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पाञ्चजन्य के प्रथम सम्पादक अटल जी के जन्म दिवस (25 दिसम्बर) पर विशेष
अनेक वर्ष पूर्व की बात है। संयोगवशात् एक दिन 'कौन बनेगा करोड़पति' देख रहा था, उसमें प्रश्न आया-अटल बिहारी वाजपेयी ने पत्रकारिता किस पत्र से प्रारम्भ की थी? जिन चार पत्र-पत्रिकाओं के नाम थे, उनमें 'राष्ट्रधर्म' का नाम भी था। प्रस्तोता अमिताभ बच्चन की ओजस्वी वाणी अपनी निराली अदा में। प्रतिभागी सही उत्तर नहीं दे पाया और तब 'बिग बी' ने बताया 'राष्ट्रधर्म'। सुनकर घर भर प्रमुदित हो उठा। अटल जी के नाम की महिमा, 'राष्ट्रधर्म' एक दूरदर्शनी चैनल पर प्रतिभागी को 'करोड़पति' बनाने का माध्यम बनी, वह भी अमिताभ बच्चन जैसे एकमेवाद्वितीयम् अभिनेता की सूझ-बूझ से, स्वयं उसके मुख से !
जब अक्तूबर, 1997 में अनायास 'राष्ट्रधर्म' के सम्पादन का दायित्व दिया गया, तो लगा कि जिस कुर्सी पर बैठकर अटल जी ने उसकी श्रीवृद्घि की, उसकी गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने की इतनी बड़ी चुनौती थी, जिसकी कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी और उस क्षण तो राष्ट्रधर्म-परिवार धन्य हो उठा, जब लखनऊ के राजभवन में 'राष्ट्रधर्म' के 'राष्ट्र रक्षा विशेषांक' (अक्तूबर, 2002 अंक) का लोकार्पण उसके प्रथम सम्पादक, तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल जी के करकमलों से सम्पन्न हुआ और विशेषांक को आद्योपान्त देखकर उनके श्रीमुख से 'बधाई' शब्द ही नहीं नि:सृत हुआ, अंक पर उसे उन्होंने अंकित भी किया।
जब स्वातन्त्र्य-पर्व के पूर्व रा.स्व. संघ के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक भाऊराव देवरस जी और सह प्रान्त प्रचारक पं दीनदयाल उपाध्याय जी की प्रेरणा से लखनऊ से एक मासिक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनी, तो उसके नामकरण पर चर्चा के मध्य देहरादून के एक स्वयंसेवक ने 'राष्ट्रधर्म' नाम सुझाया, जो सबको बहुत पसन्द आया। तब उसके सम्पादन के लिए जो नाम उभरकर आया, वह था अटल बिहारी वाजपेयी। बस, तब डी.ए.वी. कालेज, कानपुर में अध्ययनरत अटल जी को भाऊराव जी का निर्देश मिलते ही पढ़ाई छोड़कर वे लखनऊ आ गये और 31 अगस्त, 1947, श्रावणी पूर्णिमा के दिन 'राष्ट्रधर्म' का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ। उन दिनों, जब शायद ही किसी हिन्दी मासिक की प्रसार-संख्या 500 से अधिक होगी, इस अंक की 3000 प्रतियां प्रकाशित हुईं, जो हाथोंहाथ बिक गयीं तथा 500 प्रतियां और छपवानी पड़ीं। इसी अंक के प्रथम पृष्ठ पर तब के तरुण कवि अटल जी की अति प्रसिद्घ कविता 'हिन्दू तन मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय' और दीनदयाल जी का चिन्तनपरक लेख 'चिति' प्रकाशित हुआ था। दूसरा अंक छपते-छपते प्रसार-संख्या 8000 और तृतीय अंक की 12,000 हो गयी। अटल जी के सम्पादन-कला का चमत्कार था यह। लखनऊ केतब के प्रख्यात साहित्यसेवियों यथा पं़ श्रीनारायण चतुर्वेदी (भइया साहब), अमृतलाल नागर आदि के अतिरिक्त मेरठ के सर सीताराम (पाकिस्तान में रहे उच्चायुक्त), डॉ़ भगवानदास (वाराणसी), आचार्य बृहस्पति (कानपुर) जैसे अनेक महानुभावों का हार्दिक सहयोग 'राष्ट्रधर्म' को सहज सुलभ रहा। 'राष्ट्रधर्म' के साथ ही बाद में वे 'पाञ्चजन्य' (साप्ताहिक) के भी प्रथम सम्पादक रहे और फिर 'स्वदेश' (दैनिक) के। मासिक, साप्ताहिक और दैनिक, तीनों विधाओं में उनकी यशस्वी लेखनी की धाक रही। लखनऊ में अटल जी एक प्रकार से छा गये। तब से लेकर अब तक लखनऊ उनका चहेता क्षेत्र रहा है।
जब डॉ़ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जनसंघ की एक राजनीतिक दल के रूप में स्थापना हुई, तो पं़ दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख के साथ ही अटल जी को भी उसमें भेजा गया। अटल जी की लेखनी ही नहीं, जिव्हा पर भी सरस्वती विराजती हैं, इसका साक्षात् अनुभव कोई भी कर सकता है, जिसने उन्हें पढ़ा और सुना है। उनकी कविताओं का ओज-तेज तो लोगों ने देखा ही था, लेखनी की धार और सम्पादन-कला का चमत्कार भी देखा था। अब बारी थी वक्तृत्व-कला की। 1952 के सामान्य निर्वाचन (तब लोक सभा व विधान सभा के चुनाव एक साथ होते थे) के समय 'घाट, पण्डा और झण्डा' का उदाहरण पहली बार उनकी वक्तृता में सुनने को मिला। मथुरा, लखनऊ, बलरामपुर तीनों क्षेत्रों में वे एक साथ खड़े किये गये और हारे; पर 'अटल जी' न हारे, न थके। उनके भाषणों में पहले आचार्य नरेन्द्र देव की भाषण-कला की झलक परिलक्षित होती थी और क्रमश: उनकी वाणी-विदग्धता ने अपनी ऐसी देव-दुर्लभ शैली विकसित कर ली कि उन्हें 'वक्ता' के बजाय 'वाग्मी' कहा जाना सर्वतोभावेन समीचीन होगा। उनकी यह वाग्मिता लखनऊ में ही कई बार सुनने को मिली। यथा 1957 या '58 में झण्डेवाला पार्क, अमीनाबाद की सभा में अटल जी कुछ देर से पहुंचे। उनके भाषण का श्रीगणेश हुआ इन शब्दों से- 'जिस प्रदेश में 'चन्द्र' और 'भानु' दोनों 'गुप्त' हों, वहां क्या होगा!' तत्कालीन मुख्यमन्त्री चन्द्रभानु गुप्त पर ऐसा साहित्यिक व्यंग्य, भीड़ ने जोरदार ठहाका लगाया।
1960 का जनसंघ का वार्षिक अधिवेशन, उसी झण्डेवाला पार्क में। अधिवेशन की अप्रत्याशित सफलता से कांग्रेसियों की छाती पर सांप लोटना ही था। कांगे्रस के मुखपत्र 'नेशनल हेराल्ड' और 'नवजीवन' को निन्दा का कोई बहाना नहीं मिला, तो शौचालयों की व्यवस्था पर टिप्पणी लिख मारी। अटल जी जब बोलने खड़े हुए तो बोले- 'हमने उनके स्वागत के लिए भव्य तोरणद्वार सजाये; पर उन्हें 'गटर' का रास्ता ही भाये, तो कोई क्या कर सकता है।' इस चुटीले व्यंग्य पर जोरदार ठहाके लगने ही थे। उनकी वाग्विदग्धता का एक और उदाहरण- 1999 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के अन्तिम दिन समय समाप्ति के पहले। सपा प्रत्याशी राज बब्बर ने टेढ़ी पुलिया पर अपने जोरदार भाषण में अटल जी को भीष्म पितामह कहकर अर्जुन का उदाहरण देते हुए उनसे अपनी विजय का आशीर्वाद उसी दिन अपनी सभा में मांगा था। अटल जी की सभा कपूरथला चौराहे पर थी। हम लोग उनका भाषण सुनते मन में सोच रहे थे कि देखें, अब अटल जी क्या जवाब देते हैं राज बब्बर को । अटल जी बोले- 'अभी अभी ज्ञात हुआ है कि मेरे प्रतिद्वन्द्वी ने मुझे भीष्म पितामह कहकर मुझसे विजय का आशीर्वाद मांगा है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि उनका शिखण्डी कौन है?' फिर क्या था, धारा बदल गयी। उस दिन अटल जी अत्यन्त भावुक होकर बोले, 'लखनऊवासियो! अगर आपको मुझसे कोई कष्ट है, तो मैं अयोध्या की तरफ मुंह करके दोनों हाथ उठाकर रामलला से आह्वान करता हूं कि आप मुझे वोट न दीजिए अन्यथा ऐसे लोगों को सबक सिखाइये।'
एक प्रसंग हिन्दी की प्रतिष्ठा का। उ़प्र. के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नारायण दत्त तिवारी ने ठीक हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) की पूर्व-सन्ध्या पर देश के विभाजन की उत्तरदायी उर्दू को प्रदेश की द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया। लखनऊ के क्षुब्ध मानस लगभग 200 हिन्दीसेवियों ने पं श्रीनारायण चतुर्वेदी के नेतृत्व में उ़प्ऱ हिन्दी संस्थान भवन से राजभवन तक विरोध जुलूस निकाला। वयोवृद्घ चतुर्वेदी जी ने संस्थान का 'भारत भारती सम्मान' (एक लाख रुपये) पहले ही विरोधस्वरूप ठुकरा दिया था। इसके बाद 'सरस्वती' के उन यशस्वी सम्पादक ने खाट पकड़ ली। अटल जी ने तब तत्काल घोषणा की कि हम यथाशीघ्र इतनी ही धनराशि संग्रह कर चतुर्वेदी जी का सम्मान करेंगे और शीघ्र ही संगृहीत एक लाख ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह रुपये अटल जी के हाथों प्रशस्ति-पत्र आदि के साथ श्रीनारायण चतुर्वेदी को उनके खुर्शेद बाग स्थित निवास पर अर्पित किये गये। ध्यातव्य है कि 'राष्ट्रधर्म' के प्रथम अंक के साथ ही चतुर्वेदी जी का आशीर्वाद उसे और उसके सम्पादक को आजीवन प्राप्त रहा। 'शिवा बावनी' को जब गांधी जी के आग्रह पर पाठ्य-क्रम से निकाल दिया गया, तो चतुर्वेदी जी ने अपने मित्रों से सौ रुपये चन्दा करके उसका प्रकाशन कराया, जिसका लोकार्पण उन्होंने अटल जी के हाथों कराया था।
स्मृति-पटल पर लखनऊ से जुड़े ऐसे न जाने कितने प्रसंग धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं, जिनको लिपिबद्घ करने पर एक पूरा पोथा ही तैयार हो जायेगा। ह्यहरि अनन्त हरि कथा अनन्ताह्ण की उक्ति अटल जी सम्बन्धी अगणित प्रसंगों पर अक्षरश: लागू होती है। 'राष्ट्रधर्म' का अपने प्रथम सम्पादक को उनके जन्म-दिवस (25 दिसम्बर) पर कोटिश: प्रणाम ! आनन्द मिश्र 'अभय'
(लेखक राष्ट्रधर्म मासिक (लखनऊ) के संपादक हैं)
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