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.इसके विपरीत एक धनी, अंग्रेजीदां, शहरी परिवार में जन्मे नेहरू प्रारंभ से ही अपने स्थान के प्रति जागरूक दिखते हैं। पिछले कुछ वषोंर् में प्रकाशित ह्यसेलेक्टेड वर्क्स आफ नेहरूह्ण की प्रथम श्रृंखला को देखकर स्पष्ट होता है कि 1903 में 14 वर्ष की आयु से ही उन्होंने अपने सब पत्रों की नकल संभालकर रखना शुरू कर दिया था। गांधी जी के प्रति उनकी भावनाओं का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति की एक सीढ़ी के रूप में ही उन्होंने गांधी जी का इस्तेमाल किया। गांधी जी के साथ उनके पत्राचार, उनकी आत्मकथा, और ह्यडिस्कवरी आफ इंडियाह्ण जैसी रचनाओं को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें गांधी जी का जीवन दर्शन, उनके आर्थिक एवं सामाजिक विचार कभी स्वीकार नहीं हुए। उन्होंने बार-बार कहा कि मेरा मस्तिष्क गांधी से बगावत करता है पर गांधी से टक्कर लेने की ताकत मेरे पास नहीं है और गांधी के बिना देश का आजाद होना संभव नहीं है, जबकि मैं अपने सपनों का भारत आजादी मिलने के बाद ही बना सकता हूं। 1928 में गांधी जी ने उन्हें वैचारिक मतभेद के कारण बगावत का झंडा फहराने की लिखित छूट दी, पर वे पीछे हट गये। उल्टे उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का अनुरोध किया। गांधी की कांग्रेस में वंशवादी प्रवृत्ति का यह श्रीगणेश था। 1927 की मद्रास कांग्रेस और 1928 की कलकत्ता कांग्रेस में नेहरू सुभाष बोस के अनुयायी थे, पर 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बनकर उन्होंने सुभाष को अपनी कार्यसमिति में भी नहीं रखा, क्योंकि वे सुभाष को अपना प्रतिद्वंद्वी मान बैठे थे। सुभाष के विरुद्घ नेहरू के षड्यंत्रों को जानने के लिए 1939 का सुभाष-नेहरू गोपनीय पत्राचार, जो नेहरू द्वारा 1959 में प्रकाशित ह्यबंच आफ ओल्ड लैटर्सह्ण में पहली बार प्रकाश में आया, को पढ़ना आवश्यक है। सरदार निष्काम कर्मयोगी थे तो नेहरू बौद्घिकता प्रधान वाक्-शूर थे। उनकी पूरी महानता उनके लेखन और मंचीय नाटकों तक सीमित है। वे अपने को समाजवादी कहते थे किन्तु जब सुभाष ने पूछा कि तुम बोलते तो समाजवाद हो पर तुम्हारा आचरण व्यक्तिवादी है, तुम क्या हो? तो नेहरू का लिखित उत्तर है, ह्यमैं बौद्घिक धरातल पर समाजवादी हूं किन्तु मैं प्रकृति से व्यक्तिवादी हूं।ह्ण अपने इस परस्पर विरोधी आचरण के कारण नेहरू कांग्रेस में कम्युनिज्म के मुखर प्रवक्ता बन गये जिसके कारण आगे चलकर कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया। किन्तु समाजवादी मित्रों के बार-बार आग्रह करने पर भी गांधी जी से टक्कर लेने या उनसे संबंध विच्छेद करने का साहस उन्होंने कभी नहीं दिखाया। इसका स्पष्टीकरण भी उन्होंने सुभाष को एक पत्र में दिया है। वामपंथी गुट का प्रवक्ता बनने का लाभ उन्हें यह हुआ कि वे गाहे-बगाहे कांग्रेस छोड़ो की धमकी देते रहे और इस धमकी से डरकर गांधी जी उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष पद परोसकर उनकी महत्वाकांक्षा को आगे बड़ाते रहे। गांधी- नेहरू संबंधों का अध्याय अभी भी अनसुलझा है। इसका अर्थ यह नहीं कि नेहरू जी में राष्ट्रभक्ति का भाव था ही नहीं, या वे स्वतंत्रता संघर्ष के एक दुर्धर्ष सेनानी नहीं थे, या कि उन्होंने लम्बा काल अंग्रेजों की जेलों में नहीं बिताया। समझना केवल यह है कि राष्ट्रभक्ति और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा में कौन प्रबल था, कौन किसका वाहन था। ऐसा भी नहीं है कि नेहरू जी लोकप्रिय जननेता नहीं थे। यदि लोकप्रियता की कसौटी पर नेहरू और पटेल का तुलनात्मक मूल्यांकन करें तो पटेल अपनी कठोर मुखमुद्रा और नीरस भाषण शैली के कारण गुजरात के बाहर लोकप्रिय नहीं थे जबकि नेहरू अपनी बौद्घिक उड़ान, ताकतवर कलम और मंचीय अभिनय के कारण बुद्घिजीवी वर्ग और आम जनता में समान रूप से लोकप्रिय थे। उनकी यह लोकप्रियता भी गांधी जी को उनकी महत्वाकांक्षा जन्य धमकी के सामने झुकने को मजबूर कर देती थी। पर यह सस्ती लोकप्रियता नेहरू ने जिस सुनियोजित अभिनय कला के द्वारा अर्जित की थी उसका वर्णन उन्होंने आत्म स्वीकृति के दुर्लभ क्षणों में 1937 के अपने अध्यक्षीय जुलूस के बाद ह्यचाणक्यह्ण छद्म नाम से ह्यमार्डन रिव्यूह्ण में प्रकाशित अपने एक लेख में स्वयं किया है।
कांग्रेस का चरित्र परिवर्तन
नेताजी सुभाष के भारत से जाने और 1946 में अंतरिम सरकार में साथ काम करने के बाद से नेहरू ने सरदार को अपना प्रतिद्वंद्वी समझकर काटना आरंभ कर दिया। स्वतंत्रता के बाद साम्प्रदायिक हिंसा के वातावरण में उन्होंने मौलाना आजाद के साथ मिलकर गांधी जी के मन में सरदार के विरुद्घ अविश्वास का जहर पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गांधी जी की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु को तो उन्होंने सरदार पटेल की राजनीतिक हत्या का हथियार ही बना लिया। उनकी शह पर नेहरूवादी कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने सरदार पटेल के विरुद्घ जो जहरीला प्रचार किया उससे पटेल जैसा लौहपुरुष भी भीतर से पूरी तरह टूट गया। इसमें तनिक संदेह नहीं कि यदि उस समय पटेल के विरुद्घ जहरीला प्रचार न किया जाता, उनकी गांधीनिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह न लगाया गया होता, तो सरदार कुछ वर्ष और जीते। वे स्वाधीन भारत के भटकाव को रोकने का प्रयास करते। फिर भी, जिस समय उनके विरुद्घ नेहरू की शह पर विषाक्त प्रचार चल रहा था, उस समय भी उन्होंने एक मार्मिक पत्र लिखकर अपने जीवन के अंतिम चरण में नेहरू को पूर्ण सहयोग देने का वचन दिया। किन्तु जाने के पहले उन्होंने कांग्रेस के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाये रखने के लिए 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में नेहरू के प्रत्याशी के विरुद्घ अपने प्रत्याशी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को जिताकर कांग्रेस संगठन में नेहरू की हैसियत का आभास अवश्य करा दिया।
अब तक नेहरू सरकार और कांग्रेस संगठन एक दूसरे से स्वतंत्र और समकक्ष थे। किन्तु यह स्थिति नेहरू को स्वीकार्य नहीं थी। 1950 में सरदार की मृत्यु के बाद वे अपने को कांग्रेस का सर्वेसर्वा बनाने की कोशिश में लग गये और कांग्रेस कार्यसमिति की नासिक बैठक में उन्होंने राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिलाकर स्वयं को अध्यक्ष बनवा लिया। यहां से कांग्रेस का बुनियादी चरित्र परिवर्तन प्रारंभ हो गया। अभी तक कांग्रेस स्वयं को सर्वोपरि मानती थी, सरकार पर अंकुश रखने का मन रखती थी, पर अब सरकार और कांग्रेस दोनों का सूत्र संचालन एक ही व्यक्ति के हाथ में आ गया था, जो कांग्रेस को सरकार का उपकरण बनाने को व्यग्र था। अब सरकार कांग्रेस की ओर नहीं, कांग्रेस सरकार की ओर देखने लगी थी। कांग्रेस सरकार मुखपेक्षी बन गयी थी और सरकार पूरी तरह नेहरू की जेब में थी। यह सत्य है कि उस समय भी कांग्रेस में डा़ राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, आचार्य कृपलानी जैसे वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी जीवित थे। अकेले आचार्य कृपलानी टंडन जी के विरुद्घ अध्यक्ष पद का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से बाहर चले गये थे। विभिन्न राज्यों में भी स्वतंत्रता आंदोलन से निकले कांग्रेसी नेताओं का बाहुल्य था किन्तु नेहरू के शक्तिशाली व्यक्तित्व के सामने वे स्वयं को निष्प्रभ पा रहे थे। इधर, नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी अपने पति फिरोज गांधी (या घैण्डी?) के साथ रहने की बजाय अपने पिता की देखभाल के लिए प्रधानमंत्री आवास में आ गयी थीं। यहीं से वंशवादी उत्तराधिकार की प्रक्रिया आरंभ हो गयी।
वंशवाद की शुरुआत
1959 में नेहरू ने इंदिरा गांधी का कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर औपचारिक अभिषेक कर ही दिया और उनके माध्यम से केरल में मुस्लिम लीग और चर्च के साथ गठबंधन करके केरल की निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को गिरवाया। व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा केन्द्रित वंशवादी राजनीति और राष्ट्रनिष्ठ सैद्घांतिक राजनीति में कितना अंतर है, यह उस समय प्रकट हुआ। कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने वाले नेहरू ने नम्बूदिरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्घ साम्प्रदायिक तत्वों की सहायता से आंदोलन खड़ा करवाया तो कम्युनिस्टों की भाषा में ह्यफासिस्टह्ण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर ने, जो सैद्घांतिक धरातल पर कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रबल आलोचक थे, संविधान के अंतर्गत चुनी गयी सरकार के विरुद्घ उस आंदोलन को असंवैधानिक और लोकतंत्र विरोधी करार दिया। पर सत्ताकांक्षा का बंदी वंशवाद अब सब लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ढहाता हुआ दौड़ने लगा था। 1962 के चीनी आक्रमण ने पं़ नेहरू को कल्पना के आकाश से धकेलकर यथार्थ की कठोर धरती पर ला पटका था। सत्रह वर्ष तक प्रधानमंत्री की छाया में रहकर और कांग्रेस अध्यक्ष पद पर पहुंचकर इंदिरा गांधी स्वयं को उनका सहज उत्तराधिकारी मान बैठी थीं। नाटे कद के, विनम्र, आज्ञापालक, स्वतंत्रता सेनानी लालबहादुर शास्त्री का प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना इंदिरा जी को तनिक भी नहीं रुचा, पर उन्होंने उन्हें संक्रमणकालीन बाधा के रूप में सहन किया। जनवरी, 1966 में ताशकंद में शास्त्री जी की अनपेक्षित मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है।
ङ्म बंगलादेश में हिन्दुओं के ऊपर मजहबी उन्मादियों ने कहर ढ़हा रखा है। हिन्दुओं की बहन-बेटियों की इज्जत को तार-तार किया जा रहा है। उन्मादी मन्दिरों,घरों,दुकानों को खुलेआम जला रहे हैं, लेकिन इतना सब होने के बावजूद न तो बंगलादेशी सरकार और न ही भारत सरकार इस पर कोई ठोस कदम उठा रही है। मुसलमानों की मौत पर विलाप करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी बंगलादेश में हो रही हिंसा नहीं दिखायी दे रही, आखिर ऐसा क्यों ? सभी मनुष्यों को एक ही जैसा समझने वाले शेर की खाल में ये भेडि़ए हिन्दुओं के उत्पीड़न पर चुप्पी क्यों साध लेते हंै?
-राममोहन चन्द्रवंशी
विट्ठल नगर, स्टेशन रोड, टिमरनी
जिला-हरदा (म़ प्ऱ)
आम आदमी पार्टी के पीछे देश की नीतियों को प्रभावित कराने वाले कुछ विदेशी गुटों का हाथ है। पार्टी की गाड़ी का इंजन विदेशी फोर्ड कंपनी का है। सवाल यह है कि आखिर फोर्ड फाउण्डेशन अरविन्द केजरीवाल की सामाजिक संस्था को किस उद्देश्य से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराती रही है एवं उसके पीछे उसकी मंशा क्या है? अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस पार्टी के साथ सांठ-गंाठ करके बता दिया कि वह भी सत्ता के लोभी हैं और किसी भी हद तक जा सकते है।
-सुहासिनी प्रमोद वालसंगकर
दिलसुखनगर,हैदराबाद (आं.़प्ऱ)
ङ्म अरविन्द केजरीवाल ने चुनावपूर्व अपनी सभाओं में अनेक वायदे और बातें कहीं थी,जिसमें उन्होंने कहा कि न हम समर्थन लेंगे और न देंगे, लेकिन इस सब के बाद भी उन्होंने भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी कांग्रेस पार्टी का सहारा लिया। अरविन्द केजरीवाल अपनी ज्यादातर कहीं बातों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। कहीं उन्होंने कांग्रेस के साथ सांठ-गंाठ तो नहीं कर ली। क्योंकि वह चुनाव पूर्व शीला दीक्षित पर करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार में संलिप्त होने की बात करते थे, लेकिन अब तक उन्होंने उन पर कार्यवाई क्यों नहीं की है?
-हरेन्द्र प्रसाद साहा
नयाटोला, कटिहार (बिहार)
मुस्लिमों का दुस्साहस अब इतना हो गया है कि उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय परिसर में ही मस्जिद बनाने का प्रयास किया। समय रहते हिन्दुत्वनिष्ठ कार्यकर्ताओं के प्रयास के चलते इसके निर्माण पर रोक लग सकी। कानून के मन्दिर में इस प्रकार कीे हरकत साधारण बात नहीं है। सवाल यहां इस बात का है कि देश में हिन्दुओं के लिए तो कानून की बात की जाती है। लेकिन इन लोगों के लिए कानून को क्या हो जाता है? प्रत्येक शुक्रवार को नियम कानून को ताकपर रखकर स्थान-स्थान पर जबरन नमाज पढ़ने वाले लोगों को आखिर क्यों नहीं रोका जाता ,क्या उनके लिए कोई कानून नहीं है?
-मनोहर मंजुल
पिपल्या-बुजुर्ग, प. ़निमाड (म़ प्ऱ)
जम्मू-कश्मीर पर आम आदमी पार्टी के नेता प्रशान्त भूषण का विचार राष्ट्र की एकता व अखंडता के खिलाफ है। वे समझते हैं कि आम आदमी को सिर्फ सस्ती दर पर बिजली और महंगाई का झुनझुना दिखा कर हम कुछ भी करने लगेंगे जनता स्वीकार कर लेगी, पर ऐसा नहीं है । उसे देश की भी चिन्ता है। देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले लेागों को महंगाई और कुछ सस्ती चीजों का लालच देकर उनके देशप्रेम को वे कम नहीं कर सकते। प्रशान्त भूषण को पता होना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर देश का अभिन्न अंग था और है और सदैव रहेगा।
-कमलेश कुमार ओझा
पुष्पबिहार(नई दिल्ली)
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामले में पहले शीला दीक्षित के खिलाफ जांच होगी,तभी उन पर कार्रवाई हो सकेगी। लेकिन दो साल पहले बाबा रामदेव के रामलीला मैदान में हुए आंदोलन के दौरान केजरीवाल ने दावा किया था कि उनके पास शीला दीक्षित के खिलाफ 370 पेज के दस्तावेजी सबूत हैं,जो उन्हें जेल भिजवाने के लिए पर्याप्त हंै। पर अब जांच की बात होने लगी तो वे वादा खिलाफी कर सभी नेताओं की तरह जांच की बात कर रहे हैं। केजरीवाल पूर्व में शीला सरकार के एक मंत्रिपरिषद के सदस्य राजकुमार चौहान को तत्काल भ्रष्टाचार के मामले में जेल भेजने की बात करते रहते थे, लेकिन सरकार बन जाने के बाद अब क्यों नहीं उन पर कानूनी कार्रवाई कर रहे हैं?
-अजय मित्तल
खंदक, मेरठ (उ.प्र.)
वि.सं. 2070 तिथि वार ईं. सन् 2014
माघ शुक्ल 3 रवि 2 फरवरी, 2014
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,, ,, 6 बुध 5 ,, ,,
,, ,, 7 गुरु 6 ,, ,,
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