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श्रीगुरुनानक जयन्ती (17 नवम्बर) पर विशेष
सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक जी का जन्म सम्वत् 1526 की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। लाहौर (अब पाकिस्तान) के पास तलवण्डी नामक गांव के श्री कालूचन्द इनके पिताजी थे तथा माता तृघ्रा देई की पावन कोख से इस महान सन्त ने जन्म लिया। ऐसी प्रथा है कि जिनका जन्म नानी के यहां होता है प्राय: उन बच्चों का नाम नानक रख दिया जाता है। खेलने- कूदने के दिनों में भी नानक शरारती नहीं थे। वे सदा शान्त और गंभीर दिखाई पड़ते थे।
छह वर्ष पूर्ण कर चुकने के पश्चात उन्हें पाठशाला में पढ़ने के लिए प्रवेश दिलवाया गया। पाठशाला प्रख्यात शिक्षक गोपाल पण्डित की थी। प्राय: प्रवेश लेने के बाद बच्चे स्वयं संकोच पूर्वक गुरु से कुछ नहीं पूछते। गुरु जो कुछ बता दें वही सत्य मान लेते हैं। गुरु श्री गोपाल पण्डित से नानक जी ने स्वयं ही पूछा- आप मुझे क्या पढ़ाएंगे? प्रश्न अप्रत्याशित था फिर भी पंडित जी ने संयमपूर्वक उत्तर दिया, जबकि बच्चे के इस दुस्साहस पर वे चकित भी थे और क्षुब्ध भी।
बेटा, जो कुछ सबको पढ़ाया जाता है, तुम्हें भी वहीं पढ़ाउंगा। पंडित जी के उत्तर से जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। नानक ने कहा- मेरा मतलब किस विषय का ज्ञान मुझे आप देंगे?
पंडित जी बोले- बेटा सभी को पहले भाषा का ज्ञान दिया जाता है, तभी वह अन्य विषयों की पुस्तक पढ़ता और समझता है। तुम्हें भी पहले भाषा का ही ज्ञान दिया जाएगा।
इसके पश्चात पंडित जी ने उत्तर दिया- इसके पश्चात गणित का अभ्यास करवाया जाएगा। नानक ने साहपूर्वक अपने मन की बात कह दी-
परन्तु पंडित जी, मुझे इस विद्या में रुचि नहीं है। क्या इससे करतार की प्राप्ति हो सकती है? पंडित जी हैरान थे। बोले- बेटा, करतार की प्राप्ति के लिए तो स्वयं ही तय करना पड़ेगा। यह विद्या तो संसार में जीवनयापन के लिए है।
नानक ने कहा- तो यह विद्या मुझे नहीं पढ़नी। पंडित गोपाल जी ने नानक के विषय में उनके पिता जी को बता दिया। यह तो अवतारी पुरुष हैं। मैं इस महान आत्मा को नहीं पढ़ा सकता।
पिताजी ने नानक को फिर संस्कृत पाठशाला में प्रवेश दिलवाया। वहां जब आचार्य जी ने नानक को ह्यऊंह्ण लिखना सिखाया तथा ह्यओइम्ह्ण का सस्वर उच्चारण भी करवाया। ओइम् का लम्बा उच्चारण करते-करते नानक की आंखें बन्द हो गईं। मानो वे ओइम् के स्वर में खो गए। फिर नानक जी ने गुरु जी से पूछा- कृपया ऊं का अर्थ समझाइए।
गुरुजी बोले- बेटा! अभी तुम ऊं का अर्थ नहीं समझ पाओगे। तुम अभी बहुत छोटे हो।
नानक बोले- जिसका अर्थ ही आप नहीं बता सकते, वह शब्द पढ़ाया ही क्यों? ऊं ही तो है जो सबको उत्पन्न करने वाला, पालने वाला तथा मारने वाला है। इससे परे तो और कुछ ना पढ़ने योग्य है ना पढ़ाने योग्य है। गुरुजी ने नानक के पिता को बता दिया कि इन्हें कोई नहीं पढ़ा सकता, ये तो स्वयं ज्ञान स्वरूप हैं।
फिर भी नानक वह विद्या तो पढ़ ही गए जो जीवन की नैया को पार लगाने वाली है। पिता कालूचन्द जी पटवारी थे। उनकी भारी इच्छा थी कि नानक भी पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी कर ले। नानक को स्कूली शिक्षा दिलाने में वे असमर्थ रहे। तब उन्होंने सोचा कि नानक किसी व्यापार में लग जाए तो ठीक रहेगा। अत: एक दिन उन्होंने नानक जी को कुछ पूंजी (रकम) दी। साथ ही कहा-बाजार जाओ और देखभाल कर सच्चा सौदा करके ऐसा माल खरीद कर लाओ जिसमें घाटा ही न हो। लाभ ही लाभ हो। रकम लेकर नानक बाजार को चल दिए। कुछ खरीदने से पहले मार्ग में ही उन्हें साधु सन्त की एक टोली मिली। नानक ने उन्हें प्रणाम किया। वे बोले- बच्चा भूखे भजन न होय गोपाला? हम भूखे हैं। भोजन करवा दोगे तो तृप्त होकर भगवान का भजन करेंगे तथा तुम्हें दुआएं देंगे।
नानक ने सब रुपयों से भोजन सामग्री खरीदी तथा सभी साधुओं को भर पेट भोजन करवा दिया। साधु आशीर्वाद देकर चले गए। जब नानक जी घर पहुंचे तो पिता ने पूछा- बेटा क्या खरीदा, क्या बेचा? सौदा कैसा रहा? नानक बोले- आपने ही तो कहा था सच्चा सौदा करना। सो मैंने सच्चा सौदा कर दिया। यह पूंजी जन्म-जन्म तक फल देगी। और फिर साधु संगति की घटना सुना दी। पिता जी बहुत नाराज हुए परन्तु सौदा तो हो चुका था तथा सच्चा भी था।
बहन नानकी का विवाह सुल्तानपुर में हुआ था। उनके पिता ने दु:खी मन से नानक को अपने दामाद के साथ भेज दिया। उन्हें निर्देश भी दिया कि कहीं इसे काम पर लगा देना। बहनोई जी ने नानक को नवाब के अनाज भंडार में तौलने के लिए लगवा दिया। नानक महीनों तक वहां सेवा करते रहे। एक दिन एक व्यापारी के लिए अनाज तौल रहे थे। तौल गिनते जा रहे थे, एकू एकां, दो कू दोऑं, तीन कू तीनां- बारह को वारां फिर तेरा ही तेरा, तेरा ही तेरा, तेरा ही तेरा बोलते गए और तौलते गए। सारा भंडार ही तौल दिया। भंडार खाली हो गया। नानक बन्द करके घर चले गए। किसी ने नवाब को इस घटना की जानकारी दी। नाराज नवाब ने नानक को बुलवाया। सिपाही उन्हें घर से लेकर आए। भण्डार खोलकर सारा अनाज तौल कर देखा गया। एक तोला भी कम न था। अनाज पूरा जांच कर नवाब तो चला गया परन्तु यह समाचार शहरभर में आग की तरह फैल गया।
जो समस्त लोक की धन सम्पत्ति को परमात्मा की ही मानते हैं। दिन-रात उसी का ध्यान करते हैं, परमात्मा भी उनका ध्यान करता है। बाद में नानक इसी सत्य से संसार को अवगत कराने के लिए सुदूर प्रदेशों में यात्राएं करने गए। वे अपने समय के इतने महान ब्रह्मज्ञानी हुए हैं कि उनके नाम से पहले गुरु (आदरसूचक) शब्द लगाना आवश्यक हो गया। गुरु नानक की गद्दी पर गत पांच सौ वर्ष में दस गुरु विराजमान हुए। गुरुग्रंथ साहेब नामक धर्मग्रंथ में उनके लिखे पद संग्रहीत हैं जो विश्व के लिए मार्गदर्शक हैं।
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