|
वर्तमान जीवन शैली की सुविधाभोगी प्रवृत्ति के कारण विश्व में बीमारियों तथा बीमार व्यक्तियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है और इसी के चलते दवा निर्मात्री कम्पनियां अतुल धनराशि कमा रही हैं। उनका यह व्यापारिक साम्राज्य इस भरोसे पर भी टिका हुआ है कि वे शत-प्रतिशत वैज्ञानिक आधार पर एवं पूर्णत: ईमानदारी के साथ कार्य करती हैं। परन्तु इधर जो नए तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं, उनसे तो लगता है कि इस व्यापार में भी धांधलेबाजी अत्यधिक है।
नियमानुसार एक औषधि के आविष्कार के बाद अनेक स्तरों पर और अंत में मानवों पर परीक्षण (क्लीनिकल ट्रायल) के पश्चात ही उसका उत्पादन प्रारम्भ किया जाता है। यह देखना और विज्ञान जरलों में रपट करना आवश्यक होता है कि लाभ की अपेक्षा उसके पार्श्व प्रभाव (साइट इफेक्ट) न्यूनतम हों। इन पार्श्व प्रभावों के उत्पादित दवा के लेबल पर अथवा साथ ही पर्ची पर लिखना भी पड़ता है।
उत्पादित दवा से आमदनी अच्छी हो इसके लिए डाक्टरों को भांति-भांति के मंहगे उपहार, उन्हें परिवार के साथ देशाटन पर भेजने आदि का सहारा लिया जाता है। यह बात तो अब जनता को भली-भांति मालूम है। परन्तु कुछ समय से उत्पादन के पहले के स्तरों पर की जाने वाली घपलेबाजी भी प्रकाश में आने लगी है। इस प्रक्रिया में उपभोक्ता का स्वास्थ्य भी यदि नजरअंदाज हो जाए तो भी कम्पनियों को बहुधा चिंता नहीं होती। ऐसी कुछ अनैतिक बातों की चर्चा ही इस लेख का उद्देश्य है।
सबसे पहली बात तो यही है कि अकसर अनैतिक हथकंडों के माध्यम से अनावश्यक और कभी-कभी तो खतरनाक भी दवाओं को भी उपभोक्ता के गले से उतारने का प्रयास किया जाता है। इस विषय में 3-4 वर्ष। पूर्व इंग्लैण्ड के हल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा की गयी जांच-पड़ताल में आश्चर्यजनक तथ्य उभर कर सामने आए। उदाहरणार्थ, एक नैराश्य प्रतिरोधी (एंटी डीप्रेसेंट) औषधि अत्यंत सीमित से वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर और अनेक तथ्य छिपाकर चला दी गयी। बाद में उसकी आवश्यकता ही नहीं थी। मालूम था कि सही मायनों में उसकी आवश्यकता ही नहीं थी। यही नहीं, उसे पार्श्व प्रभाव भी गंभीर थे।
कुछ ऐसी ही कहानी बहुत सी अन्य औषधियों के बारे में भी दोहराई गई। एक उदाहरण बच्चों के कुछ अजीब से व्यवहार से संबंधित एक बीमारी (ए.डी.एच.डी.) का है। अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व लब्धप्रतिष्ठ मनोवैज्ञानिक डा. लियोन आएसेनबर्ग ने खुलासा किया कि ऐसी किसी बीमारी का तो अस्तित्व था ही नहीं। इसका ह्यआविष्कारह्ण तो अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर दवा कंपनियों के लाभार्थ उन्होंने यों ही कर डाला था। उनकी प्रतिष्ठा ऐसी थी कि उनके द्वारा उस समय प्रस्तुत काल्पनिक बातें वैज्ञानिक जगत ने मान भी ली और फिर कम्पनियों ने बीमारी के उपचार के लिए औषधि ह्यरिटैलिनह्ण का विरचन भी कर डाला। विश्व के लाखों नन्हें-मुन्नों (प्री नर्सरी से हाई स्कूल तक की आयु के) को यह दवा खिला भी गई। बाद में एक प्रयोगशाला में इसके पुनपर्रीक्षण से ज्ञात हुआ कि यह तो मस्तिष्क को क्षति पहुंचाने की क्षमता रखती थी।
कुछ यही बात गार्डसिल और सर्वेरिक्स नामक वैक्सीनों से संबंधित है तो लंबे समय से महिलाओं में ह्यूमैन पैपिलोमा वायरस के संक्रमण से उत्पन्न स्र्विक्स के कैन्सर को रोकने के लिए दी जाती रही है। 2009 में इनकी अनुसंधानकर्ता डा. डायने हार्पर ने एक जनरल में स्वयं लिखा कि ये टीके इस कैन्सर को रोकने में सक्षण नहीं थे। हैरानी की बात यह है कि बाद में उन्होंने अपनी यह स्वीकारोक्ति स्वयं ही बिना कोई कारण बताये (संभवत: किसी दबाव में) वापस ले ली। रिटैलिन एवं दोनों वैक्सीनों के बारे में 6 अक्तूबर, 2103 के ह्यद हिन्दूह्ण राष्ट्रीय दैनिक में प्रोफेसर बी.एम.हेगड़े, जो प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ एवं मनीपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं, ने अपने लेख में ये सारी ही बातें और अधिक विस्तार से दी हैं। उन्होंने तो यहां तक लिखा है कि उपरोक्त वायरस का संक्रमण अधिकार स्वयं ही एक अथवा अधिक से अधिक दो वषोंर् में समाप्त हो जाता है और इसीलिए इसके लिए किसी भी वैक्सीन की विशेष आवश्यकता ही नहीं है।
कभी-कभी तो किसी नयी आविष्कृत दवा से शीघ्र लाभ कमाने की दृष्टि से उसका मानव परीक्षण भी नियमानुकूल और पूरी तरह नहीं किया जाता और यदि इसके लिए किसी भी वैक्सीन की विशेष आवश्यकता ही नहीं है।
कभी-कभी तो किसी नयी आविष्कृत दवा से शीघा्र लाभ कमाने की दृष्टि से उसका मानव परीक्षण भी नियमानुसार और पूरी तरह नहीं किया जाता और यदि इसके दौरान किसी को कुछ नुकसान पहुंचे तो बहुधा उसकी भरपाई भी नहीं की जाती। मानव परीक्षणों के लिए कानूनी सहमति भी अनैतिक रूप से ही प्राप्त कर ली जाती है। यहीं नहीं, अनेक बार तो जिन पर परीक्षण किया जाता है, उन्हें न तो औषधि से हो सकने वाली संभावित हानि के बारे में बताया जाता है और न ही उनकी सहमति प्राप्त की जाती है। होहल्ला न हो, इसके लिए अफ्रीकी देशों की गरीब और अनजान जनता को चुना जाता है अथवा भारत के वनवासी समाज को।
अभी कुछ दिन पहले ही भारत के उच्चतम न्यायालय ने 157 दवाओं के मानव परीक्षणों पर रोक लगा दी। सरकारी वकील ने स्वयं ही न्यायपीठ के सामने स्वीकार किया कि इनके परीक्षण की सरकारी सहमति बिना उनके तकनीकी पक्ष की पूरी तरह जांच पड़ताल के दे दी गई थी। कारणों का अंदाजा तो कोई भी लगा सकता है। न्यायपीठ ने आदेश दिया कि शोध से उजागर हुए औषधियों के लाभ-हानि पक्ष का अच्छी तरह अध्ययन किया जाए और यह भी देखा जाए कि देश को नई दवा की आवश्यकता है भी या नहीं। इसके बाद ही मानव परीक्षणों की आज्ञा दी जाए।
कुछ समय पूर्व भारत की एक संसदीय समिति ने भी पाया कि ह्यूमैन पैपिलोमा वायरस के संक्रमण को रोकने की एक वैक्सीन के ऐसे परीक्षणओं के लिए सरकारी सहमति अनियमित रूप से प्राप्त कर ली गई थी। इसके पश्चात इसके परीक्षणों में गुजरात के बडोदरा एवं आंध्र के खम्मम जिलों में अनेकों की मृत्यु हो गई। वस्तुत: वर्ष 2008 से 2011 के मध्य ऐसे विभिन्न परीक्षणों में, एक रपट के अनुसार, 2031 व्यक्ति काल के ग्रास बने। परन्तु एक प्रतिशत मामलों में ही मुआवजा दिया गया।
आधुनिक दवा कंपनियां बहुधा ही नयी औषधि के पार्श्व प्रभावों के बारे में जानकारी छिपा लेती हैं। इसी वर्ष ग्लैक्सी स्मिथक्लाइन एवं एबॉट जैसी जानी-मानी दिग्गज कम्पनियों को कुछ औषधियों के अति गंभीर पार्श्व प्रभावों को छिपाने तथा अन्य अनैतिक व्यापारिक हथकंडों के लिए अमरीकी न्यायालय के आदेश से बहुत ऊंचा जुर्माना भरना पड़ा। अमरीका में ही एक भारतीय कम्पनी रैनबक्सी को भी ऊंचा जुर्माना भरना पड़ा। क्योंकि उसकी एकाधिक दवाओं में गुणवत्ता की कमी पाई गयी। इन दवाओं के उत्पादन, प्रसंसकरण एवं पैकिंग नियमानुकूल नहीं थे।
अपनी दवाओं के लिए कम्पनियां बाजार में प्रतिस्पर्धा भी नहीं पैदा होने देना चाहतीं ताकि उनका लाभ पूर्ववत बना रहे। भारत में जयपुर के एक वैद्य सुरेशचंद्र ने जीवन भर की शोध एवं अपनी समस्त जमापूंजी लगाकर कदम्ब वृक्ष की पंक्तियों से मधुमेह की एक अत्यंत प्रभावी दवा का विरचन किया और इसका अंतरराष्ट्रीय पेटेंट भी प्राप्त कर लिया। दुर्भाग्य से इसके पश्चात उनकी निर्मात्री कम्पनी के दरवाजे इसके उत्पादन के लिए दौड़ रहे हैं। परन्तु उन्हें इसके लिए एक ही उत्तर प्राप्त हो रहा है कि पहले अपने खर्च पर आप मानव परीक्षण करवाइये। इसके लिए जिस धनराशि की आवश्यकता है, वह परिवार के पास है नहीं और कम्पनियां खर्च करने को तैयार नहीं हैं, संभवत: वर्तमान औधषियों की प्रतिस्पर्धा न बढ़ने देने के लिए। इसी प्रकार, भारत में ही 2002 में एक अत्यंत सफल पुरुष गर्भनिरोधक ह्यरिसुगह्ण का अनुसंधान हुआ। यह हर परीक्षण पर खरा उतरा। लोकसभा तक में इसी घोषणा हो चुकी थी कि यह एक सफल और सुरक्षित अनुसंधान है। परन्तु भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के तत्कालीन महानिदेशक ने अंतिम चरणों में यह कहकर मानव परीक्षण रुकवा दिया कि इसके पार्श्व प्रभाव ठीक नहीं थे। काम करने वाले वैज्ञानिक भौंचक्के रह गए और उन्होंने न्याय की गुहार लगाई तभी काम फिर से प्रारंभ हो सका। अब आज रिसुग की क्या स्थिति है। इस बारे में लेखक अज्ञान है।
प्राचीन भारत में औषधि अनुसंधान के क्षेत्र में व्यापारिक दृष्टिकोण कभी नहीं रहा। इसीलिए यहां चिकित्सा सस्ती और सबके लिए सुलभ रही। परन्तु नयी सभ्यता तो है ही बाजार पर आधारित। अत: कड़वे फल तो भुगतने ही पड़ेंगे। डा. ओम प्रभात अग्रवाल
टिप्पणियाँ