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जब कभी संसार के किसी भाग में किसी वस्तु की वास्तविक आवश्यकता होती है, तब उसकी पूर्ति करने का रास्ता निकल आता है और उसे नया जीवन मिलता है। यह बात भौतिक संसार के लिए भी सत्य है और आध्यात्मिक राज्य के लिए भी। यदि संसार के किसी भाग में आध्यात्मिकता है और किसी दूसरे भाग में उसका अभाव, तो फिर चाहे हम जान-बूझकर उसके लिए प्रयत्न करें या न करें, जहां धर्म का अभाव है, वहां जाने के लिए आध्यात्मिकता अपना रास्ता साफ कर लेगी और इस तरह सामंजस्य की स्थापना करेगी। मनुष्य जाति के इतिहास में हम पाते हैं कि एक या दो बार नहीं, प्रत्युत् पुन:-पुन: प्राचीन काल में संसार को आध्यात्मिकता की शिक्षा देना भारत का भाग्य रहा है। और इस तरह, हम देखते हैं कि किसी जाति की दिग्विजय द्वारा अथवा व्यवयाय की प्रधानता से संसार के विभिन्न मार्ग एक सम्पूर्ण राष्ट्र के रूप में बद्घ हुए और संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक दान का भण्डार खुला पड़ा। एक जाति के लिए दूसरी को कुछ देने का अवसर हाथ आया, तब प्रत्येक जातियों ने अपर जातियों को राजनीतिक, सामाजिक अथवा अध्यात्मिक, जिसके निकट जो भाव थे, दिये।
मनुष्य जाति के सम्पूर्ण ज्ञान-भण्डार में भारत का योगदान आध्यात्मिकता और दर्शन का रहा है। फारस सामा्रज्य के उदय के बहुत पहले ही वह इस तरह का दान दे चुका था। फारस साम्राज्य के उदय काल में भी उसने दूसरी बार ऐसा दान किया। यूनान की प्रभुता के समय उसका तीसरा दान था और अंग्रेजी की प्रधानता के समय अब चौथी बार विधि के उसी विधान को पूर्ण कर रहा है। जिस तरह संघ स्थापना की पश्चिमी कार्यप्रणाली और बाहरी सभ्यता के भाव हमारे देश की नस-नस में समा रहे हैं, चाहे हम उनको ग्रहण करें या न करें। उसी तरह भारत की आध्यात्मिकता और दर्शन पाश्चात्य देशों को प्लावित कर रहे हैं। इस गति को कोई नहीं रोक सकता, और हम भी पश्चिम की किसी न किसी प्रकार की भौतिकवादी सभ्यता का पूर्णत:प्रतिरोध नहीं कर सकते। इसका कुछ अंश, सम्भव है, हमारे लिए अच्छा हो और आध्यात्मिकता का कुछ अंश पश्चिम के लिए लाभदायक। इसी तरह सामंजस्य की रक्षा हो सकेगी। यह बात नहीं कि हर एक विषय हमें पश्चिमवालों से सीखना चाहिए, या पश्चिमवालों को जो सीखना है, हम ही से सीखें, किन्तु भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में सामंजस्य स्थापन या एक आर्दश संसार के निर्माण के युगों के भावी स्वप्नों की पूर्ति के लिए हर एक के पास जो कुछ हो, उसे भावी सन्तानों को दाय के रूप में अर्पित करना होगा। ऐसा आदर्श संसार कभी आएगा या नहीं, मैं नहीं जानता। समाज कभी ऐसी सम्पूर्णता तक पहंुच सकेगा, इस सम्बन्ध में मुझको ही सन्देह हो रहा है। परन्तु चाहे ऐसा हो या न हो , हममें से हर एक को इसी भाव को लेकर काम करना चाहिए कि वह संगठन कल ही हो जाएगा और प्रत्येक मनुष्य को सोचना चाहिए यह काम मानो उसी पर निर्भर है। हममें से प्रत्येक को यही विश्वास रखना चाहिए कि संसार के अन्य सभी लोगों ने अपना-अपना कार्य सम्पन्न कर डाला है। एक मात्र मेरा ही कार्य शेष है, और जब मैं अपना कार्य-भाग पूरा करूं , तभी संसार सम्पूर्ण होगा। हमें अपने सिर पर यही दायित्व लेना है।
भारत में वर्तमान समय में धर्म का प्रबल पुनरुत्थान हो रहा है। यह गौरव की बात है पर साथ ही इसमें विपत्ति की भी आश्ंाका है क्योंकि पुनरुत्थान के साथ उसमें यदा-कदा घोर कट्ठरता भी आ जाया करती है। और कभी-कभी तो यह कट्ठरता इतनी बढ़ जाती है कि अभ्युत्थान को शुरू करनेवाले लोग भी उसे रोकने में असमर्थ होते हैं, उसका नियमन नहीं कर सकते । अतएव पहले से ही सावधान रहना चाहिए। हमें रास्तें के बीचो -बीच चलना चाहिए। एक ओर कुसंस्कारों से भरा हुआ प्राचीन समाज है और दूसरी ओर भौतिकवाद-आत्मा-हीनता, तथाकथित सुधार और यूरोपवाद जो पश्चिम उन्नति के मूल तक में समाया हुआ है। हमें इन दोनों से खूब बचकर चलना होगा। पहले तो, हम पश्चिमी नहीं हो सकते, इसलिए पश्चिमवालों की नकल करना वृथा है। मान लो तुम पश्चिम वालों का अनुकरण करने में सफल हो गये, तो उसी समय तुम्हारी मृत्यु अनिवार्य है, फिर तुममें जीवन का लेश भी न रह जाएगा। हम अपने शास्त्रों में दो प्रकार के सत्य देखते हैं। एक मनुष्य के नित्य स्वरूप पर आधारित है, जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सार्वकालिक सम्बन्ध पर विचार करता है। दूसरे प्रकार का सत्य किसी देश काल और सामाजिक अवस्था विशेष पर टिका हुआ है। पहला मुख्यत: वेदों और श्रुतियों में संगृहीत है और दूसरा स्मृतियों और पुराणों में। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सब समय वेद ही हमारे चरम लक्ष्य और मुख्य प्रमाण रहे हैं। यदि किसी पुराण का कोई हिस्सा वेदों के अनुकूल न हो , तो निर्दयतापूर्वक उतने अंश का त्याग कर देना चाहिए। मैं समझता हूूं कि, जिसका उद्देश्य सभी को अपनाना है, किसी का तिरस्कार करना नहीं । मैं कट्ठरता वाली निष्ठा भी चाहता हूं और भौतिकवादियों का उदार भाव भी चाहता हूं। हमें ऐसे हृदय की आवश्यकता है जो समुद्र सा गम्भीर और आकाश जैसा उदार हो। हमें संसार की किसी भी उन्नत जाति की तरह उन्नतिशील होना चाहिए और अपनी परम्पराओं के प्रति वही श्रद्घा तथा कट्ठरता रखनी चाहिए , जो केवल हिन्दुओं में ही आ सकती है।
सीधी बात यह है कि पहले हमें प्रत्येक विषय का मुख्य और गौण भेद समझ लेना चाहिए। मुख्य सार्वकालिक है गौण का मूल्य किसी खास समय तक होता है, उस समय के अनन्तर उसमें यदि कोई परिवर्तन न किया जाए , तो निश्चित रूप से भयानक हो जाता है।
मेरे कथन का यह उद्देश्य नहीं कि तुम अपने प्राचीन आचारों और पद्घतियों की निन्दा करो-नहीं, ऐसा हरगिज न करो। उनमें से अत्यन्त हीन आचार को भी तिरस्कार की दृष्टि से न देखना चाहिए। निन्दा किसी की न करो, क्योंकि जो प्रथाएं इस समय निश्चित रूप से बुरी लग रही है। अतीत के युगों में वे ही जीवनप्रद थी। अतएव अभिशाप द्वारा उनका बहिष्कार करना ठीक नहीं, किन्तु धन्यवाद देकर और कृतज्ञता दिखाते हुए उनको अलग करना उचित है। क्योंकि हमारी जाति की रक्षा के लिए एक समय उन्होंने भी प्रशंसनीय कार्य किया था। और हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हमारे समाज के नेता कभी सेनानायक या राजा न थे, वे थे ऋषि। और ऋषि कौन हैं ? उनके सम्वन्ध में उपनिषद कहती हैं, ऋषि कोई साधारण मनुष्य नहीं, वें मन्त्रद्रष्टा हैं। ऋषि वें हैं , जिन्होंने धर्म को प्रत्यक्ष किया है, जिनके निकट धर्म केवल पुस्तकों का अध्ययन नहीं, न ही युक्तिजाल है, और न व्यावसायिक विज्ञान अथवा वाग्वितण्डा ही, वह है प्रत्यक्ष अनुभव-अतीन्द्रिय सत्य का प्रत्यक्ष साक्षात्कार। यही ऋषित्व है और यह ऋषित्व किसी उम्र या किसी सम्प्रदाय या जाति की अपेक्षा नहीं रखता। वात्स्यायन कहते हैं- सत्य का साक्षात्कार करना होगा और स्मरण रखना होगा कि हममें से प्रत्येक को ऋषि होना है।
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