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संसार ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा है, त्यों-त्यों जीवन समस्या गहरी और व्यापक हो रही है। उस पुराने जमाने में जब कि समस्त जगत के अखंडत्वरूप वेदान्ती सत्य का आविष्कार हुआ था, तभी से उन्नति के मूल मंत्रों और सार तत्वों का प्रचार होता आ रहा है। विश्वब्रहाण्ड का एक परमाणु सारे संसार को साथ बिना घसीटे तिल भर भी नहीं हिल सकता। जब तक सारे संसार को साथ-साथ उन्नति के पथ पर आगे नहीं बढ़ाया जाएगा, तब तक संसार के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार की उन्नति संभव नहीं है। दिन प्रतिदिन यह और भी स्पष्ट हो रहा है कि किसी प्रश्न की मीमांसा सिर्फ जातीय, राष्ट्रीय या किन्हीं संकीर्ण भूमियों पर नहीं टिक सकती। हर एक भाव को तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक उसमें सारा संसार न आ जाय, हर एक आकांक्षा को तब तक बढ़ाते रहना चाहिए, जब तक वह समस्त मनुष्य जाति को ही नहीं , वरन समस्त प्राणिजगत को आत्मसात् न कर ले। इससे विदित होगा कि क्यों हमारा देश गत कई सदियों से वैसा महान नहीं रह गया है, जैसा वह प्राचीन काल में था। हम देखते हैं कि जिन कारणों से वह गिर गया है, उनमें से एक कारण है, दृष्टि की संकीर्णता तथा कार्यक्षेत्र का संकोच।
जगत में ऐसे दो आश्चर्यजनक राष्ट्र हो गए हैं, जो एक ही जाति से प्रस्फुटित हुए हैं, परन्तु भिन्न परिस्थितियों और घटनाओं में स्थापित रहकर हर एक ने जीवन की समस्याओं को अपने ही निराले ढ़ग से हल कर लिया है। मेरा मतलब प्राचीन हिंदू और प्राचीन यूनानी जातियों से है। इससे और अधिक अवनति क्या हो सकती है कि देश के बड़े-बड़े मेधावी मनुष्य भोजन के प्रश्न को लेकर तर्क करते हुए सैकड़ों वर्ष बिता दें, इस बात पर वाद-विवाद करते हुए कि तुम हमें छूने लायक हो या हम तुम्हें, और इस छूत-अछूत के कारण कौन सा प्रायश्चित करना पड़ेगा?
वेदान्त के वे तत्व , ईश्वर और आत्मा सम्बन्धी सबसे उदात्त तथा महान सिद्घान्त, जिनका सारे संसार में प्रचार हुआ था, प्राय: नष्ट हो गये। निबिड़ अरण्यनिवासी कुछ संन्यासियों द्वारा रक्षित होकर वे छिपे रहे और शेष सब लोग केवल छूत-अछूत, खाद्य-अखाद्य और वेशभूषा जैसे गुरुतर प्रश्नों को हल करने में व्यस्त रहे। संसार में हीनतम मनुष्य भी श्रेष्ठ मनुष्यों को कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य दे सकते हैं, किन्तु वे हमारी जाति में शक्ति संचार नहीं कर सके।
मैं यूरोप और अमरीका गया था, इसका तुम लोगों ने सहृयतापूर्ण उल्लेख किया है। मुझे वहां जाना पड़ा, क्योंकि यही विस्तार या राष्ट्रीय जीवन के पुनर्जागरण का पहला चिन्ह है। इस फिर से जगने वाले राष्ट्रीय जीवन ने भीतर ही भीतर विस्तार प्राप्त करके मुझे मानो दूर फेंक दिया था और इस इस तरह और भी हजारों लोग फेंके जायेंगे। मेरी बात ध्यान से सुनो। यदि राष्ट्र को जीवित रहना है तो ऐसा होना आवश्यक है। अतएव यह विस्तार राष्ट्रीय जीवन के पुनरभ्युदय का सर्वप्रधान लक्षण है और मनुष्य की सारी ज्ञानसमष्टि तथा समग्र जगत की उन्नति के लिए हमारा जो कुछ भी योगदान होना चाहिए, वह भी इस विस्तार के साथ भारत के बाहर दूसरे देशों को जा रहा है। परन्तु यह कोई नया काम नहीं । तुम लोगों में से जिनकी यह धारणा है कि हिन्दू अपने देश की चहारदीवारी के भीतर ही चिरकाल से पड़े हैं। वे बड़ी ही भूल करते हैं। तुमने अपने प्राचीन शास्त्र पढ़े नहीं, तुमने अपने जातीय इतिहास का ठीक-ठीक अध्ययन नहीं किया। हर एक जाति को अपनी प्राण रक्षा के लिए दूसरी जातियों को कुछ देना ही पड़ेगा। प्राण देने पर ही प्राण की प्राप्ति होती है। दूसरों से कुछ लेना होगा तो बदले में मूल्य के रूप में उन्हें कुछ देना ही होगा। हम जो हजारों वषोंर् से जीवित हैं, यह हमको विस्मित करता है, और उसका समाधान यही है कि संसार के दूसरे देशों को सदा देते रहे हैं, अनजान लोग भले ही जो सोचें।
भारत का दान है धर्म, दार्शनिक, ज्ञान और आध्यात्मिकता। धर्म प्रचार के लिए आवश्यक नहीं है कि सेना उसके आगे-आगे मार्ग निष्कंटक करती हुई चले। ज्ञान और दार्शनिक तत्व को शोणित- प्रवाह पर से ढोने की आवश्यकता नहीं। ज्ञान और दार्शनिक तत्व खून से भरे जख्मी आदमियों के ऊपर से सदर्प विचरण नहीं करते । वे शान्ति और प्रेम के पंखों से उड़कर शान्तिपूर्वक आया करते हैं, और सदा हुआ भी यही।
अतएव संसार के लिए भारत को सदा कुछ देना ही पड़ा है । लन्दन में किसी युवती ने मुझसे पूछा, तुम हिन्दुओं ने क्या किया? तुमने कभी किसी भी जाति को जीत नहीं पाया। अंग्रेज जाति की दृष्टि में-वीर, साहसी , क्षत्रियप्रकृति अंग्रेज जाति की दृष्टि में दूसरे व्यक्ति पर विजय प्राप्त करना ही एक व्यक्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ गौरव की बात समझी जाती है। यह उनके दृष्टि बिंदु से सत्य भले ही हो, किन्तु हमारी दृष्टि उसके बिल्कुल विपरीत है। जब मैं मन से यह प्रश्न करता हूं कि भारत के श्रेष्ठत्व का क्या कारण है, तब मुझे यह उत्तर मिलता है कि हमने कभी दूसरी जाति पर विजय प्राप्त नहीं की, यही हमारा महान गौरव है। तुम लोग आजकल सदा यह निन्दा सुन रहे हो कि हिन्दुओं का धर्म दूसरों के धर्म को जीत लेने में सचेष्ट नहीं, और मैं बड़े दुख से कहता हूं कि यह बात ऐसे-ऐसे व्यक्तियों के मुहं की होती है, जिनसे हम अधिकतर ज्ञान की अपेक्षा करते हैं। मुझे यह जान पड़ता है कि हमारा धर्म दूसरे धमोंर् की अपेक्षा सत्य के अधिक निकट है। इस तथ्य के समर्थन की प्रधान उक्ति यही है कि हमारे धर्म ने कभी दूसरे धमोंर् पर विजय प्राप्त नहीं कीं, उसने कभी खून की नदियां नहीं बहायीं। उसने सदा आशीर्वाद और शान्ति के शब्द कहे। सबको उसने प्रेम और सहानुभूति की कथा सुनायी। यहीं, केवल यहीं, दूसरे धर्म से द्वेष न रखने के भाव कार्यरूप में परिणत हुए। अन्य देशों में चर्चा मात्र है। यहीं, केवल यहीं, देखने में आता है कि हिन्दू मुसलमानों के लिए मसजिदें और ईसाइयों के लिए गिरजे बनवाते हैं। अतएव, भाइयों तुम समझ गये होगे कि किस तरह हमारे भाव धीरे-धीरे शान्त और अज्ञात रूप से दूसरे देशों मेंं गये हैं। भारत के सब विषयों में यही बात है। भारतीय विचार का सबसे बड़ा लक्षण है, उसका शान्त स्वभाव और उसकी नीरवता। जो प्रभूत शक्ति इसके पीछे है, उसका प्रकाश जबरदस्ती से नहीं होता है। भारतीय विचार सदैव जादू सा असर करता है। जब कोई विदेशी हमारे साहित्य का अध्ययन करता है तो पहले तो उसे वह अरुचि पूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि उसके निज के साहित्य जैसी उद्दीपना नहीं , तीव्र गति नहीं, जिससे उसका हृदय सहज ही उक्षल पड़े। यूरोप के दुखान्त नाटकों की हमारे करुण नाटकों से तुलना करो, पश्चिम नाटक कार्य प्रधान हैं, वे कुछ देर के लिए उद्दीप्त तो कर देते हैं, किन्तु समाप्त होते ही प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है और तुम्हारे मस्तिष्क से उसका सम्पूर्ण प्रभाव निकल जाता है। भारत के करुण नाटकों में मानो सम्मोहन की शक्ति भरी हुई है। वे मंद गति से चुपचाप अपना काम करते हैं, किन्तु तुम ज्यों-ज्यों उनका अध्ययन करते हो, त्यों-त्यों तुम्हें मुग्ध करने लगते हैं। फिर तुम टस से मस नहीं हो सकते, तुम बंध जाते हो। हमारे साहित्य में जिस किसी ने प्रवेश किया, उसे उसका बन्धन अवश्य ही स्वीकार करना पड़ा और चिर काल के लिए हमारे साहित्य से उसका अनुराग हो गया। साभार-विेवेकानन्द साहित्य खण्ड-5 पृष्ठ -163
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