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सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने जारी किए दो वक्तव्य

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Mar 15, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Mar 2014 14:15:41

अ.भा. प्रतिनिधि सभा के दौरान रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने पत्रकार वार्ताओं को संबोधित किया। उन्होंने सभा में चर्चा में आए विषयों के अतिरिक्त भारत के सामने उपस्थित चुनौतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। इसी क्रम में उनहोंने दो वक्तव्य भी जारी किए। पहला वक्तव्य भारत की सुविख्यात संत अम्मा पर था, जिसमें उन्होंने अभी पिछले दिनों एक पुस्तक की आड़ लेकर सेकुलरों द्वारा किए गए विष-वमन की भर्त्सना करते हुए देशवासियों से ऐसे कुत्सित प्रयासो से सावधान रहने और उनका प्रतिकार करने का आह्वान किया। दूसरा वक्तव्य उत्तर-पूर्व की महान स्वतंत्रता सेनानी रानी मां गाइदिन्ल्यू पर था, जिनका जनमशताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। इस आयोजन के प्रति संपूर्ण सहयोग का आह्वान करते हुए सरकार्यवाह ने उनकी प्रेरक गाथा देश के कोने-कोने तक पहुंचाने को कहा। यहां हम उन दोनों वक्तव्यों का अविकल पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं।
अम्मा को बदनाम करने वाले मानवता के शत्रु
माता अमृतानंदमयी एक विश्व विख्यात हिन्दू संत हैं जिनके अनुयायी सभी भौगोलिक क्षेत्रों, वगोंर् एवं पंथों व सम्प्रदायों में लक्षावधि संख्या में हैं वे उन्हें अम्मा इस नाम से सम्बोधित करते हैं। उन्होंने लाखों की संख्या में पीडि़त मानवता के जीवन को अपने प्रेम तथा ममता से भरे दुखनिवारक स्पर्श से अनुगृहीत किया है।
दुखनिवारण के अपने अविरत प्रयासों के लिए प्रेम से गले लगाने वाली ये संत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र तथा अन्यान्य देशों द्वारा सम्मानित की जा चुकी है। दिव्य प्रेम कि प्रतिमूर्ति ह्यअम्माह्ण दुनिया के कोने-कोने में अविरत भ्रमण , अहर्निश प्रवचन, भक्तों की हजारों शंकाओं का शांति से समाधान तथा हजारों पत्रों व इ-मेल का उत्तर देने जैसे कायोंर् में निरंतर व्यस्त रहती हैं।
वे गरीब तथा जरूरतमन्द लोगों के लिए असंख्य सामाजिक सेवा प्रकल्पों के संचालन व प्रबंधन का काम करती हैं। अपने अविरत परिश्रम के कारण उन्होंने एक विश्व व्यापी परोपकारी अभियान को प्रेरित किया है।
सन्देहास्पद चरित्र के कुछ पश्चिमी कुटिल गुटों द्वारा ऐसे पवित्र को दुर्भाव तथा विद्वेष का शिकार बनाना क्षोभित करने वाली बात है। ह्यहोली हेलह्ण नामक पुस्तक सनातन धर्म के बढ़ते प्रभाव को खतरे के रूप से देखने वाले मानवता विरोधी, पश्चिमी कट्टरपंथी तथा रूढि़वादी पंथिक उन्मादी तत्वों द्वारा सनातन धर्म तथा धार्मिक आंदोलन को बदनाम करने का घृणित प्रयास है।
पुस्तक प्रकाशन का समय, अम्मा के आंदोलन पर पुस्तक में किये गए नितांत गलत व अप्रमाणित आरोप तथा इन विद्वेषपूर्ण व अपमानजनक आरोपों को हिन्दू विरोधी मीडिया व बुद्घिजीवियों द्वारा दिया त्वरित समर्थन किसी कुटिल अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की तरफ इशारा करता है। इसके पूर्व भी कई हिन्दू संतों को इसी प्रकार विद्वेष का शिकार बनाया गया था।
अम्मा जैसी श्रद्घेय संत को बदनाम करने के प्रयासों कि हम कड़ी भर्त्सना करते हैं एवं समस्त हिन्दू समाज व विश्व के सुविचारी लोगों को आवाहन करते हैं कि ऐसे तत्वों को मानवता के शत्रु मानकर उनकी भर्त्सना करें।
रा़ स्व़ संघ की ओर से मैं पूज्य अम्मा तथा उनके कार्य के प्रति अपनी अगाध श्रद्घा को दोहराते हुए अम्मा तथा अन्य हिन्दू संतों एवं संस्थाओं के विरोध में रचे जा रहे सभी दुष्ट षड्यंत्रों को चुनौती देने वाले सभी प्रयासों को सहयोग का आश्वासन देता हूं ।
देशभर में गूंजे रानी मां गाइदिन्ल्यू का यशगान
अपने देश के पूर्वोत्तर में मणिपुर की सुरम्य हिमालय उपत्यकाओं में एक ग्राम है लंग्काओ। आज से सौ वर्ष पूर्व 26 जनवरी 1915 को रानी मां गाइदिन्ल्यू का जन्म इसी ग्राम में हुआ था। वे दिव्य-आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न थीं और अंग्रेजी साम्राज्य तथा ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीय धर्म, संस्कृति और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए उत्पन्न खतरों को उन्होंने उसी समय अनुभव कर लिया था। इन विषयों पर रानी मां तथा उनके भाई हेपाउ जादोनांग ने 1928 में गुवाहाटी में आकर महात्मा गांधी से गंभीर चर्चा की और उसके बाद अंग्रेजी शासन के विरोध में अपने भाई जादोनांग के साथ मिलकर 13 वर्ष की आयु में ही सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया था। जादोनांग ने अपने हजारों साथियों को लेकर अंग्रेजों के साम्राज्य के विरुद्ध अपनी स्वाधीनता हेतु संघर्ष किया।
अन्ततोगत्वा 29 अगस्त, 1931 में जादोनांग पकड़े गए और असत्य आरोपों के आधार पर उनको फांसी लगा दी गई। जादोनांग की मृत्यु के पश्चात इस संघर्ष की जिम्मेदारी रानी मां के हाथ में आ गई। रानी मां ने मणिपुर की पहाडि़यों पर स्थानीय समाज को संगठित कर अंग्रेजों के साथ मोर्चा लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश 1932 में रानी मां को पकड़ लिया गया। उस समय रानी मां की आयु केवल 16 वर्ष की ही थी। अंग्रेजों ने रानी मां को आजीवन कारावास की घोषणा कर दी।
श्री जवाहरलाल नेहरू ने 1937 में स्वयं शिलांग जेल जाकर उनसे भेंट की और उनको पूर्वोत्तर के पर्वतीय क्षेत्र की ह्यरानीह्ण का नाम देकर सम्मानित किया। देश की स्वतंत्रता के पश्चात 1947 में ही रानी मां कारागार से मुक्त हुईं और शेष जीवन रानी मां के नाम से विख्यात हुईं। 15 वर्षों तक कठोर कारावास में रहने के बावजूद जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने विश्राम नहीं किया। उत्तर-पूर्वांचल की पहाडि़यों पर चल रहे मतान्तरण तथा नागा नेशनल काउंसिल के अराष्ट्रीय आन्दोलन के विरोध में वे संघर्ष करती रहीं। इस कारण एक बार पुन: (1959 से 1966 तक) उनको भूमिगत रहना पड़ा। निरंतर संघर्ष करते हुए 17 फरवरी 1993 को उन्होंने अन्तिम श्वांस ली।
स्वतंत्रता संग्राम तथा पूर्वोत्तर की पहाडि़यों पर समाज रक्षा के लिए उनके अप्रतिम योगदान को स्मरण कर उनकी राष्ट्रीय भूमिका को प्रतिष्ठित करते हुए भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र भेंट किया तथा पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी पावन स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया।
यह प्रसन्नता की बात है कि वनवासी कल्याण आश्रम के कार्यकर्ताओं ने प्रयत्नपूर्वक रानी मां की इस बलिदानी संघर्ष गाथा को देशभर में पहुंचाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। रानी मां के अनुयायियों ने जेलियंाग रांग हरक्का ऐसोसिएशन के तत्वावधान में रानी मां की पावन स्मृति को चिरस्थाई बनाने की दृष्टि से 26 फरवरी 2014 से 26 जनवरी 2015 तक रानी मां का जन्मशताब्दी वर्ष मनाने का निश्चय किया है। अखिल भारतीय कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता भी इस आयोजन को सफल बनाने हेतु उनके साथ प्रयासरत हैं।
जेलियांग रांग हरक्का एसोसिएशन तथा वनवासी कल्याण आश्रम के इन प्रशंसनीय प्रयासों का हम अभिनंदन करते हैं और पूर्वोत्तर के महापुरुषों तथा स्वतंत्रता सेनानियों के प्रेरणादायी जीवन प्रसंगों को देशभर में पहुंचाने के इन प्रयत्नों का स्वागत करते हैं। उत्तर पूर्वांचल में जन्म लेकर राष्ट्रीय हितों के लिए संघर्ष करने वाले ऐसे महापुरुषों के प्रेरक जीवन प्रसंगों को सम्पूर्ण देश भली प्रकार समझे, यह हम सभी का राष्ट्रीय दायित्व है। हम सभी देशभक्त नगारिकों से यह अनुरोध करते हैं कि रानी मां के तेजस्वी प्रेरणादायी जीवन चरित्र को राष्ट्रीय गौरव प्राप्त हो इस दृष्टि से सम्पन्न हो, रहे शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु सभी प्रकार से सहयोग करें। प्रतिनिधि

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