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आंवला एकादशी (12 मार्च) पर विशेष
सनातन धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्व है। प्रत्येक वर्ष 24 एकादशी होती हैं, लेकिन जब अधिक मास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। आमलकी यानी आंवला एकादशी को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा की नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा जी को जन्म दिया तो उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है और यह वृक्षों में श्रेष्ठ है। शास्त्रों में भगवान विष्णु ने कहा है कि जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस दिन प्रात: काल स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मै ह्यमोक्ष की कामना व प्रभु भक्ति के लिए आमलकी एकादशी का व्रत रख रहा हूं। मेरा यह व्रत सफलतापूर्वक पूरा हो, इसके लिए श्री हरि मुझे अपनी शरण में रखें।ह्ण संकल्प के पश्चात विधि के अनुसार भगवान की पूजा करें।
आंवला एकादशी की कथा
धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि ह्यहे मधुसूदन, मुझे फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम और महत्व बताने की कृपा कीजिये।ह्ण भगवान श्रीकृष्ण बोले, ह्यहे धर्मनन्दन फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम ह्यआमलकीह्ण है । इसका पवित्र व्रत विष्णु लोक की प्राप्ति कराने वाला है और इससे सभी पापों का नाश होता है।ह्ण उन्होंने युधिष्ठिर को आंवला एकादशी का महत्व बताने के लिए एक कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि एक बार राजा मान्धाता ने भी ऋषि वशिष्ठ जी से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा था, जिसके जवाब में वशिष्ठ जी ने उन्हें कहा था कि भगवान विष्णु की लार स्वरूप मुख से चन्द्रमा के समान कांतिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा । उसी से आंवले (आमलक ) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया और ब्रह्मा जी ने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंत:करण वाले महर्षियों को जन्म दिया । उनमें से देवता और ऋषि उस स्थान पर आये, जहां विष्णु प्रिय आंवले का वृक्ष था। उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं जानते थे । उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई कि ह्यहे महर्षियों यह सर्वश्रेष्ठ आंवले का वृक्ष है, जो स्वयं परमप्रभु विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरण मात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दोगुना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है । यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष है । इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं । आंवले का वृक्ष सर्वदेवमय है । अत: विष्णु भक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है । इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आंवले का सेवन करना चाहिए ।ह्ण इस पर ऋषि ने जब पूछा कि आप कौन हैं तो पुन: आकाशवाणी हुई कि जो सम्पूर्ण भूतों के कर्ता और समस्त भुवनों के श्रेष्ठ हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूं।
देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ऋषिगण भगवान की स्तुति करने लगे । इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले, ह्यमहर्षियों मैं तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूं?ह्ण इस पर ऋषि बोले कि ह्यहे प्रभु ,यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।ह्ण इस पर विष्णु जी ने महर्षियों को विस्तार से बताया कि फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त एकादशी हो तो वह महान पुण्य देने वाली और बड़े-बड़े महापापों का नाश करने वाली होती है। इस दिन आंवले के वृक्ष के पास जाकर वहां रात्रि में जागरण करना चाहिए। इससे मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और साथ ही उसे हजारों गायों के दान का फल प्राप्त होता है। यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है।
इसके बाद महर्षियों ने भगवान विष्णु से व्रत की विधि जानने का आग्रह किया। इस पर भगवान विष्णु ने बताया कि इस एकादशी को व्रत करके यह संकल्प करें कि वे एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करंेगे। ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करने वाले मनुष्यों से वह वार्तालाप न करें । अपने मन को वश में रखते हुए नदी, पोखर , कुएं पर अथवा घर में ही स्नान करें । स्नान से पूर्व शरीर पर मिट्टी लगायें।
उन्होंने बताया कि विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुराम जी की सोने या फिर अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार एक प्रतिमा बनवायें । फिर स्नान के बाद घर आकर पूजा और हवन करें। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष के पास जाएं । वहां वृक्ष के चारों ओर की भूमि को झाडू लगाकर साफ करें और फिर वहां गाय के गोबर से लेपन करें। शुद्ध भूमि पर जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करें । कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दें । श्वेत चन्दन से उसका लेपन करें। उसके कण्ठ में फूल की माला पहनायें। सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलायें। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखें । पूजा के लिए वस्त्र इत्यादि भी हो । कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ लाजों (खीलों) से भर दें । फिर उसके ऊपर परशुराम जी की मूर्ति स्थापित करें।
फिर भगवान परशुराम को नमस्कार कर उन्हें आंवले के फल के साथ अर्घ्य दें। इसके पश्चात एकाचित होकर जागरण करें। नृत्य, संगीत, वाघ, धार्मिक उपाख्यान तथा श्री विष्णु संबंधी कथा-वार्ता आदि कर रात्रि व्यतीत करें। उसके बाद भगवान विष्णु के नाम लेकर 108 या 28 बार आंवले के वृक्ष की परिक्रमा करें । फिर सुबह होने पर श्री हरि की आरती क रें। ब्राह्मण का सम्मान करके वहां की सब सामग्री उसे दान कर दें और यह भावना रखें कि परशुराम जी के स्वरूप में भगवान विष्णु उस पर प्रसन्न हों । इसके पश्चात आंवले के वृक्ष का स्पर्श कर स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन करायें। फिर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। भगवान विष्णु ने बताया कि सम्पूर्ण तीथोंर् को करने से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब इस विधि क ा पालन करने से सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें जरा भी संदेह नहीं ह। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है। इतना कहकर भगवान विष्णु लौट गये। इसके बाद उन समस्त महर्षियों ने इस व्रत का पूर्णरूप से पालन किया। श्रीकृष्ण से आंवला एकादशी का महत्व जानने के पश्चात युधिष्ठिर ने प्रभु का धन्यवाद किया और इसी व्रत का पालन किया।
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