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पांच प्रतिशत शिया मतदाताओं की अवहेलना क्यों?

by
Nov 9, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Nov 2013 15:44:51

भारत में इन दिनों चुनाव का मौसम चल रहा है। पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव कुछ ही सप्ताह में समाप्त हो जाएंगे। उनके परिणाम आते ही 2014 के आम चुनाव का वातावरण अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाएगा। इस कड़वे सच को स्वीकार करना ही पड़ता है कि भारत के चुनाव में जाति व्यवस्था का बोलबाला रहता है। जहां जिस जाति के अधिक मतदाता होते हैं वहां का उम्मीदवार उसी जाति का खड़ा किया जाता है। सैद्धांतिक आधार पर हम कितनी ही पंथनिरपेक्षता की डीेंगे हांकें लेकिन उम्मीदवार का चयन जाति के आधार पर ही होता है। जाति धर्म पर आधारित होती है लेकिन हर जाति की पंचायत की व्यवस्था इतनी फौलादी शिकंजे में कसी होती है कि मतदाता अपनी जाति को ही आधार बना लेता है। जहां तक धर्म का सवाल है उसका मतदाता अपने-अपने मत-पंथ से बंधा रहता है। धर्म की दृष्टि से हिन्दू समाज सारे देश में फैला हुआ है। हर स्थान पर उसका बहुमत है लेकिन हिन्दू समाज की पहचान जाति पर ही आधारित है। जहां तक देश में धर्म का सवाल है हिन्दू समाज निरपेक्ष है लेकिन जाति का मामला सामने आते ही वह अपनी पहचान और अस्तित्व दोनों के लिए जाति को ही महत्व देता है। जाति के आधार पर जब से आरक्षण की व्यवस्था की गई है वह शिकंजा और अधिक मजबूत हुआ है। लेकिन मुस्लिम और ईसाई मत में ऐसा नहीं है। वहां केवल मजहब के नाम पर ही उसकी पहचान है।
जाति व्यवस्था की गहरी छाप
प्राचीन भारत के व्यवसाय जाति पर आधारित थे इसलिए उसका आर्थिक स्रोत सामाजिक व्यवस्था के रूप में जाति पर ही आधारित रहा है। इस्लाम और ईसाइयत भारत के बाहर से आए इसलिए उनकी पहचान केवल मजहब के नाम पर होती है। यद्यपि नागरिकता के आधार पर किसी नागरिक की पहचान होनी चाहिए लेकिन भारत में जाति और मजहब जीवन व्यवस्था के मुख्य अंग बन गए हैं। मुस्लिम बड़ी संख्या में हैं और उनका यहां मतान्तरण हुआ है इसलिए निजी जीवन एवं उनके व्यवसायों पर भारत की जाति व्यवस्था की ही गहरी छाप है। लेकिन आजादी के बाद उन्होंने अपनी मूल जाति के स्थान पर अपनी पहचान अपने मजहब से जोड़ दी। ईसाई समाज में भी लगभग ऐसा ही हुआ है। इसलिए जब चुनावों की शुरुआत हुई तो अपनी राजनीतिक पहचान उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत से जोड़ दी। यद्यपि मजहबी आधार पर भी वे अनेक पंथों में बंट गए। मुसलमान शिया-सुन्नी बन गए तो ईसाई कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के रूप में उनकी अलग-अलग पहचान है। वे जनसंख्या में कम होने के कारण अल्पसंख्यक बन गए। इनकी जनसंख्या भले ही कम हो लेकिन चुनावी गणित लगाते समय अब उनका भी अपना महत्व बढ़ गया है। कांग्रेस जैसे बड़े दल के लिए तो जाति के समान ही अल्पसंख्यक उसकी हार और जीत का सबसे ताकतवर माध्यम बन गया। कांग्रेस ने लम्बे समय तक देश पर राज किया है इसलिए चुनाव के मैदान में वे आज भी उसके लिए पारस पत्थर से कम नहीं हैं। लेकिन अल्पसंख्यकों में जिस प्रकार से राजनीतिक चेतना बढ़ रही है उस कारण उनके भीतर जो छोटे-छोटे पंथ हैं वे भी इस पर विचार करने लगे हैं कि राजनीतिक सौगातें उन्हें तो मिल जाती हैं लेकिन छोटे वर्ग और सम्प्रदाय उससे वंचित रह जाते हैं। ऐसी बेचैनी मुस्लिम समाज के शिया और अहमदिया पंथ में देखने को मिल रही है। अहमदिया पंथ को भले ही मजहबी आधार पर मुस्लिम नेता नकारते हैं लेकिन अंतत: उनके वोटों का लाभ भी तो बड़ी जमात को मिलता ही है। अहमदिया केरल, उड़ीसा और महराष्ट्र में बड़े पैमाने पर हैं। पंजाब का कादियान उनका जन्मस्थान है, इसलिए पंजाब की राजनीति में उनकी अच्छी पैठ है।
शिया-सुन्नी
मुस्लिम समाज दो बड़े धड़ों में बंटा हुआ है जिनमें सुन्नी सबसे अधिक संख्या में हैं और शिया दूसरे नम्बर पर। एक समय था कि शिया-सुन्नी दंगे विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के अवध प्रांत में बड़ी संख्या में हुआ करते थे। आज भी छुटपुट रूप से तो होते ही हैं। इस्लाम के अस्तित्व में आने के बाद वह शिया और सुन्नी पंथ में बंट गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह विभाजन अब भी देखने को मिलता है। अरब और ईरान के झगड़े बहुचर्चित रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज भी वे बने हुए हैं। सातवें दशक में इराक और ईरान का युद्ध दस वर्षों तक चलता रहा। इस्लामी देशों में आज भी शिया-सुन्नी का विभाजन बना हुआ है जिसके सहारे राजनीतिक उथलपुथल होती रहती है। भारत के मुसलमानों में भी यह लहर भीतर ही भीतर चलती रहती है। यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो परसनल ला बोर्ड का विभाजन नहीं हुआ होता। सुन्नी परसनल ला बोर्ड और शिया परसनल ला बोर्ड इसकी ताजा मिसाल है। अब महिला परसनल ला बोर्ड भी बन गया है। भारत में जब चुनाव का मौसम आता है तब भी यह छटपटाहट देखने को मिलती है। पिछले दिनों जयपुर में शिया समाज नामक संस्था के संस्थापक अध्यक्ष जफरूल हसन ने कहा कि चुनाव के बाद जो सरकारें बनती हैं उसका असली लाभ तो सुन्नी मुसलमानों को मिलता है और शिया सम्प्रदाय इससे वंचित रह जाता है। कोई भी राजनीतिक दल शियाओं को उनका हिस्सा नहीं देता। सुन्नी नेता समस्त मुस्लिम समाज के ठेकेदार बन जाते हैं। जफरूल हसन का कहना था कि भारत में मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिशत 17 बताया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं उनमें पांच से 6 प्रतिशत तो शिया हैं। क्या हमारे राजनीतिक दल शिया प्रतिनिधियों को उम्मीदवारी देते हैं? केन्द्र और राज्यों में अब तक कितने शियाओं को विधानसभा और लोकसभा में उम्मीदवारी दी गई? भारत में अब तक कितने शिया विधायक और सांसद बने। कितनों को राज्यपाल बनाया गया। भारत सरकार और राज्यों की उर्दू अकादमी, मदरसा बोर्ड, महिला आयोग, अल्पसंख्यक मंत्रालय और अल्पसंख्यक आयोग जैसी अनेक सरकारी संस्थाओं में उनको क्या उचित स्थान दिया गया? राजनीतिक दल अपने संगठनों में भी शिया प्रतिनिधियों को स्थान नहीं देते। शियाओं के वोटों का लाभ तो हर कोई उठाना चाहता है लेकिन उनको प्रतिनिधित्व नहीं देना चाहता। शिया तो अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक हैं लेकिन न तो किसी सरकार का और न ही किसी राजनीतिक दल का ध्यान उनकी ओर जाता है। सुन्नी जमात के नेता उनका राजनीतिक लाभ तो उठाते हैं। उनके वोटों पर वे अपने उम्मीदवारों को सफल बनवा देते हैं लेकिन इन पांच प्रतिशत वालों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखते। जबकि देश में शिक्षा का प्रतिशत सबसे अधिक है तो वह शियाओं में है। बोहरा और खेाजा जानी मानी व्यापारी बिरादरी है। इतना ही नहीं अजीम प्रेमजी जैसे अनेक उद्योगपति आपको शिया सम्प्रदाय में मिल जाएंगे। लेकिन उनकी हर कदम पर अवगणना होती है। 17 प्रतिशत वोट बैंक का आह्वान करके कौन लाभ उठाता है और राजनीतिक दल किसको लाभान्वित करते हैं वह चिंतन करने की आवश्यकता है।

निर्णायक भूमिका में
मौलाना जफरूल हसन का कहना था कि देश में 335 लोकसभा सीटों को शिया मतदाता प्रभावित करते हैं। दिल्ली में मुस्लिम मतदाताओं में 10 प्रतिशत शिया हैं। उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में दस लोकसभा एवं 23 विधानसभा सीटें हैं जो केवल शिया मतदाताओं की सहायता से ही जीती जा सकती हैं। लखनऊ, अमरोहा, जौनपुर, संभल, फैजाबाद और सुलतानपुर सीट शुद्ध रूप से शिया बहुल सीटें हैं। बिहार की पांच लोकसभा सीटें केवल शिया मतदान से ही जीती जा सकती है। वहां लगभग एक करोड़ शिया हैं। पटना और मुजफ्फरपुर अपनी शिया आबादी के लिए जाने जाते हैं। बंगाल में 35 सीटों पर शिया मतदाता हावी हैं। इनमें हुबली, 24 परगना, मुर्शिदाबाद और कोलकाता की गिनती होती है। जम्मू-कश्मीर की आठ सीटों में लद्दाख, कारगिल, जम्मू और श्रीनगर मुख्य हैं। वहां की कुल आबादी में 35 प्रतिशत शिया हैं। लद्दाख सीट का इन दिनों हसन खान नेतृत्व कर रहे हैं। मध्य प्रदेश में भोपाल, जबलपुर, रतलाम और इन्दौर सीट शिया बहुल है। राजस्थान की दस सीटों को शिया मतदाता प्रभावित करते हैं। इनमें अजमेर, जयपुर, उदयपुर और बांसवाड़ा प्रमुख हैं। गुजरात की 20 लोकसभा सीटों के मतदाता शिया मुस्लिम हैं। इनमें भावनगर, अमदाबाद, सूरत, राजकोट और मांडवी प्रमुख हैं। महाराष्ट्र की 20 लोकसभा सीटों में शिया मतदाता हैं। इनमें मालेगांव, मुम्बई, नागपुर और पुणे प्रमुख हैं। आंध्र की 35 सीटों में से पांच शिया बहुल हैं। इनमें हैदराबाद, सिकंदराबाद, नैल्लोर और मेहबूबनगर हैं। इसी प्रकार कर्नाटक की दस शिया बहुल सीटों में बेंगलुरु, अलीपुर, मेसूर, एलेनरसिंहपुर और करीमपुर का समावेश होता है। इसी प्रकार तमिलनाडु में कुल 39 में से शिया बहुल सीटों में बाकेराबाद, चेन्नई और बंगम्बदूर शामिल हैं। हरियाणा में डेढ़ लाख शिया हैं। इनमें फरीदाबाद, चंडीगढ़ और रबतीछपरा शामिल हैं। पंजाब में मालेरकोटला, चंडीगढ़, लुधियाना आदि में शिया वोट हैं। असम में दो प्रतिशत शिया हैं। झारखंड में रांची, उत्तराखंड में देहरादून, रूड़की और मसूरी, तो छत्तीसगढ़ में रायपुर, शहडोल और बिलासपुर अपनी शिया आबादी के लिए जाने जाते हैं। मौलाना हसन जफर का कहना था कि गोवा और केरल भी शिया आबादी से अछूते नहीं हैं। मौलाना का कहना था कि शिया जनसंख्या में बहुत बड़ा भाग व्यापारी, उद्योगपति एवं सरकारी कर्मचारियों का है। उनमें शिक्षा का प्रतिशत सर्वाधिक है। आजादी से पहले अनेक रियासतों में शिया समाज ही अधिकारियों की भूमिका निभाता था। इसलिए राजनीतिक दल यदि शिया मतदाताओं की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे तो निश्चित ही शिया समाज उनका आभारी रहेगा और राष्ट्र की प्रगति में उनके साथ अपना हाथ बंटाता रहेगा।ल्ल

वेबसाइट पर खुलेआम बिक रहा ह्यअखिलेश लैपटापह्ण
जिस बात का अंदाजा लगाया जा रहा था ठीक वही हुआ। उत्तर प्रदेश के मुयमंत्री अखिलेश यादव ने प्रदेश के छात्रों के मतों के लालच में इन्टर पास छात्रों को अंधाधुध लैपटाप वितरित किए थे। लेकिन उनकी इस ओर ध्यान नहीं गया कि जिन छात्रों को वह लैपटाप बांट रहे हैं उन्हें लैपटाप चलाना भी नहीं आता है। उसी का परिणाम है कि वह लैपटाप आज बाजार में बिकने के लिए तैयार हैं, क्योंकि जिन छात्रों को उसकी शिक्षा देनी चाहिए थी उसकी जगह उनको वही यंत्र थमा दिया गया, तो उसका दुरुपयोग तो होगा ही।
नि:शुल्क मिले लैपटाप के खरीदार तलाशने के लिए प्रदेश के विभिन्न स्थानों से छात्रों ने आनलाइन खरीद-फरोख्त करने वाली वेबसाइट पर इसके विज्ञापन अपलोड किए हैं। इन छात्रों ने सरकारी लैपटाप को ह्णअखिलेश लैपटापह्ण नाम दिया है। लैपटाप का यह विज्ञापन अपलोड किया गया है सामान की आनलाइन खरीद-फरोख्त करने वाली वेबसाइट ह्यओएलएक्स डॉट इनह्ण पर। यहां किसी को भी अपना सामान बेचने या खरीदने के लिए मुफ्त में विज्ञापन पोस्ट करने की आजादी है। इसी वेबसाइट पर हजरतगंज, लखनऊ और वाराणसी के छात्रों ने लैपटाप बेचने की इच्छा जताई है। हजरतगंज के छात्र अहमद ने 6000 रुपये बिक्री का मूल्य रखा है, तो वाराणसी के आरपी सोनू ने ह्यअखिलेश लैपटापह्ण की कीमत 15 हजार रखी है।
सिर्फ बेचने वाले नहीं, ह्यअखिलेश लैपटापह्ण की ऑनलाइन खरीद करने वालों की कमी नहीं है। ह्यओएलएक्सह्ण की वेबसाइट पर दो दर्जन से ज्यादा लोगों ने यही लैपटाप खरीदने के लिए विज्ञापन पोस्ट किए हैं।
नमाज के लिए बदला स्कूलों का वक्त
उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार व उनके चापलूस अधिकारी प्रदेश को इस्लामिक प्रदेश बनाने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में दिखा जहां नमाज के लिए स्कूलों का वक्त बदल दिया गया है। जिलाधिकारी  राजमणि यादव के आदेश से शुक्रवार को स्कूलों का समय बदल कर 7:30 से 12:30 बजे तक कर दिया है । यानी अन्य दिनों की अपेक्षा स्कूल 4 घंटे पहले ही बंद हो जाएंगे। यह बदलाव इसलिए किया गया है ताकि , मुस्लिम शिक्षक और छात्र नमाज पढ़ सकें। जिलाधिकारी का कहना है कि यह उन्होंने सरकार के एक पुराने आदेश के तहत किया है। उन्होंने 2004 में मुख्यमंत्री मु्लायम सिंह यादव के कार्यकाल के एक आदेश का हवाला दिया है, जिसमें शुक्रवार को स्कूलों का समय बदल दिया गया था। लेकिन पूरे प्रदेश में इस आदेश की भर्त्सना होने के बाद तब यह आदेश वापस लिया गया था।     

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