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.पाकिस्तान में 65 लाख बच्चे पूर्णकालिक मजदूर
मुजफ्फर हुसैन
किसी देश का भविष्य उसके युवा और बालक होते हैं। पाकिस्तान के युवा जिस तरह से तालिबान के चंगुल में फंसकर आतंकवादी बन जाते हैं उसकी कहानी हमें सदा सर्वदा पढ़ने को मिलती है। लेकिन जिन्होंने मानव के रूप में जन्म लेकर इंसान के जीवन जीने की शुरुआत भी नहीं की हो उनकी स्थिति के बारे में जब कुछ पढ़ते हैं तो शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आधुनिक जीवन जीने के लिए राष्ट्रसंघ के अनेक मानदंड हैं लेकिन उन्हें कितना दूर किनार किया जाता है इसका हिसाब-किताब नहीं मिलता है। जब किसी देश का मीडिया उस विषय में अपनी टिप्पणी करता है तब उस देश की सरकार और जनता को सोचने पर मजबूर हो जाना पड़ता है। पिछले दिनों कुछ ऐसी ही बातें पाकिस्तान के दैनिक नेशन ने प्रकाशित की हैं जिसे पढ़कर कुछ समय के लिए तो कोई विश्वास नहीं करता है लेकिन जब उस देश के अखबारों के पन्नों पर यह पढ़ने को मिले तो उस पर विश्वास करना ही पड़ता है। ठीक से यह नहीं कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में पाठशाला जाने वाले प्राथमिक कक्षाओं में बालकों की संख्या क्या होगी? लेकिन पिछले दिनों वहां के प्रख्यात समाचार पत्र ह्यदी नेशनह्ण में यह दर्दनाक समाचार प्रकाशित हुआ है कि पाकिस्तान में लगभग 65 लाख बच्चे ऐसे हैं जो बाल मजदूरी के शिकंजे में जकड़े हुए हैं। उनमें आधे बच्चों ने तो पाठशाला को देखा भी नहीं हैं और शेष ने देखा भी है तो उनके लिए पढ़ना बुनियादी रूप से आवश्यक नहीं है। जो पढ़ने की इच्छा रखते हैं तो उनसे दो तीन घंटे काम करवाया जाता है लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे पूर्णकालिक मजदूरी करने लगते हैं। पाकिस्तान में जो बच्चा आज पार्ट टाइम मजदूर है वह आने वाले कुछ ही दिनों बाद पूर्णकालिक बन जाता है। काम 8 से 12 घंटे ही करेगा लेकिन रजिस्टर में उसे पार्ट टाइम ही दर्शाया जाएगा। बाल मजदूरी के विरोध में सरकार के ही नहीं राष्ट्र संघ के भी अनेक कानून हैं लेकिन वे केवल पोथी में लिखे रहने के लिए हैं। अब तो जनता यह भी भूल गई है कि बाल मजदूरी अपराध है। जब परिवार के माता-पिता से इस मामले में कोई सवाल करता है तो वे उससे पूछते हैं पहली अनिवार्यता रोटी है या पढ़ाई? पेट में भूख हो तो कौन उर्दू-अंग्रेजी की पुस्तकें पढ़ेगा और कौन गणित के सवालों को सुलझाएगा? पाकिस्तान में 150 बच्चों के बीच एक बच्चे को वहां के राष्ट्रगीत की दो चार लाइनें याद होंगी। उनके माता-पिता से सवाल करो तो यही उत्तर मिलेगा, हम आपको भूख, बीमारी और अपनी लाचारी का गीत अवश्य ही सुना सकते हैं।
दुनिया के किसी भी देश में एक कामगार की औसत आयु 20 से 30 वर्ष के बीच में होती है? लेकिन पाकिस्तान में एक मजदूर की औसत आयु 10 वर्ष से 16 वर्ष के बीच की होती है। राष्ट्र संघ के इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन के आंकड़े उठाकर देख लें आपको विश्वास हो जाएगा। लेबर वॉच कमीशन ने 1996 में अपनी रपट में कहा था कि पाकिस्तान के 33 लाख बच्चों को पूर्णकालिक रूप से जबरन मजदूरी के रुप में धकेला गया था। वर्ष 2011-12 की रपट में यह आंकड़ा 88 लाख हो चुका है। आईएलओ में काम से निवृत्त हुए एक पाकिस्तानी अधिकारी का कहना है कि अब यह आंकड़ा एक करोड़ 11लाख के आसपास है। दुनिया में मजदूरी के तरीके बदल रहे हैं लेकिन पाकिस्तान के दूर-दराज वाले क्षेत्रों में अब भी 19वीं शताब्दी के ही हालात हैं। इन मजदूरों के जो लड़के हैं उनकी यह जिम्मेदारी है कि वे अपने घर का खर्च चलाएं। बहुत कम मजदूरी पर वे ओवर टाइम करते हैं। जब पाकिस्तान में ईद का त्योहार आता है तो उस समय अपने घर में त्योहार मनाए जाने के लिए छोटे लड़के और लड़कियों की एक फौज जगह-जगह पर काम करती है तो बहुधा दंगे तक की स्थिति आ जाती है। कराची, पेशावर और सियालकोट में इन दंगों के अवसर पर कर्फ्यू तक की नौबत आ चुकी है। त्योहार के अवसर पर बच्चों की बिक्री बढ़ जाती है। अरबस्तान में ऊंट की दौड़ के लिए इन मासूमों को खरीद लिया जाता है। जब दुनिया बिस्तर में आराम करती है तब ये मासूम गलियों और बाजारों में अखबार बांटते हुए नजर आते हैं। पाकिस्तान अखबारों के सरकु लेशन ब्यूरो का कहना है कि पाकिस्तान में औसतन 12 से 15 वर्ष के बच्चे घरों तक अखबार पहुंचाते हैं। साधनहीन परिवारों के बच्चे भीख मांगने लगते हैं। बस स्टॉप पर जूते पॉलिश करते हैं या वाहनों की धुलाई का काम करते हैं। पाकिस्तान में बच्चों की बहुत बड़ी संख्या कालीन बनाने के व्यवसाय में लगी हुई है। इसी प्रकार कांच की चूडि़यां बनाने में भी इनकी बहुत बड़ी तादाद है। काम कितने घंटे करते हैं यह तो वे अथवा उनका मालिक ही जानता है। लेकिन इतना पता सबको है कि इन व्यवसाय में मिलने वाला मुनाफा किसी तीसरे व्यक्ति की ही जेब में जाता है। मालिक के अतिरिक्त वह और कौन हो सकता है? जब पतंग का मौसम आता है उस समय बच्चों को बड़े पैमाने पर पार्ट टाइम काम मिलता है। सिंध और ब्लूचिस्तान के व्यापारी बड़ी तादाद में बच्चों को पंजाब लेकर पहुंचते हैं। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि पाकिस्तान के पंजाब में एक पखवाड़े तक पतंग स्पर्धा में व्यस्त रहते हैं। पतंग का मांझा बनाने के लिए जिसे वे अपनी भाषा में सूतन कहते हैं, बच्चों की बड़ी संख्या शामिल होती है। मांझा बनाते समय उसमें पिसा हुआ कांच डाला जाता है जिससे सामने वाले की पतंग की डोर को काटना आसान होता है। उसे तैयार करते समय इन बच्चों के हाथ लहूलुहान हो जाते हैं।
पाकिस्तान में जब से मदरसे खुले हैं इन बच्चों को स्कूल भेजना प्राय: बंद कर दिया गया है। क्योंकि मदरसे ही आतंकवादियों की भर्ती का पाइप लाइन है। जिस परिवार में बच्चे अधिक संख्या में होते हैं उन्हें यहां पढ़ाई के बहाने से लेकर मदरसे वाले चले आते हैं। सरकार सब कुछ जानती है लेकिन किसी की हिम्मत नहीं। इन बच्चों को शुक्रवार के दिन दोपहर की नमाज के पश्चात उनके घर भेजा जाता है। गरीब माता-पिता को जब वे कुछ पैसा देते हैं तब उन्हें अच्छा लगता है। यह एक प्रकार का पार्ट टाइम जॉब है। जहां बच्चों के रूप में आतंकवादी गुटों को भविष्य के लिए मैन पावर मिल जाती है। केवल लड़कों के लिए ही मदरसे नहीं होते हैं। अनेक नगरों में लड़कियों को धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसे हैं। वे यहां इन बालिकाओं को इस्लाम की शिक्षा से प्रभावित करते हैं। इस्लाम के लिए भविष्य में जब कभी जिहाद की आवश्यकता पड़ेगी तो उस समय इनका उपयोग किया जाएगा। यद्यपि इस्लाम में जिहाद महिलाओं के लिए हराम है। कोई महिला यदि लड़वैया बनती है तो वह धर्म की दृष्टि से ठीक नहीं है। लेकिन जब युद्ध अपने निजी स्वार्थ के लिए करना है तो फिर हराम और हलाल की किसे चिंता है?
पाकिस्तान में बाल मजदूरी के विरुद्ध कानून है। लेकिन इसका उपयोग कितना होता है और कहां होता है यह एक खोज की बात है? शायद ही कोई उद्योग होगा जिसके परिसर में बाल मजदूरों की टोली न मिलती हो। कुछ परिवार वालों का यह भी कहना है कि पढ़-लिखकर काम या नौकरी मिल जाएगी इसकी क्या गारंटी है? इसलिए कल की मुर्गी से आज का अंडा बेहतर है। जो मिल जाए उसी में परवरदिगार का शुक्रिया अदा कर लेते हैं। इन बाल मजदूरों का स्वास्थ्य सबसे अधिक चिंता का विषय है। बच्चों को टीबी हो जाना कितने आश्चर्य की बात है। पोलियो के डोज पिलाने का वहां घोर विरोध होता है। उनका कहना है कि इससे बच्चों का पुरुषत्व समाप्त हो जाता है। इसलिए पोलियो टीम आते ही छोटे बच्चों को बड़ी बूढ़ी महिलाएं छिपा देती हैं। इस सम्बंध में पाकिस्तान लायंस क्लब बड़ी मात्रा में प्रयास करता है। कुछ लोगों ने पोलियो के विरुद्ध फतवा जारी करवाया है लेकिन अच्छी बात यह है कि पाकिस्तान के पढ़े-लिखे लोग पोलियो डोज का समर्थन करते हैं। वहां कई संगठन बन गए हैं जो इस मुहिम में सक्रिय भाग ले रहे हैं। पिछले दिनों पेशावर कोर्ट में पोलियों को लेकर एक याचिका भी दायर की गई थी।
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