरबारीह्ण जनार्दन द्विवेदी ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि आरक्षण का आधार जाति नहीं, वरन आर्थिक स्थिति होना चाहिए। उनके इस कथन का स्वागत करने के बजाए सोनिया जी एवं उनकी पार्टी ने सोनिया जी की कोर कमेटी के एक महत्वपूर्ण सदस्य के इस सही कथन को अपनाने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, जाटों को आरक्षण की घोषणा करके उन्होंने बता दिया कि चुनाव राजनीति जातिवाद के बिना चल नहीं सकती। इसलिए जातिवाद का खेल टिकट वितरण से लेकर नारों एवं चुनावी रणनीति तक खुलकर खेला जा रहा है।
पंथनिरपेक्षता का राग
एक ओर जाति के आधार पर समाज को तोड़ा जा रहा है, तो दूसरी ओर सबसे बड़े वोट बैंक अर्थात् मुस्लिम समाज को रिझाने के लिए प्रत्येक दल पंथनिरपेक्षता का राग अलाप रहा है। अपने को पंथनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिए सभी विपक्षी दल इस चुनावी महाभारत में विजय की ओर अग्रसर भाजपा और नरेन्द्र मोदी पर मुस्लिम विरोधी छवि थोपने की कोशिश में लग गये हैं। इसके लिए वे इतिहास को खोद रहे हैं, पर उनके इतिहास बोध की सुई पहले 1992 में विवादास्पद बाबरी ढांचे के विध्वंस पर जाकर अटक जाती थी, तो 2002 से गोधरा नरमेध की प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात के दंगों पर अटक गयी है। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि जिस नरेन्द्र मोदी को विजय रथ को रोकने के लिए वे उन्हें मुसलमानों का कातिल कहते-कहते नहीं थकते, उन्हीं नरेन्द्र मोदी के बारह वर्ष लम्बे मुख्यमंत्री काल में गुजरात ने न केवल साम्प्रदायिक सौहार्द एवं शांति का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। जबकि अन्य राज्यों में साम्प्रदायिक हिंसा की अनेक घटनाएं घट चुकी हैं। राजनेताओं का निहित स्वार्थ जख्मों को भरने में नहीं, उन्हें गहरा करने में बन गया है।
विघटनकारी राजनीति
इस विघटनकारी राजनीति के विरुद्ध नरेन्द्र मोदी की जनसभाओं में सुदूर दक्षिण के केरल से लेकर उत्तर में जम्मू-कश्मीर तक और गुजरात के काठियावाड़ से लेकर पूर्वोत्तर में अरुणाचल और असम तक जन उभार का जो विराट दृश्य उभर रहा है, उसका क्या अर्थ निकाला जाए? क्या यह अखिल भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है,जो भ्रष्टाचार और सत्तालोलुप अवसरवाद में आकंठ डूबी विभाजनकारी और वंशवादी राजनीति से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है? वस्तुत: चुनावी महाभारत का यह नया संस्करण विखण्डनवादी राजनीति और राष्ट्रवाद के बीच निर्णायक युद्ध बन गया है। सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों एवं राजनीतिक समीक्षकों के अनुसार भारत की राष्ट्रीय चेतना अंगड़ाई ले रही है। नरेन्द्र मोदी में भारत को एक दृढ़ निश्चयी, विकास के प्रति समर्पित, योग्य प्रशासक की छवि दिखायी दे रही है। क्या नरेन्द्र मोदी का ह्यइंडिया फर्स्ट ह्ण या ह्यपहले भारतह्ण नारा इसी राष्ट्रीय आकांक्षा को प्रतिध्वनित करता है? यदि भारत ही हमारे जीवन का प्रथम श्रद्धाकेन्द्र बन जाए तो जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय की संकुचित निष्ठाएं राष्ट्रीयता की विराट चेतना में सहज ही डूब जाएंगी और 64 वर्ष लम्बे भटकाव के बाद भारत में एकात्म राष्ट्रवादी समाज जीवन का सृजन हो सकता है। शायद इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही स्वामी विवेकानंद ने आग्रह किया था कि आगामी पचास वर्षों के लिए अन्य सब देवी-देवताओं को किनारे रखकर केवल भारत यात्रा की एकांतिक उपासना करो। यदि नरेन्द्र मोदी का ह्यइंडिया फर्स्टह्ण या ह्यभारत पहलेह्ण जैसा नारा इस महाभारत में मुख्य घोष बन गया तो स्वामी जी की 150वीं वर्षगांठ पर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
जिस प्रकार 1906-07 में बंगाल के विभाजन के ब्रिटिश कुचक्र को वंदेमातरम् के उद्घोष ने परास्त कर दिया था, उसी प्रकार 2014 के महाभारत में राष्ट्रवाद की विजय के लिए आवश्यक है कि पूरे भारत में प्रत्येक नगर, कस्बे और गांव की दीवार पर एक ही नारा लिखा हो, ह्यहम सब भारतवासीह्ण, ह्यभारत पहलेह्ण और ह्यइंडिया फर्स्टह्ण।

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