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भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को कोसने की कांग्रेस में चल रही होड़ में कौन आगे निकल जायेगा यह कहना कठिन है लेकिन एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि देश के कानून और न्याय मंत्री कपिल सिब्बल ने प्याज की महंगाई के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराकर अब तक एक नंबर पर खड़े दिग्विजय सिंह को पटखनी दे दी है। अब दिग्विजय सिंह को चाहिए कि ओडि़सा और आंध्र प्रदेश को तबाह करने वाले फैलीन तूफान के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराएं। जिस दिन सिब्बल ने नरेंद्र मोदी को प्याज की महंगाई के लिए जिम्मेदार ठहराया उसी दिन सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन देखने की कामना कर दी। सिब्बल चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी उनसे बहस करें। क्या सिब्बल प्रधानमंत्री पद के कांग्रेसी उम्मीदवार हैं? फिर वे या अन्य कांग्रेसी यह दावा क्यों नहीं करते कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और मोदी के बीच बहस हो जाय। पिछले दो महीनों से कांग्रेस नरेंद्र मोदी से हिसाब मांग रही है। किस बात का ह्यह्यहिसाबह्णह्ण? लेकिन वह महंगाई, नित्य नए आकड़ें बनाने, भ्रष्टाचार में सत्ता के आकंठ में डूब जाने और आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के मामले में वोट बैंक की प्राथमिकता को महत्वपूर्ण मानकर ढिलाई बरतने आदि का स्वयं उत्तर देने के लिए तैयार नहीं है। मोदी ने एक वाक्य में ही उनके हिसाब मांगने के ढिढोरे को शांत कर दिया। मैंने तो गुजरात को हिसाब दे दिया है, आप अपने दस वर्ष का हिसाब दीजिए। अब कांग्रेस फिर घूम फिरकर उसी रास्ते पर आ गई है, जिसने उसकी गुजरात में मिट्टी पलीद कर दी थी। मोदी पर व्यक्तिगत ओछे शब्दों में हमला वह ह्यफेंकूह्ण है भर कहने से पेट नहीं भरा तो उनकी तुलना हिटलर से कर डाली। इस देश में सत्ता के लिए हिटलर के समान फासिस्ट तरीके का एक बार ही प्रयोग हुआ है 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर देश की जनता को नागरिक अधिकार से वंचित कर दिया था। कांग्रेस की इस मुहिम में ह्यबी टीमह्ण के रूप में काम करने के लिए साम्यवादी और कुछ वे ह्यह्यमुख्यमंत्रीह्णह्ण भी शामिल हो गए हैं, जो पिट गए हैं या अपने सांप्रदायिक शासन के कारण अराजकता को बढ़ावा देने वाले तत्वों को ऐसा संरक्षण प्रदान कर रहे हैं, जो निरंतर तनाव बढ़ाने का कारण बन गए हैं। इस्लामी तालिबान को खुश करने के लिए यह वैसा ही प्रयास है जैसा बिहार के चुनाव में रामविलास पासवान ने ह्यह्यओसामा बिन लादेनह्णह्ण को साथ लेकर प्रचार किया था। जिस राज्य के वे दस साल मुख्यमंत्री रहे उसी राज्य में कांग्रेसी नेताओं की प्रथम पंक्ति में बैठने तक से वंचित दिग्विजय सिंह की यह गर्वोक्ति खिसियानेपन को जगजाहिर करने के समान ही है।
कांग्रेस को इस बात पर बड़ी आपत्ति है कि नरेंद्र मोदी और भाजपा सरदार बल्लभ भाई पटेल को महत्वपूर्ण क्यों बना रहे हैं। कांग्रेसियों का कहना है कि नरेंद्र मोदी राजनीति कर रहे हैं? नरेंद्र मोदी यदि सरदार पटेल की संसार में सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित करते है तो यह राजनीति है लेकिन कांग्रेसी सरकार जब खाद्यान्न सुरक्षा योजना को इंदिरा गांधी का नाम देती है तो वह राजनीति नहीं है। मोदी अपनी सभा में बम धमाकों में मृत परिवार के घर सांत्वना देने जाते हैं तो यह राजनीति होती है और मनमोहन सिंह के साथ सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मुजफ्फरनगर जाते हैं तो वह राजनीति नहीं है।
इस संदर्भ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर टिप्पणी आवश्यक है क्योंकि जब वे विषाक्त भोजन खाने से मरने वाले बच्चों के गांव नहीं गए तो मोदी की रैली में मारे गए लोगों के यहां क्या जायेंगे? नरेंद्र मोदी यदि हिन्दू-मुसलमानों को गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट होने का आवाहन करें तो वह राजनीति है, मनमोहन सिंह देश की सम्पत्ति पर अल्पसंख्यकों का पहला हक मानें तो वह राजनीति नहीं है। हमें इस पर कांग्रेसियों के साथ सहानुभूति प्रगट करनी चाहिए। क्योंकि देश में नेहरू और गांधी (इंदिरा गांधी) परिवार के अतिरिक्त किसी का यशोगान कैसे करने का साहस किया जा सकता है।
आखिर आज देश जैसा है और जो भी समस्याएं हैं सबकुछ इसी परिवार की देन है जिस देश ने आधी रोटी खाने का संकल्प कर इंदिरा गांधी को सत्ता में वापस बैठाया था, उनकी तीसरी पीढ़ी जब एक पूरी रोटी खाने की व्यवस्था के बदले वोट चाहती है तो किसी और व्यक्ति को खासकर उसे जिसने भारत तोड़ो के अंग्रेजी शासन की मंशा को विफलकर भारत जोड़ने का काम किया है । क्योंकि कांग्रेस तो घूम-फिरकर सवा सौ साल में फिर उसी मानसिकता की हो गई है, जिससे वशीभूत एम.ओ.ह्यूम ने 1885 में इस पार्टी की स्थापना की थी। वह भी विदेशी मूल के थे । आज इस संगठन का नेता भी विदेशी मूल का है। ह्यूम ने अंग्रेजी सत्ता से ह्यह्यप्रार्थनाह्णह्ण करने के लिए कांग्रेस की स्थापना की थी वही सोनिया गांधी के नेतृत्व ने विदेशी आर्थिक दासता के लिए याचना करने वाली सरकार प्रदान की है।
सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा लगाया जाना नेहरू गांधी परिवार की कीर्तन मंडली को कैसे रास आ सकता है। कल को यदि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में गोविन्द बल्लभ पंत या डाक्टर संपूर्णानन्द को महिमामंडित किया जाए या बिहार में डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद को या फिर आचार्य कृपलानी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार भगत सिंह तथा अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को तो कांग्रेसियों के सीने पर सांप लोटना स्वाभाविक है क्योंकि,इनमें से सभी का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान नेहरू गांधी परिवार से कम नहीं था लेकिन वे वंशवादी नहीं थे इसलिए उनको महत्व देना वंशवादी कीर्तन मंडली को खलना स्वाभाविक है।
देश की स्वतंत्रता या विकास के लिए जिन लोगों ने भी योगदान दिया है वे किसी एक राजनीतिक संगठन की पूंजी नहीं हैं। सारे देश की धरोहर हैं। ऐसे महापुरुषों के पुण्यस्मरण में किए जाने वाले कोई भी प्रयास सराहनीय है। सराहा जाना ही चाहिए। लेकिन जिनकी दृष्टि संकुचित है, जो ह्यसेक्युलरिज्म ह्ण का मतलब अपनी संस्कृति और सभ्यता को हीन साबित करने में लगे हैं, या जो दासत्व भाव में विभोर हैं उनके लिए तो ऐसा होना असहनीय ही होना चाहिए। जो भी हो देश और कांग्रेस में चल रही ह्यह्यमोदीह्णह्ण प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार कौन पाता है सिब्बल, दिग्विजय या मनीष तिवारी, इसकी घोषणा की प्रतीक्षा चलती रहेगी लेकिन इस अभियान ने मोदी के दिल्ली के सिंहासन के नजदीक पहुंच े जाने में काफी मदद की है,। भाजपा को इस तिकड़ी का आभारी होना चाहिए।
साम्यवादियों ने सदैव ह्यह्यसरकारह्णह्ण की ह्यबीह्ण टीम का काम किया है। जब 1942 में सारा देश ह्यह्यअंग्रेंजो भारत छोड़ोह्णह्ण के नारे से गुनजायमान था तथा बड़ी संख्या में देशवासी जेलों में बंद थे। तब संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी़ सी. जोशी ने वायसराय को पत्र लिखकर भूमिगत कांग्रेसियों को पकड़वाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए अपनी पार्टी की सेवा को प्रस्ताव किया था। आज जो लोग अपनी सांप्रदायिक नीति -रीति के कारण हाशिए पर पहुंच गए हैं, उनको ह्यएकजुटह्ण कर तथाकथित तीसरे मोर्चे के लिए माहौल बनाने हेतु उसने नरेंद्र मोदी और संघ विरोधी उस अफवाही अभियान को फिर शुरू किया है, जिसके भ्रमजाल से निकलकर जनता ने वामपंथियों को किनारे कर दिया है। झूठे प्रचार के लिए गोवल्स का यदि दुनिया में कोई सबसे बड़ा अनुयायी संप्रदाय रहा है तो वह साम्यवादी ही है।, जिसका अस्तित्व दुनिया से मिट गया है।
गुजरात में 2002 के दंगों के बाद अमन चैन है और सच्चर कमेटी की रपट के अनुसार गुजरात का मुसलमान सबसे ज्यादा खुशहाल और सम्पन्न है। उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी और जनता दल यूनाइटेड ने जहां आतंकवादियों को संरक्षण प्रदानकर अल्पसंख्यक हितकारी बनने का दावा किया एंव उस वर्ग में इसी मानसिकता के तत्वों को हावी होने का अवसर प्रदान किया है, वहीं शांति व्यवस्था को भी बिगाड़ा हंै।
उत्तर प्रदेश में डेढ़ वर्ष में सवा सौ से अधिक ह्यदंगेह्ण हो चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हो रहे सांम्प्रदायिक दंगे थमने का नाम नहीं ले रहे है और बिहार पटना की हुंकार रैली में एक दर्जन से अधिक बम विस्फोट के बावजूद सरकार का आतंकवादियों के खिलाफ कार्यवाही में असहयोग बना रहना अपने आप मेंं एक प्रश्न चिन्ह खडा करता है । कांग्रेस को इस ह्यह्यबी टीमह्णह्ण से बड़ी उम्मीदें हैं। आखिर पिछले पांच वर्षों से कांग्रेस को केंद्र में सत्तारूढ़ रखने में तो यही टीम काम आई है। सेक्युलरिज्म के नाम पर सांप्रदायिकता के अतिरेक से समाज में एक नई जागृति भी पैदा हुई है। हमें तय करना है कि क्या उनका साथ देना है, जो महंगाई,भ्रष्टाचार और कुशासन पर परदा डालने के लिए इस चादर को ईद-गिर्द लपेटते जा रहे हैं या फिर जो सभी के हित की बात कर रहा है। दूसरा विकल्प लेागों को अब इसी कारण अधिक समझ में आन लगा है।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी के हाथ खाली?
पांच साल में दिखाने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी के पास एक भी उपलब्धि नहीं
2009 में मुम्बई हमलों के बाद आतंकी हमलों की जांच के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया था। तब सरकार को लगा था कि यह एजेंसी देश के लिए काफी महत्वपूर्ण सिद्घ होगी । लेकिन तब से अब तक 5 साल हो गए है, लेकिन इस एजेंसी के हाथ खाली हैं। एक तरीके से यह सफेद हाथी साबित हो रही है।
पंाच साल बीत जाने के बावजूद भी इस एजेंसी के पास दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है। अभी तक जांच एजेंसी ने आतंकी हमले का ऐसा एक भी मामला हल नहीं किया है, जिसे राज्य पुलिस हल नहीं कर सकती थी । भारत में सबसे अधिक आतंकी हमलों को अंजाम देने वाले इंडियन मुजाहिदीन के ज्यादातर आतंकियों की गिरफ्तारी दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ, मुम्बई पुलिस की अपराध शाखा के आतंकरोधी दस्ते ने की है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि इस एजेंसी के पास अधिकारी और कर्मचारियों की कमी है । इस एजेंसी के पास 60 मामलों की जांच के लिए 600 से अधिक अधिकारी हैं। यानी एक मामले की जंाच पर 10 अधिकारी कार्य कर रहे हैं।
जिन मामलों पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने आरोपपत्र दाखिल किया है उनमें असम के कुछ मामलों के साथ मालेगंाव, मक्का मस्जिद, समझौता एक्सप्रेस और अजमेर शरीफ के मामले हंै, जिनकी अधिकांश जांच पहले ही राज्य पुलिस पूरी कर चुकी थी। लेकिन ऐसे में सुरक्षा विशेषज्ञ राष्ट्रीय जांच एजेंसी बनाने के फैसले पर ही सवाल उठाने लगे हैं। ह्यपीस एण्ड कंफ्लिक्ट स्टडीजह्ण के निदेशक अजय साहनी के अनुसार 2009 में एजेंसी का गठन सरकार का एक दिखावा था। इसके गठन के बाद दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ और मुम्बई और बंेगलूरु पुलिस की एटीएस ने आईएम के दर्जनों आतंकियों को देशभर से गिरफ्तार किया। लेकिन राष्ट्रीय जांच एजेंसी के खाते में ऐसी कोई भी उपलब्धि नहीं है। जांच एजेंसी की हालत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि आईएम के सरगना यासीन भटकल से लगभग दो महीने की पूछताछ के बाद भी राष्ट्रीय जांच एजेंसी आतंकी संगठन के किसी बड़े आतंकी को गिरफ्तार करने में विफल रही।
हाल ही में राष्ट्रीय जांच एजेंसी की हालत और उसकी सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पटना धमाकों का आरोपी ही उसकी गिरफ्त से भाग गया, हांलाकि उसे बाद में कानपुर से गिरफ्तार कर लिया गया।
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