|
-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
पहले प्रख्यात अधिवक्ता फली एस नरीमन के लोकपाल की चयन प्रक्रिया का हिस्सा बनने से इनकार करने के बाद अब देश का पहला लोकपाल चुनने की सरकार की कवायद को एक और झटका लगा है। न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस ने लोकपाल चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए खोज समिति का प्रमुख बनने से मना कर दिया है। हाल ही में संसद के पिछले सत्र में ही लोकपाल कानून मिला था। हालांकि इसे आदर्श लोकपाल कानून नहीं कहा जा सकता, फिर भी ऐसा माना जा सकता है कि यह मध्य का रास्ता है। लेकिन जैसा कि कहावत है 'चोर, चोरी से जाए, पर हेराफेरी से न जाए।' उसी तर्ज पर लोकपाल के गठन के लिए बनने वाली समिति में जब लोकसभा के स्पीकर को रखा गया था, तभी बहुत से लोगों का माथा ठनका था। अध्यक्ष चाहे लोकसभा के हों, या विधानसभा के, कहने को तो दलगत राजनीति से ऊपर और निष्पक्ष माने जाते हैं। पर वास्विकता यह है कि पिछले कई दशकों वे वैसा ही करते आए हैं जैसा कि उन्हें स्पीकर बनाने वाला अथवा सत्तारूढ़ दल चाहता है। कहने का आशय यह कि लोकसभा के स्पीकर को लोकपाल कमेटी के चयन समिति में रखकर केंद्र सरकार का प्रयास कुछ ऐसा ही रहा कि यदि मजबूरी में लोकपाल लाना ही ही पड़ा है तो ऐसा लोकपाल बने जो उसके हितों के अनुकूल हो। लोकपाल चयन करने वाली समिति में, प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामांकित एक न्यायाधीश, लोकसभा के स्पीकर होते हैं। इन चारों को एक न्यायविद् बतौर कमेटी के लिए एक सदस्य का चयन और करना था।
कुछ इसी तरह तर्ज पर लोकपाल चयन समिति में जिस पांचवे व्यक्ति को रखा जाना था, उसमें बहुमत के बल पर पी.पी. राव का नाम प्रस्तावित किया गया है। पी.पी. राव हालांकि वरिष्ठ न्यायविद् हैं, उनकी योग्यता और क्षमता पर भी कोई प्रश्न-चिन्ह नहीं उठा सकता, पर उनके रिश्ते कांग्रेस से बहुत प्रगाढ़ बताए जाते हैं। ऐसी स्थिति में लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज जो लोकपाल गठन कमेटी की सदस्य हैं, श्री राव के नाम का विरोध कर रही हैं। उन्हांने अपनी आपत्ति राष्ट्रपति तक को दर्ज करा दी है। जबकि प्रधानमंत्री श्री राव को लोकपाल गठन कमेटी का सदस्य बनाने के लिए बहुमत के आधार का तर्क रखते हुए अड़े हुए हैं। जबकि श्रीमती सुषमा स्वराज का कहना है कि इतनी महत्वपूर्ण कमेटी के सदस्य का चुनाव बहुमत से नहीं, बल्कि आम सहमति से होना चाहिए।
अपनी पहली पारी में मनमोहन सिंह जब स्वत: कह चुके हैं कि सिर्फ सीजर को ही नहीं सीजर की पत्नी को भी संदेह के परे होना चाहिए। फिर वह इसके उलट इस तरह से कार्य क्यों कर रहे हैं, जो गंभीर संदेहों को जन्म दे? आखिर में पी.पी. राव की नियुक्ति को लेकर इतना दुराग्रह क्यों? जबकि यह संदेह के दायरे में है कि कांग्रेस से अपने घनिष्ठ संबंधों के चलते वह निष्पक्ष रूप से काम कर सकेंगे। बड़ा सवाल यह कि कांग्रेस इस तरह से हर जगह अंध-बहुमतवाद का खेल क्यों खेलती है? सुषमा स्वराज की आशंका इससे प्रमाणित होती है कि प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ फलीगन नरीमन लोकपाल सर्च कमेटी से अलग हो चुके हैं, क्योंकि उनका मानना है कि केंद्र सरकार निष्पक्ष लोकपाल की पक्षधर नहीं है। अब जैसा कि राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली आरोप लगा रहे हैं कि सरकार सर्वोत्तम लोगों का चयन न कर महज लोकपाल की औपचारिकता पूरी कर रही है, क्योंकि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग चयन समिति एवं खोज समिति को प्रशासनिक एवं अन्य मदद न जुटाकर स्वत: निर्णायक बनना चाहता है, ताकि सरकार की धुनों पर लोकपाल का चयन किया जा सके। ऐसी स्थिति में नरीमन का इस्तीफा साबित करता है कि यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा महज दिखावा है। राहुल गांधी जो इन दिनों कांगेस की डूबती नैया को देखकर भ्रष्टाचार के विरोध में बहुत बोल रहे हैं और कई भ्रष्टाचार विरोधी बिलों को पास न करने के लिए विरोधी दलों को पानी पी-पी कर कोस रहे हैं, उन्हें बताना चाहिए कि इस तरह कमजोर लोकपाल लाने की कवायद क्यों हो रही है? अभी वर्ष 2009 का थामस प्रकरण लोग भूले नहीं होंगे। ज्ञातव्य है कि वर्ष 2009 में मुख्य सर्तकता आयुक्त के पद पर दागी पी.जे. थॉमस को बहुमत का तर्क देकर नियुक्त कर दिया गया था। यह बात दीगर है कि कि सर्वोच्च न्यायालय ने उस नियुक्ति को रद्द कर दिया था। माना कि पी.पी. राव दागी नहीं है, पर उनकी निष्पक्षता पर प्रश्न-चिन्ह तो है ही और ऐसी भरपूर आशंका है कि वह कांग्रेसकी इच्छानुसार काम करेंगे। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में निष्पक्ष और प्रभावी लोकपाल का गठन और जिस भ्रष्टाचार को हटाने के लिए किया जाना है, उसके प्रति शंका पैदा हो गई है। जबकि दूसरी तरफ श्रीमती सुषमा स्वराज ने ऐसे कई न्यायविदों का नाम सुझाया था, जो सिर्फ अपनी अप्रतिम योग्यता के लिए ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन में निष्पक्षता के लिए भी जाने जाते हंै।
सरकार के इस कार्य से ऐसा लगता है कि लोकपाल कानून कांग्रेस ने अपनी इच्छा से नहीं बल्कि अपने प्रति प्रतिकूल जनमत के चलते मजबूरी में बनाया है, और येन-केन-प्रकारेण वह इस पर ऐसे तौर-तरीकों से पलीता लगाना चाहती है। भ्रष्टाचारियों को बचाने वाली जो कांग्रेस की छवि है, वह उसे कायम रखना चाहती है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि लोकपाल संस्था के गठन के लिए उठाया गया पहला कदम ही कुछ ऐसा उलझ गया है कि इसे 'प्रथम ग्रासे मच्छिका' ही कहा सकता है।
टिप्पणियाँ