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संघ को बदनाम कर वोट बटोरना ही कांग्रेसी लक्ष्य

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Feb 22, 2014, 12:00 am IST
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दिंनाक: 22 Feb 2014 16:04:04

-डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री –

दिल्ली की एक अंग्रेजी पत्रिका कारवां ने पिछले दिनों जेल में बंद स्वामी असीमानंद के हवाले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आरोप लगाया कि संघ ने उन्हें हिंसात्मक गतिविधियों की अनुमति प्रदान की थी। वैसे भी संघ हमेशा से उन शक्तियों के निशाने पर रहा है जो भारत को कमजोर करना चाहती हैं और इसे खंडित के सपने देखती रही हैं। संघ ने शुरू से ही भारत के जिस सांस्कृतिक स्वरूप का समर्थन किया है, विदेशी शासकों और विदेशी ताकतों को वह कभी पसंद नहीं रहा है, क्योंकि उन्हें सदा खतरा रहता है कि इस सांस्कृतिक ऊर्जा से अनुप्राणित होकर भारत एक बार फिर विश्व में अपना गौरवशाली स्थान प्राप्त कर सकता है। वर्ष 1947 से कुछ वर्ष पहले तक मुस्लिम लीग संघ का इस लिए विरोध करती थी क्योंकि संघ मुस्लिम लीग के देशघाती विभाजन के सिद्धांत का विरोध कर रहा था। विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ पर इसलिए आक्रमण तेज किए क्योंकि देश विभाजन के राष्ट्रघाती फार्मूले को स्वीकार कर लेने के बाद कांग्रेस के भीतर जो अपराध बोध पल रहा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आईने में वह उसे टीस देता रहता था। मामला यहां तक बढ़ा कि नेहरू और उनकी टीम के मुख्य लोगों मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और रफी अहमद किदवई ने भी महात्मा गांधी के मन में भी संघ के बारे में गलतफहमी पैदा करने की कोशिश की। यही कारण था कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में उसे समझने बूझने के लिए आए थे।
नेहरू और उनकी टीम के लोग महात्मा गांधी के मन में मोटे तौर पर संघ की भूमिका को लेकर भ्रम पैदा करने में सफल नहीं हुए, लेकिन जब नेहरू के मित्र और उस समय के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने, पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाने के प्रश्न पर महात्मा गांधी को उपवास करने के लिए उकसाया, तो माउंटबेटन भी शायद इतना तो जानते ही थे कि विभाजन के बाद उत्पन्न हुए वातावरण में उनके उपवास से तनाव और भी बढ़ सकता है। इसे भी माउंटबेटन की रणनीति का हिस्सा ही मानना चाहिए कि उसने महात्मा गांधी को उपवास रखने के लिये उकसाते समय सरदार पटेल और अन्य नेताओं को पता नहीं चलने दिया। महात्मा गांधी की हत्या पर जब सारा देश स्तब्ध और शोकाकुल था तब भी जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निपटाने की कोशिश में जुटे थे। यहां तक कि उन्होंने यह चर्चा भी चला दी कि इसके लिये सरदार पटेल भी दोषी हैं। पटेल इससे बहुत आहत हुए। नेहरू ने गांधी हत्या का बहाना लेकर न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित किया बल्कि संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को भी गिरफ्तार करा दिया।
आश्चर्य की बात है भारत विभाजन के लिये काम कर रही मुस्लिम लीग को तो बाद में भी काम करने दिया गया और संघ को स्वतंत्रता के तुरंत बाद प्रतिबंधित कर दिया गया । यह अलग बात है कि न्यायालय ने नेहरू की इस चाल को तार-तार कर दिया और संघ को महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से मुक्त कर किया, जिसके बाद सरकार को संघ से प्रतिबंध हटाना पड़ा।
लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि जिन दिनों पंडित नेहरू जम्मू-कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थे उन दिनों पाकिस्तान के प्रतिनिधि बार-बार इस बात पर जोर देते थे, कि जम्मू-कश्मीर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी लोगों को निकाला जाए। उसका मुख्य कारण यही था कि पाकिस्तान को विश्वास था कि नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ तो मजहब के आधार पर जम्मू- कश्मीर के विभाजन की बात की जा सकती है, लेकिन जब तक राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं तब तक वे जम्मू-कश्मीर के किसी भी हिस्से को पाकिस्तान को दिए जाने का विरोध करते रहेंगे। विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग ने और विभाजन के बाद कांग्रेस ने संघ के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों को अपने निशाने पर बनाए रखा। उसी तर्ज पर आज कांग्रेस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने के षड्यंत्र में जुटी है। अंग्रेजी की एक पत्रिका ने किसी पत्रकार को आगे करके संघ पर देश में हिंसात्मक गतिविधियों को सहमति देने को लेकर जो आरोप लगाया गया है वह कांग्र्रेस की रणनीति का हिस्सा है। सोनिया पार्टी के क्रियाकलापों और उसकी रीति नीति को समझने के लिये मुसोलिनी की कार्यप्रणाली और मैकियावली की राज्य नीति को समझना बहुत जरूरी है। कारवां में प्रकाशित तथाकथित साक्षात्कार को तभी ठीक से पकड़ा जा सकता है।
कारवां अपने इस तथाकथित साक्षात्कार को लेकर किस प्रकार एक पूरी रणनीति के तहत काम कर रहा था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कारवां में प्रकाशित इस आलेख को जब किसी ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी तो पत्रिका की ओर से पांच फरवरी को बाकायदा एक प्रेस नोट जारी किया गया जिसमें संघ के सरसंघचालक पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने असीमानंद को देश में हिंसात्मक गतिविधि करने के लिए अपनी सहमति दी थी। यह प्रेस नोट दिल्ली प्रेस के मालिकों की सहमति या सहभागिता के बिना तैयार नहीं किया जा सकता था जो कारवां के मालिक हैं ।
रिकॉर्ड के लिए बता दिया जाए कि दिल्ली प्रेस नाम से मीडिया के व्यवसाय में लगी यह कंपनी पिछले कई वर्षों से अंग्रेजी और हिंदी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं छाप रही है। दिल्ली प्रेस के इस मीडिया हाउस का स्वर शत-प्रतिशत हिंदू विरोधी रहता है। हिन्दू संस्कृति और उसके प्रतीकों को खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। जो काम तरुण तेजपाल का मीडिया हाउस तथाकथित स्टिंग ऑपरेशनों के माध्यम से करता था वही काम दिल्ली प्रेस का मीडिया हाउस हिन्दू आस्थाओं पर प्रहार करके करता है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक तीसरा समूह भी कार्यरत है। भारत में चर्च के विभिन्न संस्थानों द्वारा प्रकाशित पत्र पत्रिकाओं को इस तीसरे समूह की संज्ञा दी जा सकती है। दिल्ली प्रेस की पत्र पत्रिकाओं और चर्च द्वारा भारत में मतांतरण आंदोलन को तेज करने के लिए प्रकाशित की जा रही पत्र पत्रिकाओं की भाषा का यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो सभी एक जैसी ही हैं।

कांगे्रस को भली भांति पता है कि यदि संघ पर ये आरोप तरुण तेजपाल के मीडिया हाउस तहलका के माध्यम से लगाए जाते तो उस पर कोई विश्वास नहीं करता, क्योंकि तेजपाल की कथित करतूतों का पर्दाफाश हो जाने के कारण उसकी विश्वसनीयता लगभग समाप्त हो गई है। शायद इसी मजबूरी में दिल्ली प्रेस को पर्दे के पीछे से निकाल कर यह खेल खेलने के लिए मैदान में उतारा गया, लेकिन दिल्ली प्रेस वालों ने शायद इस खेल में नए होने के कारण कई ऐसी भूल कर दी कि जिसके चलते उनका झूठ आसानी से पकड़ में आ रहा है। कारवां के प्रेस वक्तव्य में अंतरविरोध इतने स्पष्ट थे कि उन्हें इस वक्तव्य के जारी हो जाने के तुरंत बाद भूल-सुधार और स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि पिछले चार-पांच वर्षों से सोनिया पार्टी सरकारी जांच एजेंसियों के साथ मिल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम हिंसात्मक गतिविधियों से जोड़ कर एक तरह से आतंकवादियों को ह्य कवरिंग रेंज ह्ण प्रदान कर रही है । कांग्रेस को लगता है कि इस्लामी आतंकवाद के प्रति उसके इस रवैये से मुसलमान उसे एकतरफा मतदान करेंगे। सरकार को अच्छी तरह पता होता है कि संघ को लेकर फैलाए जा रहे इस दुर्भावनापूर्ण इतालवी झूठ को सिद्ध करने के लिये उसके पास कोई प्रमाण नहीं है। इसके लिए न्यायालय में किसी को आरोपित नहीं किया जा सकता है और न ही आज तक किया जा सका है, लेकिन सरकार की मंशा तो चुने गये मीडिया समूहों की सहायता से संघ और राष्ट्रवादियों को जनमानस में बदनाम करना है। दिल्ली प्रेस की सहायता से किया गया यह प्रयास भी उसी कोटि में आता है। कारवां की पत्रकार ने दावा किया कि उसने जेल में असीमानंद से दो वर्ष में बार-बार मुलाकात की है तो जाहिर है यह सारी साजिश सरकारी सहायता के बिना संभव नहीं हो सकती। दिल्ली प्रेस भी और सोनिया पार्टी और उसकी सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि तथाकथित टेपों की जब तक जांच होगी तब तक तो संघ पर लगे यह आरोप सब जगह चर्चित हो चुके होंगे। कारवां के इस कारनामे को एक और पृष्ठभूमि में भी देखना होगा।
पिछले एक दो साल से देश में यह चर्चा फिर से हो रही है कि सोनिया गांधी की इतालवी पृष्ठभूमि और उनके राजीव गांधी से शादी से पूर्व के जीवन के बारे में जानकारी जुटाई जाए। सोनिया इस समय देश की सत्ता के केन्द्र बिंदु में है और देश सुरक्षा के लिहाज से एक प्रकार से संक्रमण काल से ही गुजर रहा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इस्लामी आतंकवादियों के निशाने पर भारत भी है। ऐसे समय में कांग्रेस सरकार आतंकवादियों के प्रति नरम रवैया ही नहीं अपना रही, बल्कि देश की जनता का ध्यान भी इस तरफ से हटाने के लिये संघ पर आरोप लगा रही है। ताकि कांग्रेस को बिना बात की अफवाह उड़ाने का मौका मिल जाए और वह वोटों की राजनीति कर सके।
पार्टी के एक महामंत्री तो खुलेआम आतंकवादियों का समर्थन करते नजर आते हैं। इससे पहले कि यह प्रश्न उठे कि आतंकवादियों के प्रति सरकार की इस नरम नीति के पीछे कौन है, कांग्रेस सरकार राष्ट्रवादी ताकतों पर दोषारोपण लगाकर उसे घेरने की कोशिश में जुटी है, ताकि लोगों का ध्यान उसकी कारगुजारियों से हट जाए। क्या कारण है कि आज अमरीका भी संघ को निशाना बना रहा है, पाकिस्तान भी और कांग्रेस पार्टी भी?
हरिशंकर परसाई ने एक बार लिखा था कि यदि दुकानदार किसी ग्राहक की बुराई करे तो समझ लेना चाहिये कि ग्राहक ने उस दुकानदार के हाथों चुपचाप लुटने से इंकार कर दिया है । इसी प्रकार अमरीका भारत में जब किसी संगठन को गालियां देना शुरू कर दे तो मान लेना चाहिये कि वह संगठन भारत में अमरीकी हितों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है, लेकिन क्या सोनिया गांधी और उसकी पार्टी इस बात का खुलासा करेगी कि वह संघ को बदनाम करने के काम में किसके हितों की रक्षा में लगी हुई है? रही बात कारवां की , इस लड़ाई में अभी पता नहीं कितने छिपे हुये कारवां लोकसभा के चुनावों तक प्रकट होते रहेंगे। तरुण तेजपाल के जेल जाने से कारवां खत्म थोड़ी हो गया है। 

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