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हिन्दू निंदा ही विचार-स्वातंत्र्य!

by
Feb 15, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Feb 2014 16:04:28

-देवेन्द्र स्वरूप-

मंगलवार 11 फरवरी को एक डिजिटल साईट स्क्राईब्ड पर यह समाचार प्रकाशित होने पर कि शिकागो विश्वविद्यालय के देवत्व (धर्म) विभाग की चौहत्तर वर्षीय प्रोफेसर वेंडी डोनिगर की 2009 में प्रकाशित प्रकाशित पुस्तक ह्यदि हिन्दूज : एन आल्टरनेटिव हिस्ट्रीह्ण के प्रकाशक पेंगुविन ने इस विवादित पुस्तक की सब प्रतियों को बाजार से वापस लेकर छह महीने में पूर्णत: नष्ट करने का लिखित वचन इस पुस्तक के हिन्दू व भारत विरोधी चरित्र के विरुद्ध न्यायालय की शरण में जाने वाले पांच वादियों को दे दिया है। भारत में मार्क्स और मैकाले के बौद्धिक कुल में जन्मे बुद्धिजीवियों की दुनिया में भूचाल आ गया है। इस न्यायोचित समझौते का स्वागत करने के बजाए वे प्रकाशन गृह पेंगुविन और इस भारत विरोधी पुस्तक पर प्रतिबंध की मांग करने वाले राष्ट्रप्रेमियों के विरुद्ध विषवमन पर उतर आये हैं। एक नेहरूभक्त लेखक रामचन्द्र गुहा को परेशानी है कि पेंगुविन जैसे समर्थ और विश्वख्याति के प्रकाशक ने अपने लेखक के बचाव में उच्च न्यायालय में जाने की बजाए समर्पण का रास्ता क्यों अपनाया? रामचन्द्र गुहा की वैचारिक दृष्टि को समझने के लिए एक ही तथ्य पर्याप्त है। टाइम्स आफ इंडिया (13 फरवरी) में प्रकाशित अपने लेख में वे लिखते हैं कि जब 2006 में चित्रकार एम.एफ.हुसैन को हिन्दू विरोध के कारण भारत छोड़ना पड़ा था तब कैसे उनको भारत रत्न देने का सुझाव भारत सरकार को भेजा था और उसी समय उन्हें यह भी कहा था कि सलमान रुश्दी को पद्म विभूषण दिया जाए। यहां प्रश्न उठता है कि रामचन्द्र गुहा ने हुसैन को भारत रत्न, तो सलमान रुश्दी को केवल पद्म विभूषण के योग्य क्यों समझा? क्या इस कारण कि रुश्दी कुरान के ही एक वर्जित किंतु प्रामाणिक अंश को छापने के अपराध के कारण मुस्लिम उलेमाओं की ओर से प्राणदंड का फतवा जारी किये जाने पर अपनी प्राणरक्षा के लिए अनेक वर्षों से छिपते फिर रहे हैं और मुस्लिम कट्टरवाद के भय से जिन्हें पिछले वर्ष जयपुर के साहित्य समारोह में नहीं आने दिया गया? रामचन्द्र गुहा ने इस कट्टरवाद के विरोध में आवाज उठायी हो इसका मुझे पता नहीं है। पर यह भारतीय बुद्धिजीवियों में व्याप्त कायरता का एक उदाहरण है। शायद गुहा ने हुसैन के पुत्र का साक्षात्कार नहीं पढ़ा जिसमें उसने बताया था कि वे भारत वापस आने को तैयार नहीं हैं क्योंकि खाड़ी देशों में उन्हें अधिक सम्मान व अर्थार्जन हो रहा है।
नक्सली हिंसा के वकील
भारतद्रोह और नक्सली हिंसा के वकील के नाते कुख्यात अरुंधती राय ने पेंगुविन के नाम एक खुला पत्र प्रकाशित किया है। यह पत्र लिखते समय वह भूल जाती हैं कि इसी पेंगुविन ने उसकी सब हिन्दू विरोधी एवं अश्लीलता से भरी पुस्तकों यथा ह्यदि गॉड आफ स्माल थिंग्सह्ण, ह्यलिसनिंग टू ग्रासहापर्सह्ण,ह्यब्रोकेन रिपब्लिकह्ण को भी छापा था। हर प्रश्न पर भारत विरोधी भूमिका अपनाने के बाद भी इस देश ने अरुंधती को सहन किया है।
पेंगुविन पर गालियां बरसा रहे बुद्धिजीवियों में बड़ी संख्या उन मार्क्सवादियों की है जिन्होंने प.बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन की पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया था। केवल इस आधार पर इन पुस्तकों से मुस्लिम भावनाओं को आघात पहुंचता है। ह्यमुस्लिम भावनाओंह्ण की रक्षा के लिए ही वहां की कम्युनिस्ट सरकार ने बंगलादेश में मजहबी कट्टरवादियों के उत्पीडि़त तसलीमा को प.बंगाल में शरण नहीं लेने दी गयी, जिसके कारण उसे दर-दर भटकना पड़ा।
पेंगुविन के इस शांति प्रयास को हिन्दू कट्टरवाद के सामने समर्पण कहा जा रहा है। इसके कुछ समय पूर्व जब एक दूसरे बड़े प्रकाशन गृह ह्यऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेसह्ण ने दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में रामकथा को विकृत रूप में प्रस्तुत कराने वाले एक निबंध,जिसे एक अमरीकी विश्वविद्यालय के शिक्षक ए.के.रामानुजन ने लिखा था, वापस लेने का निर्णय लिया था। तब भी मार्क्सवादी लेखकों की फौज ओ.यू.पी. पर टूट पड़ी थी।
यह ध्यान देने की बात है कि वेंडी डोनिगर की किताब को लेकर यह पूरी बहस अधिकांशत: अंग्रेजी के लेखकों और अखबारों तक ही सीमित है। क्या यह मैकाले पुत्रों की मानसिकता का ठोस प्रमाण नहीं है? टाइम्स आफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस इनमें अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। रामनाथ गोयनका जैसे जुझारू भारतभक्त द्वारा स्थापित और मुलगोवकर व अरुण शौरी जैसे निर्भीक पत्रकारों द्वारा संपादित इंडियन एक्सप्रेस अब किस स्थिति में पहुंच गया है, इसका आकलन उसके एक महीने के अंकों में प्रकाशित समाचारों, कॉलमों और लेखों की सूची बनाने से हो सकता है। इनमें अधिकांश सामग्री पाकिस्तानी लेखकों व मुस्लिम पक्ष को प्रस्तुत करने वाली होती है। वेंडी की पुस्तक को वापस लेने के निर्णय की सूचना प्रकाश में आते ही इंडियन एक्यप्रेस ने 12 फरवरी में पहले पन्ने पर एक लम्बा समाचार सम्पादकीय पृष्ठ पर एक अग्रलेख और प्रताप भानु मेहता का लम्बा लेख प्रकाशित हो गया। इससे भी आगे जाकर इंडियन एक्सप्रेस (13 फरवरी) में पहले पन्ने पर इस पूरे विवाद को खड़ा करने के पीछे शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास और शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के 84 वर्षीय श्री दीनानाथ बतरा को 1998 से चले आ रहे अभियान का सूत्रधार बताकर उनके अभियान को राजनीतिक रंग देने के लिए कहा है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध हैं। मानो संघ से रिश्ता जोड़ते ही वे काफिरों की पंक्ति में चले जाते हैं, जबकि 70 वर्ष से राष्ट्र साधना में लीन सौम्य, मृदुभाषी व शांत प्रवृत्ति के श्री दीनानाथ के शिक्षा के क्षेत्र में भारी योगदान को रेखांकित नहीं किया गया। श्री दीनानाथ ने इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता अनुभूति विश्नोई को स्पष्ट शब्दों में बताया कि अनेक वर्षों से चले आ रहे उनके अभियान शिक्षा के पाठ्यक्रमों में श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा व नई पीढ़ी में देशभक्ति के संस्कार पैदा करने के लिए भारत के ज्ञान विज्ञान की परंपरा का ज्ञान समाविष्ट करना है। उन्होंने यह भी बतलाया कि कब-कब उन्हें किन विकृतियों का विरोध करना पड़ा और हर बार उनका विरोध सही होने के कारण सफल हुआ।
लज्जा की बात
वस्तुत: प्रत्येक समाज की अपनी इतिहास दृष्टि और दर्शन परंपरा होती है। उसी के आलोक में उसकी इतिहास यात्रा का मूल्यांकन व प्रस्तुतिकरण होना चाहिए। पाश्चात्य विद्वानों से यह अपेक्षा करना उचित नहीं है कि वे हमारी दृष्टि व दर्शन परंपरा को उसके शुद्ध रूप में समझ सकें। इसलिए उनके लेखन का आलोचनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना और उस पर अपनी प्रतिक्रिया देना बहुत आवश्यक हो जाता है। दुर्भाग्य से भारतीय बुद्धिजीवियों में इस आलोचनात्मक दृष्टि और प्रतिक्रिया व्यक्त करने की निर्भीकता का बहुत अभाव है। वे पाश्चात्य लेखन से अभिभूत हैं और उसके स्तवन में लग जाते हैं।
क्या यह लज्जा की बात नहीं कि जो भारतीय बुद्धिजीवी वेंडी डोनिगर की पुस्तकों को पढ़े बिना ही उसका स्तुतिगान कर रहे हैं उन्होंने अमरीका स्थित एक भारतीय विद्वान राजीव मल्होत्रा की ह्यइन्द्राज नेटह्ण(इन्द्रजाल) की अभी हाल में प्रकाशित पुस्तक का कहीं जिक्र भी नहीं किया और राजीव मल्होत्रा ने इस पुस्तक में सप्रमाण सिद्ध किया है कि किस प्रकार अमरीका के बड़े-बड़े विद्वान यह सिद्ध करने में लगे हैं कि हिन्दू धर्म का जो आज का स्वरूप है वह कृत्रिम है, उसे स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी मान्यताओं और रीतियों को बटोर कर रूप दिया है। राजीव मल्होत्रा ने अपनी पुस्तक में ऐसे अनेक अमरीकी विद्वानों के उद्धरण दिये हैं। इनमें से कुछ नाम हैं पाल हैकर, अगेहानंद सरस्वती (असली नाम लियोपोल्ड फिशर) उर्सुलाकिंग, रामबचन, रिचर्ड किंग आदि-आदि। यह पुस्तक गहन अध्ययन पर आधारित है। राजीव ने इसके पूर्व एक पुस्तक प्रकाशित की थी ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण जिसमें उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया था कि अमरीकी चर्च भारत के खंड-खंड करने के लिए कैसे-कैसे षड्यंत्र रच रहा है। इसके भी पूर्व उन्होंने एक पुस्तक प्रायोजित की थी, जिसका शीर्षक है ह्यइनवेडिंग दि सेक्रेडह्ण। किंतु भारतीय बुद्धिजीवियों ने इन शोधपूर्ण तथ्यपूर्ण पुस्तकों की कोई चर्चा नहीं की है क्योंकि उन्हें अपने देश की महानता से चिढ़ है और वे हिन्दू निंदा को ही विचार स्वातंत्र्य की कसौटी मानते हैं।
अपराधबोध से ग्रस्त वेंडी
राजीव मल्होत्रा ने अनेक वर्ष पूर्व प्रकाशित ह्यइनवेडिंग दि सेक्रेडह्णमें वेंडी डोनिगर की पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डाला है। इस समय वेंडी की जिस पुस्तक को लेकर भारत में चर्चा हो रही है वह 2009 में प्रकाशित हुई थी। उसका शीर्षक है ह्यदि हिन्दूज: एन आल्टरनेटिव हिस्ट्रीह्ण(हिन्दुओं का वैकल्पिक इतिहास)। इसके बाद वेंडी ने 2013 में दूसरी पुस्तक प्रकाशित की है। 660 पृष्ठों की इस विशाल पुस्तक का शीर्षक है ह्यआन हिन्दुहिज्मह्ण (हिन्दू धर्म के बारे में)। इस पुस्तक में वेंडी ने एक लम्बी भूमिका लिखी है जिसके पढ़ने से विदित होता है कि वेंडी स्वयं भी अपराधबोध से ग्रस्त है। वह लिखती है कि उस पुस्तक को मैंने अमरीकी पाठकों के लिए लिखा था। तब मुझे कल्पना नहीं थी कि इस पुस्तक को हिन्दू भी पढ़ सकते हैं और उन पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया होगी। इसीलिए हिन्दू भावनाओं को ध्यान में रखकर यह दूसरी पुस्तक लिखी जा रही है। इस भूमिका में वेंडी यह बताने का प्रयास करती है कि 1958 में 17 वर्ष की आयु से संस्कृत भाषा और वाड.्मय का अध्ययन करती आ रही है। वह भारत-प्रेमी है। पहली पुस्तक में उसने घटनाओं पर नहीं, उनके विश्लेषण पर जोर दिया है। विवादास्पद पुस्तक को पढ़ने पर लगता है हिन्दू हर समय मैथुन के बारे में ही सोचते हैं। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ही किसी उपास्य देवी का नग्नचित्र छापकर अश्लीलता का भाव जगाया गया है। वेंडी के अनुसार गांधी महिलाओं के साथ सोना पसंद करते थे। वह गांधी की ब्रह्मचर्य साधना की प्रेरणा को नहीं समझ पाती। वेंडी के अनुसार झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ब्रिटिशों के प्रति वफादार थी। अयोध्या में रामजन्मभूमि विवाद के लिए केवल हिन्दुओं को दोषी ठहराती है। वह लिखती है कि बाबरी मस्जिद के पूर्व एक भी मंदिर के अस्तित्व और बाबर द्वारा उसके विध्वंस का कोई प्रमाण न होते हुए भी हिन्दुओं ने वहां प्रदर्शन प्रारंभ किया और मस्जिद का विध्वंस किया। उस पुस्तक में विकृतियों की सूची बहुत लम्बी है। ये कुछ केवल बानगी के हैं।
पढ़ते कम,लिखते अधिक
भारतीय बुद्धिजीवियों ने ऐसी अनर्गल बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। सच तो यह है कि उनमें से शायद ही किसी ने उस पुस्तक को पढ़ा होगा। भारतीय बुद्धिजीवी पढ़ते कम और लिखते ज्यादा हैं और अपने लिखे में ही मग्न रहते हैं। रामजन्मभूमि और अयोध्या विवाद पर कितना लिखा गया?
सितम्बर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का 5000 पृष्ठों का निर्णय आया। उसकी आलोचना पर भी हजारों पन्ने लिखे गये परंतु उनको पढ़ने से यह विदित नहीं होता कि किसी भी आलोचक ने उन 5000 पन्नों को पढ़ा होगा। एक शोधकर्त्ता डा.मीनाक्षी जैन ने उस विशाल निर्णय को आद्योपान्त पढ़कर एक शोध ग्रंथ ह्यराम और अयोध्याह्ण शीर्षक से लिखा। इस ग्रंथ को लिखने के लिए डा. मीनाक्षी जैन ने रामकथा और रामजन्मभूमि मंदिर का इतिहास जानने के लिए समस्त साहित्यिक, अभिलेखीय, एवं पुरातात्विक स्रोत सामग्री का आलोड़न किया और अपने ग्रंथ की प्रतियां अनेक वामपंथी इतिहासकारों को पहुंचाने की व्यवस्था की किंतु आज तक किसी वामपंथी ने उस शोध ग्रंथ पर प्रतिक्रिया देने का साहस नहीं दिखाया।
स्वाभाविक ही, जिस देश की छाती पर ऐसे बुद्धिजीवियों का चींटी दल रेंग रहा हो, वहां राष्ट्रीय स्वाभिमान का उद्वात्त भाव कैसे जाग्रत हो सकता है और प्रखर राष्ट्रभाव के अभाव में कोई देश विश्व में सीना तानकर कैसे खड़ा हो सकता है? भारत की विश्व की आंखों में कितनी दयनीय स्थिति है यह हमारे प्रति इटली जैसे छोटे देश के अपमानजनक व्यवहार से प्रगट हो जाता है। भारतीय मछुआरों की हत्या के आरोपी अपने दो नौसैनिकों को बचाने के लिए इटली न केवल भारत से सब रिश्ते तोड़ने को तैयार है, बल्कि वह इस विषय को यूरोपीय संघ, नाटो सैन्य संगठन, मानवाधिकार आयोग और अब राष्ट्रसंघ में उठाने की तैयारी कर रहा है। एक ईसाई देश इटली की हिमायत में यूरोपीय संघ व नाटो भी भारत को आंखें दिखा रहे हैं। इटली से उन दो नौसैनिक वापस लाने के लिए भारत के विदेश मंत्री वहां गये और इस शर्त के साथ वापस ला सके कि उन्हें प्राणदंड की सजा नहीं दी जाएगी। इसे कहते हैं राष्ट्रीय स्वाभिमान। क्या हमारे बुद्धिजीवियों ने कभी यह समझने का प्रयास किया है कि छोटे -छोटे देश हमारी ओर आंखें क्यों तरेरते हैं? उसके लिए आत्मनिंदा का शल्यवाद फैलाने वाले ये बुद्धिजीवी नहीं तो कौन दोषी हैं? किसी राष्ट्र की आंतरिक शक्ति अन्तरराष्ट्रीय संबंधों को कैसे प्रभावित करती है इसका ताजा उदाहरण अमरीकी राजदूत का नरेन्द्र मोदी के दरवाजे पर दौड़ना है, क्योंकि अब उन्हें नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने का डर सताने लगा है।

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