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अपनी विलक्षण क्षमताओं के आधार पर एक विशिष्ट स्थान बना चुके डॉ़ भीमराव अम्बेडकर की सर्वाधिक ख्याति एक संविधान निर्माता तथा समाज के उपेक्षित और वंचित वर्ग के अधिकारों की रक्षा हेतु संघर्षरत योद्घा के रूप में ही अधिक दिखाई देती है। उनके जीवन के ये दोनों ही आयाम महत्वपूर्ण हैं किन्तु, उनके जीवन और कार्य के अनेक महत्वपूर्ण आयाम और भी हैं, जिनके बारे में अध्ययन, चिन्तन तथा विश्लेषण आवश्यकतानुरूप नहीं हो पाया है।
उनकी प्रतिभा को देश ने स्वीकार किया था, इसी के फलस्वरूप, वे संविधान निर्मात्री सभा (Drafting Committee) के सदस्य बने। उनके मन में यह लक्ष्य था कि देश में अस्पृश्य बन्धुओं को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने का प्रयास करूंगा। उनको आश्चर्य तो तब हुआ जब उन्हें 'संविधान प्रारूप समिति' का सदस्य बनाया गया। और, जब उन्हें इस 'प्रारूप समिति' का अध्यक्ष बनाया गया तब तो उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उनको स्वप्न में भी यह कल्पना नहीं थी कि एक ऐसी सभा, जिसमें अधिकांश सदस्य तथाकथित उच्च जातियों के थे, मिलकर उन जैसे एक अस्पृश्य व्यक्ति को 'प्रारूप समिति' का अध्यक्ष भी बना सकते हैं! संविधान सभा में सभी के समक्ष अपने भाषण में वे कहते हैं: I came into Constituent Assembly with no greater aspiration than to safeguard the interests of the Scheduled Castes. I had not the remotest idea that I would be called upon to undertake more responsible function. I was therefore greately surprised when the assembly elected me to the Drafting Committee. I was more than surprised when the Drafting Committee elected me to be its Chairman. There were in the Drafting Committee men bigger, better and more competent than myself such as my friend Sir Alladi Krishanaswami Ayyar.” (Speech in Constituent Assembly on-25.11.1949)
समाज सुधारक या क्रान्तिकारी
डॉ़ अम्बेडकर जी के जीवन में एक महत्वपूर्ण बात हमको दिखाई देती है वह यह है कि वे पुरानी सभी मान्यताओं, आदर्शों और व्यवस्थाओं को ध्वस्त करना नहीं चाहते तथा किसी जाति या वर्ण के वे शत्रु भी नहीं हैं।
डॉ़ अम्बेडकर यह जानते थे कि भारतीय दर्शन के मौलिक-तत्व बहुत उदात्त हैं। किन्तु, विकृतियों, रूढि़यों, ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्डों एवं परंपराओं के अनावश्यक अतिरेक ने समस्त दर्शन को ही ढक दिया है।
धर्म जीवन का संबल है
बाबा साहेब ने धर्म को स्पष्ट करते हुए प्रोफेसर एलवुड के विचार को प्रस्तुत किया है। वे लिखते हं: ह्यधर्म मूलत: एक मूल्य निर्धारण प्रवृत्ति है, (जो) मनुष्य के विचारों से कहीं अधिक संकल्प तथा संवेगों को सार्वभौमिक बनाती है। इस प्रकार, 'धर्म', संकल्प तथा संवेग के पक्ष को लेकर अपनी दुनिया के साथ मनुष्यों के बीच समन्वय करता है। 'धर्म' आशा को उत्साहित करता है और जीवन संघर्ष में असभ्य तथा सभ्य दोनों में विश्वास पैदा करता है।… इसी ढंग से धर्म जीवन का सामना करने के लिए शक्ति के नये स्तरों को बनाता है, जबकि साथ ही साथ आन्तरिक तथा बाह्य पक्षों में एक घनिष्ठ समन्वय भी स्थापित करता है।' (डॉ़ अम्बेडकर का धर्म दर्शन, पृ़ 27, 28)
सभी को साथ लेकर चलने की बात ही उन्होंने अपने अनुयायियों को लगातार सिखलाई। उनका संघर्ष उन जातियों से नहीं वरन् उस मनोवृत्ति से था जो दूसरों को तुच्छ या अस्पृश्य समझती है। यही कारण था कि उन्होंने घृणा, वैमनस्य, द्वेष अथवा जातिगत संघर्ष को कभी भी पनपने नहीं दिया।
समाज सुधारक और राजनीतिक नेता में अन्तर
डा़ साहब ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न सभी के सामने रखा कि अधिक साहस किस में होता है उस समाज सुधारक में जो समाज को चुनौती देता है और अपने लिए सामाजिक बहिष्कार की सजा आमन्त्रित करता है या उस राजनीतिक बन्दी में जो सरकार को चुनौती देता है और केवल कुछ महीनों की या कुछ सालों की जेल की सजा पाता है? जब कोई समाज सुधारक समाज को चुनौती देता है तब कोई भी व्यक्ति उसको शहीद कहकर उसका स्वागत नहीं करता। लेकिन जब राजनीतिक देशभक्त सरकार को चुनौती देता है तब उसकी सराहना की जाती है और उसका उद्घारक और मुक्तिदाता के रूप में आदर किया जाता है।
अर्थशास्त्री डा़ अम्बेडकर
यह शायद बहुत ही कम लोगों को जानकारी होगी कि डा़ अम्बेडकर एक प्रसिद्घ अर्थशास्त्री भी थे। उन्होंने विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में जाकर अर्थशास्त्र का व्यापक अध्ययन किया था। लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स से उन्होंने एम़ए़, पी़एच़डी़, डी़एस़सी़ आदि उपाधियाँ प्राप्त की थीं।
मुस्लिम बहुल क्षेत्र सिन्ध को बम्बई प्रेसीडेन्सी से अलग करना उचित नहीं
3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन भारत आया था। सारे देश में इसका तीव्र विरोध हुआ। उस समय मुस्लिम नेता माँग कर रहे थे कि सिन्ध क्षेत्र को बम्बई प्रेसीडेन्सी से अलग कर एक पृथक प्रान्त बना दिया जाय। डा़ अम्बेडकर को भी बंबई विधान परिषद की प्रान्तीय समिति के लिए चुना गया था। बंबई प्रान्त की समिति ने 1929 में जो अपनी संस्तुतियाँ दी थीं उसके अनुसार उन्होंने दो प्रमुख माँगें साइमन कमीशन के सामने रखी थीं।
सिन्ध क्षेत्र को बंबई प्रेसीडेन्सी से अलग कर एक नया प्रान्त बनाया जाय ।
बंबई प्रान्त की 140 सीटों में से 33: स्थान मुसलमानों के लिए आरक्षित किये जायें तथा उनके लिए पृथक मुस्लिम मतदाता मण्डल भी सुनिश्चित हों ।
डा़ अम्बेडकर जी ने इन दोनों मांगों का विरोध किया और अपनी रिपोर्ट अलग से दी।
मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन मण्डलों का विरोध
डॉ़ अम्बेडकर लिखते हैं : शायद बहुत लोग यह नहीं जानते कि केवल भारत ही एक ऐसा देश नहीं है जहाँ मुसलमान अल्पसंख्या में हैं। दूसरे कई देशों में भी मुसलमानों की इसी प्रकार की स्थिति है। बुल्गारिया, अल्बानियाँ, ग्रीस, रूमानियाँ, यूगोस्लाविया और रूस आदि देशों में भी मुसलमान अल्पसंख्या में हंै। क्या उन देशों में भी मुसलमानों ने पृथक निर्वाचन मण्डलों की आवश्यकता पर बल दिया है ? जिस प्रकार इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि उन देशों में मुसलमानों ने पृथक निर्वाचन मण्डलों के बिना ही निर्वाह कर लिया है अतएव मुसलमानों का पक्ष लक्ष्य से कहीं दूर और तर्क से परे है।
डॉं अम्बेडकर प्रारम्भ से ही पृथक मतदाता मण्डल के विराधी थे । साईमन कमीशन के समय भी उन्होंने इस नीति का विरोध किया।
भाषा के आधार पर प्रान्त नहीं
डॉ़ अम्बेडकर का मानना था कि भारत एक बड़ा राष्ट्र है तथा देशभर में फैली हुई भाषाएँ हमारे राष्ट्र की विविधता और समृद्घि को प्रकट करती हैं। अलग-अलग क्षेत्रों की भाषाओं ने बड़े व्यापक और श्रेष्ठ साहित्य का सृजन किया है। सभी भाषाएँ राष्ट्र की धरोहर हैं और सभी हमारी अपनी हैं, किन्तु भाषा के आधार पर प्रान्तों की रचना उचित नहीं। प्रान्तों की रचना का आधार प्रशासन का सरल एवं सुविधाजनक संचालन ही होना चाहिये।
आर्य कहीं बाहर से नहीं आये
अंग्रेजों द्वारा बड़ी चतुराई से यह प्रचारित किया जा रहा था कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया और यहाँ प्रवेश किया। डॉ़ साहब ने बहुत परिश्रमपूर्वक एक विस्तृत शोध-ग्रन्थ लिखा। निष्कर्ष रूप में डॉ़ अम्बेडकर का कहना था कि पश्चिमी विचारकों ने योजनापूर्वक एक षड्यन्त्र रचा और एक परिकल्पना गढ़ दी कि आर्य यहाँ पर कहीं बाहर से आये हैं और जैसा अत्याचार अंग्रेजों ने अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अफ्रीका आदि देशों में जाकर वहाँ के मूल नागरिकों पर किया था वैसा ही आर्यों ने यहाँ के लोगों पर किया है। आर्यों ने भी यहाँ के मूल निवासियों को गुलाम बनाकर शूद्रों की श्रेणी में डाल दिया है।
डॉ़ अम्बेडकर ने पश्चिमी विचारकों की इस परिकल्पना को झूठ का पुलिन्दा ही नहीं कहा वरन् एक धूर्ततापूर्ण प्रयास कहा।
विदेशनीति और डा़ अम्बेडकर
स्वतन्त्रता के बाद प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा विदेशनीति का जो प्रारूप देश के सामने रखा गया उसको देखकर डा़ अम्बेडकर प्रसन्न नहीं थे। सामने आते हुए संभावित खतरे उन्हें स्पष्ट दिख रहे थे। इन्हीं सब कारणों से उन्होंने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया और इसकी पूर्व संध्या पर संसद में भाषण देते हुए कहा- देश की विदेश नीति को देखकर मैं केवल असंतुष्ट और व्यग्र ही नहीं हूँ वरन् मैं चिन्तातुर भी हूँ। कोई भी व्यक्ति जो भारत की विदेश नीति के सम्बन्ध में एवं दूसरे देशों के हमारे प्रति व्यवहार के बारे में जानकारी रखता है वह दूसरे देशों के हमारे प्रति व्यवहार में हो रहे अचानक परिवर्तन से अच्छी प्रकार अवगत होगा। 15 अगस्त 1947 को जब हम स्वतन्त्र हुए तब हमारा बुरा चाहने वाला कोई भी देश नहीं था। दुनिया के सभी देश हमारे मित्र थे। केवल चार वर्षों के अन्दर सभी हमको छोड़कर चले गये हैं। आज हमारा कोई भी मित्र शेष नहीं रह गया है। हमने स्वयं अपने आपको दूर कर लिया है। हम आज नितांत अकेले हैं, इतने अकेले कि यू़एऩओ. के अन्दर हमारे प्रस्तावों का अनुमोदन करने वाला एक भी देश नहीं है।
तिब्बत पर चीनी अधिकार के परिणाम भयंकर होंगे
चीन ने 1949 के बाद से ही तिब्बत पर अपना अधिकार जमा लिया। भारत शान्त बना रहा। तिब्बत की दर्दनाक अपील पर भी भारत ने सहायता का हाथ नहीं बढ़ाया और न ही अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों को तिब्बत की सहायता हेतु आने दिया। डा़ अम्बेडकर कहते हैं : ल्हासा पर चीनी अधिकार की अनुमति देकर प्रधानमन्त्री जी ने चीनी सीमाओं को हमारी सीमाओं से मिलाने में बड़ा सहयोग किया है। इन सभी बातों को देखने से मेरे को यह लगता है कि यदि आज भले ही न हो किन्तु भविष्य में भारत उनके सामने आक्रमण के लिए खुला पड़ा है और वे अवश्य ही इस पर अधिकार के लिए आगे बढ़ेंगे क्योंकि उनकी वृत्ति ही आक्रमणकारी है।
जनसंख्या की पूर्ण अदला बदली हो
मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान का विषय आते ही डा़ अम्बेडकर ने इस समस्या पर विचार किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू और मुसलमानों के मध्य एकता स्थापित करने वाले तत्व बहुत कम हं। उनमें आपस में वैमनस्य और द्वेष अधिक है, अत: वे कभी भी मिलकर नहीं रह सकेंगे। अत: उनका मत था कि यदि पाकिस्तान बनाना ही पड़ता है तो हिन्दू और मुसलमान पूर्णतया अलग-अलग हो जायें वही ठीक रहेगा।
हिन्दू समाज को देन
डा़ साहब ने कम्युनिस्टों के विचार एवं कार्य प्रणाली को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया और भारत के इस वर्ग में (जो कि हिंसक आन्दोलन के लिये योग्यतम आधार हो सकता था) कम्युनिस्टों के प्रति किसी भी प्रकार का आकर्षण उत्पन्न होने नहीं दिया, और प्रयासपूर्वक कम्युनिज्म से उन्हें दूर बनाये रखा।
हिन्दू समाज की जड़ता और असंवेदनशील मानसिकता को देखकर डॉ़ साहब हिन्दू धर्म के नेतृत्व को एक झटका देकर नींद से उठाना भी चाहते थे। इस कारण, सन् 1935 में उन्होंने घोषणा की कि वे हिन्दू धर्म में रहना नहीं चाहते। मृत्यु के पूर्व ही वे निश्चय कर लेंगे कि किस धर्म में उनकी मृत्यु हो। ईसाइयत में जातिविहीन समाज, वहाँ की सेवा भावना, विश्व में समृद्घ राष्ट्रों की तालिका, शिक्षित एवं प्रतिष्ठित ईसाई समाज के साथ अनुसूचित वर्गों का जुड़ना आदि अनेक लुभावनी बातों से डॉ़ अम्बेडकर को लगातार आकर्षित किया जा रहा था। किन्तु, डा़ साहब ईसाइयत को बहुत निकट से देख चुके थे। ईसाइयत की असहिष्णु मानसिकता, यहूदियों और इस्लाम के साथ उनकी शत्रुता का इतिहास तथा विश्वभर में गैर ईसाई समाज पर ईसाइयों के द्वारा किये गये अमानुषिक अत्याचारों के सैकड़ों प्रसंगों का उन्होंने अध्ययन किया हुआ था। भारतवर्ष में भी जो लोग अभी तक ईसाई हो गये थे उनकी स्थिति को देखकर वे बहुत दु:खी थे। वे ईसाई मत में मतान्तरित हिन्दुओं को पूछते थे कि ह्यतुम्हें वहाँ (ईसाई मत स्वीकार करके) क्या मिला है ? क्यां ईसाई बने थे तुम? क्या वहाँ जाकर तुम्हारा स्तर सुधर गया है?
डा़ साहब ईसाई मत में मतान्तरित लोगों से पूछते हैं-वे अस्पृश्य लोग जो ईसाई बने थे क्या अब स्पृश्यों के स्तर पर आ गये है? क्या अस्पृश्य और स्पृश्य जो भी ईसाई बने थे अब जाति व्यवस्था को पूरी तरह छोड़ चुके हैं?… इन सभी प्रश्नों का उत्तर भारत में ईसाई मत को मानने वालों को देना चाहिये ।
वे यह भी जानते थे कि इस्लाम यहाँ पर अन्य मतावलम्बियों के साथ सदैव से शत्रुता का ही व्यवहार करता चला आ रहा है । अनुसूचित वर्ग के हिन्दू भी यदि मुसलमान बन गये तो सारे देश के लिए यह एक गम्भीर खतरा हो जायेगा । अत: उन्होंने इस्लाम स्वीकार करने का आग्रह करने वाले सभी संदेशवाहकों को वापस कर दिया । वे किसी भी कीमत पर देश में कहीं पर भी अनुसूचित वर्ग के हिन्दुओं को मुसलमान बनने देने को तैयार नहीं थे । वे आदि से अन्त तक भारतीय थे। यहाँ के सांस्कृतिक मूल्यों तथा महान् जीवन दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी। ढोंग, पाखण्ड, अमानवीय परंपराओं तथा विकृत मान्यताओं के विरुद्घ जीवन भर संघर्ष करते रहे लेकिन, उनका कोई शत्रु नहीं था। समाज में मानवीय दर्शन की पुनर्स्थापना में सहयोग करने वाले सभी उनके मित्र थे। विपरीत परिस्थितियों के कारण उन्होंने कभी हार नहीं मानी और करोड़ों लोगों के जीवन में परिवर्तन लाने में वे सफल रहे।
डॉ. कृष्णगोपाल
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह हैं)
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