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प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहां अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (450-470) को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का भी पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।
स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णत: आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2000 थी। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालन्दा के विशिष्ट शिक्षा प्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति रही थी।
परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां स्थापित थीं, जिनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के मिलने की संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आंगन में एक कुंआ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्षों के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थीं।
प्रबंधन
विश्वविद्यालय का प्रबंधन वहां के कुलपति और प्रमुख आचार्य करते थे जो बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंधन करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था और प्रशासन की देखभाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गांवों से प्राप्त उपज और आय की देखरेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।
आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों में आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालन्दा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे, जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी आज उपलब्ध है वे हैं- दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं कि उनका एक अन्य ग्रंथ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का 7वीं शताब्दी तक बहुत उपयोग होता था।
प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे, उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है, जहां शुद्ध आचारण के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।
अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर प्रहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।
अध्ययन क्षेत्र
यहां महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली अनेक कांसे की मूर्तियों के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित धातु की मूर्तियां बनाने के विज्ञान का भी यहां अध्ययन होता था। यहां खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तलीय का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें 3 लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था।
बख्तियार ने जलाया
1199 में बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को जला दिया था। उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली। मगर वह ठीक नहीं हो सका।
किसी ने उसको सलाह दी… नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्री शीलभद्र जी को बुलाया जाए और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाए। उसे यह सलाह पसंद नहीं था कि कोई भारतीय वैद्य… उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हों और वह किसी काफिर से अपना इलाज करवाए, फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा।
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा…
किसी भी तरह मुझे ठीक करो वर्ना मरने के लिए तैयार रहो।
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई बहुत उपाय सोचा। वे अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए। कहा इस कुरान की पृष्ठ संख्या… इतने से इतने तक पढ़ लीजिए… ठीक हो जाएंगे।
उसने पढ़ा और ठीक हो गया… जी गया…
उसको बड़ी झुंझलाहट हुई… उसको खुशी नहीं हुई। उसको बहुत गुस्सा आया कि उसके मुसलमान हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है…?
बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले उनको पुरस्कार देना तो दूर उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगावा दी। पुस्तकालयों को ही जलवा के राख कर दिया।
कहा जाता है कि वहां इतनी पुस्तकें थीं कि आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू-धू करके जलती रहीं। बख्तियार ने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले।
इसी बख्तियार के नाम पर बिहार में बख्तियारपुर रेलवे स्टेशन है।
मैंने यह तो बताया ही नहीं… कुरान पढ़ के वह कैसे ठीक हुआ? हम हिन्दू किसी भी धर्मग्रंथ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते।
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
मुसलमान ठीक उलटा करते हैं। कुरान के हर पृष्ठ को थूक लगा के पलटते हैं।
बस… वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठ के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था। वह थूक के साथ मात्र दस बीस पृष्ठ चाट गया। ठीक हो गया और फिर भी उसने इस एहसान का बदला नालंदा को नेस्तनाबूद करके दिया।
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