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. अदालत के फैसलों की पालना से क्यों कतराती हैं राज्य सरकारें?

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Jan 4, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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अच्छा हो सरकारें हाथ खड़े कर दें

दिंनाक: 04 Jan 2014 13:43:42

लक्ष्मीकांता चावला

भारत के हर नागरिक का यह अधिकार और पुलिस का यह कर्तव्य है कि अगर कोई व्यक्ति पुलिस स्टेशन में अपने साथ हुई किसी वारदात की रपट करने आता है तो उसकी प्राथमिकी दर्ज की जाए, लेकिन यह काफी दुखद स्थिति है कि भारत के असंख्य नागरिकों को पुलिस स्टेशन में जाकर धक्के खाने पड़ते हैं। यह लोकतंत्र का मजाक है कि जो पीडि़त शिकायत करने के लिए पुलिस थाने में पहुंचते हैं उनकी शिकायत दर्ज नहीं की जाती। अपनी शिकायत दर्ज कराने के लिए आम आदमी खास आदमियों की मदद लेता है और फिर सिफारिशी नौका से उसकी नैया पार उतरती है।
कभी-कभी चांदी की चाबी से भी वह ताला खुल जाता है जो नागरिक को सदा खुला ही मिलना चाहिए। हालत इतनी बिगड़ी कि भारत के उच्चतम न्यायालय को यह आदेश देना पड़ा कि किसी भी गंभीर अपराध की प्राथमिकी थानों में दर्ज होनी ही चाहिए। पांच न्यायाधीशों की पीठ जिसके अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश पी़ सदाशिवम थे, उन्होंने  सख्त आदेश दिया कि अगर कोई पुलिस अधिकारी शिकायती द्वारा की गई गंभीर अपराध की रपट दर्ज नहीं करता तो ऐसे पुलिस अधिकारियों के विरुद्घ ही केस दर्ज किया जाएगा। यह विडंबना है कि जो कार्य होना ही चाहिए, जिसकी चिंता प्रांतीय सरकारों को करनी चाहिए उसके लिए भी भारत के सर्वोच्च न्यायालय को आदेश देना पड़ रहा है।
कोई आश्चर्य नहीं कि अगर इस आदेश के बाद भी पुलिस स्टेशनों में इन आदेशों की धज्जियां उड़ाई जाएं , क्योंकि सभी जानते हैं कि अपने देश में पुलिस और राजनेता घी-खिचड़ी की तरह घुले मिले हैं, अधिकतर सत्तापक्ष के नेताओं और कार्यकर्ताओं की इच्छा से ही पर्चे बनाए और रद्द किए जाते हैं। सुनने को तो यह भी मिला है कि जब किसी ने इस आदेश को आधार बनाकर पुलिस अधिकारी से रपट दर्ज करने को कहा, तो उत्तर मिला-दिल्ली जाइए, उच्चतम न्यायालय दिल्ली में है।
इसे आप सरकारी तंत्र की विफलता या स्वार्थपूर्ण विवशता ही कहेंगे कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित में दिए गए बहुत से निर्णय कागजों में तो हैं, पर लागू नहीं हो रहे क्योंकि निर्णयों का पालन तो स्थानीय और प्रांतीय सरकारों को ही करवाना है। उदाहरण के लिए इसी माह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकारी और निजी वाहनों पर लालबत्ती का प्रयोग करने के संबंध में भी महत्वपूर्ण निर्णय दिया गया है, क्योंकि देश में लाल बत्ती लगी गाडि़यों का अपराधियों द्वारा दुरुपयोग करने औरआपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने की बहुत सी वारदात प्रकाश में आ चुकी हैं,
वैसे भी यह कहा गया कि यह लाल बत्ती लगे वाहन में चढ़कर स्वयं को कुछ खास समझना सामंती सोच का प्रतीक है। न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट कहा गया कि केवल उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति ही लाल बत्ती का प्रयोग कर सकते हैं और नीली बत्ती आपात सेवाओं जैसे एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस के वाहनों पर ही लगाई जा सकती है।
उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा लाल बत्ती के दुरुपयोग को खत्म करने के लिए की है, ताकि स्थानीय नेता और अधिकारी प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में इसका दुरुपयोग न कर सकें।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बड़े स्तर पर इसके दुरुपयोग के जरिए देश भर में बहुत से अपराधों को अंजाम दिया जाता है, लेकिन लाल बत्ती होने की वजह से अपराधी बच निकलते हैं, क्योंकि अधिकतर पुलिस अधिकारी इन गाडि़यों की जांच करने से डरते हैं। यह राजशाही की मानसिकता को दर्शाता है।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में किसी को यह देखकर आश्चर्य नहीं होगा कि इस निर्णय के बाद भी धड़ल्ले से निजी वाहनों पर अनेक स्वयंभू नेता लाल-नीली बत्तियों का प्रयोग करते हैं, पर सरकार की ओर से इन नेताओं को संरक्षण मिलने के कारण पुलिस देखकर ही अनदेखा करती है, क्योंकि उनका काम तो सरकार के आदेश को मानना है। पंजाबी में एक प्रसिद्घ कहावत है ह्यरब्ब नालो घसुन्न नेड़ेह्ण जो यहां बिल्कुल सटीक बैठती है, अर्थात नजदीक तो प्रांत की सरकारें हैं, सर्वोच्च                 न्यायालय नहीं।
जहां सरकार अपने हित में कोई काम करना चाहती है वहां जनता के सामने अदालती निर्णय की दुहाई देती है। जैसे अमृतसर में जलियांवाला बाग का बाजार गिराने और लगभग एक हजार परिवारों को रोटी-रोजी से वंचित करने के समय वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी और मंत्री यह कहते रहे कि वे चाहते हुए भी जनता की सहायता नहीं कर सकते, क्योंकि न्यायालय का आदेश है। अभी-अभी अमृतसर में ही एक बसी-बसाई बस्ती को मिट्टी में मिला दिया गया। दुहाई दी गई कि न्यायालय का फैसला है। पर शोर के प्रदूषण पर नियंत्रण करने का प्रश्न आता है तब ये सरकारें सभी न्यायालयों के निर्णयों को भूल जाती हैं, क्योंकि वे निर्णय जनता के हित में हैं। रात्रि दस बजे से सुबह छह बजे तक ऊंची आवाज में लाउडस्पीकर लगाने पर पाबंदी है। यह स्पष्ट आदेश है 10 डेसीबल-ए से ज्यादा ऊंची आवाज में स्पीकर नहीं लगाए जा सकते, पर सरकारें स्वयं उन आयोजनों में उपस्थित रहती हैं, जहां निश्चित मात्रा से हजार गुणा ज्यादा शोर मचाने वाले लाउडस्पीकर लगते हैं।
रात्रि के समय सड़कों पर ऊंची आवाज में ढोल नहीं बजाए जा सकते। गाडि़यों के हॉर्न बजाना मना है और वैसे पटाखे भी नहीं चलाए जा सकते जो धमाका और शोर करते हों।
यद्यपि निर्देश यह भी है कि जनता को जागरुक किया जाए और इसके लिए विशेष कार्यक्रमों तथा रैलियों का आयोजन करके शोर के प्रदूषण के विरुद्घ वातावरण बनाया जाए, पर चिंता किसको है। संइया भए कोतवाल फिर डर किसका। और अभी-अभी सरकारों ने शपथ पत्र पंजाब-हरियाणा न्यायालय में दे दिए हैं और यह कहा है कि न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग पानीपत से जालंधर के बीच बने शराब के ठेके उठाए जा रहे हैं। सभी लोग जो इस मार्ग पर चलते हैं, देख सकते हैं कि सरकार ने कितने प्रतिशत सच बोला है। ठेके वहीं हैं और सरकार ने पंजाब-हरियाणा न्यायालय में दुहाई दी है कि अभी ठेके उठाने-हटाने पर दोनों राज्यों को करोड़ों रुपयों की हानि होगी। आश्चर्य है कि सरेआम भरे बाजार नियमों का उलंघन किया और अब आमदनी की चिंता न्यायालय को बताई जा रही है। जानबूझकर तो अपराध करने वालों को सजा मिलनी ही चाहिए। जब मुख्य मार्ग पर ठेके खुलवाए गए, क्या तब सरकारें नहीं जानती थीं कि यह कानून सम्मत नहीं? मुझे तो ऐसा लगता है कि सरकार या तो लाचार और विवश है अथवा जनता को संरक्षण देने की और कानून का पालन करने करवाने की उनकी इच्छा शक्ति ही समाप्त हो चुकी है। इसलिए देश के सर्वोच्च न्यायालय और पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय को सरकारों द्वारा उन निर्णयों का पालन कठोर हाथों से करवाना चाहिए जो निर्णय न्यायालयों द्वारा लिए गए हैं।
सरकारों को यह उत्तर देना ही होगा कि जनता को उजाड़ने के लिए ही क्यों न्यायालय के निर्णय की दुहाई दी जाती है, आमजन को बचाने और बसाने के लिए अदालत का सम्मान क्यों नहीं किया जाता। मेरी तो यह धारणा बन चुकी है कि जब तक लोकतंत्र में लोग मौन रहेंगे तब तक ऐसी धांधलियां करने की जुर्रत सरकार करती रहेगी, इसलिए लोगों को आवाज उठानी चाहिए। आज की स्थिति यह है कि लोकतंत्र में लोग मौन हैं और इसी कारण सरकारी तंत्र हावी हो रहा है।

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