डौंडियाखेड़ा से लौटकर
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डौंडियाखेड़ा से लौटकर

by
Nov 30, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 30 Nov 2013 14:14:43

हमारे प्रिय शर्मा जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। कभी उनके भीतर का कवि जाग उठता है, तो कभी अभिनेता। कभी वे समाजसेवी बन जाते हैं, तो कभी पाकशास्त्री। इन दिनों उनमें पत्रकारिता के कीटाणु प्रबल हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में सोने के लिए हो रही खुदाई की बहुत चर्चा थी। इस पर शर्मा जी की विशेषज्ञता पूर्ण टिप्पणियां सुनकर मैंने सुझाव दिया कि जहां खुदाई हो रही है, यदि आप प्रत्यक्ष वहां चले जाएं, तो सोने पे सुहागा हो जाएगा।
मैंने तो बात हंसी में कही थी, पर वह शर्मा जी के दिमाग में बैठ गयी। घर में मैडम ने उन्हें बहुत समझाया, पर समझदारी और शर्मा जी के बीच कई किलोमीटर की दूरी है। सो वे अपनी जिद पर अड़े रहे और रात की गाड़ी से अगले दिन सुबह लखनऊ  जा पहुंचे।
पर अब लखनऊ  से आगे कहां जाएं, इस बारे में वे अनजान थे। अखबारों में डौंडियाखेड़ा का नाम छप रहा था। टिकट बाबू से जब उन्होंने डौंडियाखेड़ा का टिकट मांगा, तो उसने उन्हें ऐसे देखा, जैसे चिडि़याघर के जानवर को देखते हैं। फिर उसने शर्मा जी का हाथ पीछे धकेलते हुए कहा कि इस नाम का कोई स्टेशन नहीं है।
झक मार कर उन्होंने कुलियों से पूछा, तो एक ने उन्नाव जाने को कहा, जबकि दूसरे ने कानपुर। तीसरे ने हंसते हुए कहा कि वे एक तांगा कर लें। तांगेवाला उन्हें अवध में 1857 के स्वाधीनता संग्राम का पूरा इतिहास बताते हुए शाम तक डौंडियाखेड़ा पहुंचा देगा।
शर्मा जी परेशान हो गये। अब उन्होंने इधर-उधर के चक्कर में न पड़कर सामने खड़े एक पुलिस वाले से ही पूछ लिया। उसने भी उन्हें टिकट बाबू वाले अंदाज में ही देखा और बोला, ह्यआओ प्यारे, बिल्कुल ठीक जगह पहुंचे हो। तीन दिन से मैं डौडियाखेड़ा वालों को ही निबटा रहा हूं। तुम 25वें आदमी हो। चलो मेरे साथ थाने।ह्ण
शर्मा जी का उ़प्ऱ में आने का यह पहला ही अवसर था। उन्हें यहां के पुलिस वालों की विशिष्ट भाषा और संस्कारों का पता नहीं था। वे उसके साथ चल दिये; पर वहां कई चोर, उचक्के और जेबकतरों को देखकर वे समझ गये कि वे जिसे ह्यआज निशा का मधुर निमन्त्रणह्ण समझ रहे थे, वह वस्तुत: ह्यमुसीबत का खुला आमन्त्रणह्ण था। थाने में उनका सब सामान लेकर उन्हें हवालात में बंद कर दिया गया।
शर्मा जी की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? दोपहर में उन्हें जो खाना मिला, वह अवर्णनीय था। रोटी का रंग, रूप और गंध देखकर इतिहासकारों के लिए भी उसका काल निर्धारण करना कठिन था। दाल के नाम पर कटोरी में जो चीज थी, उसे सूप कहना अधिक उचित होगा। खैर, मरता क्या न करता ? जैसे-तैसे उन्होंने दो रोटी उस सूप में डुबोकर गले की नीचे उतारीं।
शाम को बड़े दरोगा जी आये। उनके सामने सब लोगों की पेशी हुई। शर्मा जी ने अपनी बारी आने पर उन्हें हिन्दी और फिर अंग्रेजी में समझाने का प्रयास किया कि वे अपराधी नहीं, बल्कि डौंडियाखेड़ा में हो रही खुदाई की रिपोर्टिंग करने के लिए आये पत्रकार हैं।
थानेदार ने उन्हें दो डंडे मारे और बोला, ह्यपत्रकार महोदय, क्यों अपनी बिरादरी को बदनाम कर रहे हो? दिल्ली में रहकर इतना भी नहीं जानते कि सोना कहां और किसने छिपाकर रखा है। पुरातत्व वालों से कहो कि डौंडियाखेड़ा की बजाय जनपथ के दस नंबरियों के यहां                        खुदाई करें।
वहां बनी सुरंगें इटली, स्विट्जरलैंड और अमरीका में खुलती हैं। धरती का कोयला और आकाश की तरंगें बेचकर वहां की मलिका और शहजादे ने जो सोना बनाया है, उसकी देखभाल के लिए ही उन्हें बार-बार विदेश जाना                   पड़ता है।ह्ण
इसके बाद थानेदार ने उसी सिपाही को बुलाकर कहा कि इन्हें रेल में बैठा दो। शर्मा जी रोते हुए बोले, ह्यसर, मेरा जो सामान आपने लिया था, कृपया वह लौटा दें।
मैं दिल्ली वापस कैसे जाऊंगा? सिपाही बोला, ह्यलगता है उ़. प्ऱ  में पहली बार आये हो। यहां का राज इन दिनों बहुत मुलायम है। थाने से साबुत वापस जा रहे हो, यही क्या कम है। जहां तक दिल्ली जाने की बात है, मैं तुम्हें मालगाड़ी में बैठा देता हूं। एक-दो दिन में पहुंच ही जाओगे।ह्ण
पिछले कई दिन से हम सब प्रतीक्षा में हैं कि शर्मा जी डौंडियाखेड़ा की खुदाई के अनुभव सुनाएं, पर वे अपने घर में ही बंद हैं। लगता है उन्हें खोजने के लिए भी खुदाई ही करानी पड़ेगी।   विजय कुमार

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