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हे अर्जुन! अपने जिन सम्बन्धियांें को तुम देख रहे हो ये सब तो मरे हुए ही हंै। तुम्हारे मारने से कुछ भी न होगा। प्रत्येक शरीरधारी जीव का शरीर तो पंचभूतांे से बना है और वह विनाशी है, नश्वर है। प्रत्येक शरीर में रहने वाली आत्मा अजर-अमर है। उसका कभी भी नाश होता ही नहीं है। उसे न तो शस्त्र मार सकता है,न अग्नि जला सकती है। जल उसे गीला भी नही कर सकता है। और वायु उसे सुखा भी नही सकता है। वह तो निर्विकार है। न जन्म लेता है और न मरता है। वह जीवात्मा शरीर को उसी प्रकार त्याग देता है और नया धारण कर लेता है। जैसे हम पुराने कपड़ों को त्याग कर नए कपडे़ पहन लेते हैं। जब तक जीव संसार मे है दु:खी रहता है। और उसे अपना जीव का , ईश्वर का और संसार का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। गीता में कर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार भगवान कृष्ण के महती ज्ञान को अमल करने वाले अर्जुन का मोह नष्ट हो जाता है। वह भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष बोल उठता है भगवान मेरा मोह नष्ट हो गया है। मुझे सब कुछ स्मरण हो गया है। यह आपकी ही कृपा से हुआ है। अब मैं सन्देह रहित हो गया और आपके द्वारा कहे गये वचनों का पालन करूंगा । आचार्य गणेश शास्त्री
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