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बीज को हम जमीन में गहरे अंधकार में गाड़ देते हैं। और वहीं से उसमें पेड़ होने का बोध उत्पन्न होता है। वह अंकुरित होता है। पौधा बनता है… और फिर पेड़। पेड़ था लेकिन प्रकाश में बीज में पेड़ दिखाई नहीं दे सकता था। उसमें रूपान्तरण की प्रक्रिया उस घनघोर अंधेरे में शुरू होती है, जिसमें एक तरफ बीज मिटता है और दूसरी तरफ पेड़ बनने की प्रक्रिया की शुरुआत होती है।
हमारा जन्म भी नौ माह गर्भ में रहने के बाद ही होता है। यानी अमावस के बाद ही जन्म की प्रक्रिया शुरू होती है और हम अपनी आंखों से संसार देख पाते हैं। दीपावली का त्योहार अमावस की रात में आता है और यह रात समस्त सिद्धियों की रात मानी जाती है। हम अपने ज्ञान को जाग्रत करते हैं तो सिद्धियां स्वत: मिल जाती हैं। वे हैं, लेकिन हम उनसे अनजान रहते हैं, देख नहीं पाते। प्रकाश यानी ज्ञान हमें उनका परिचय देता है और हम उन्हें ग्रहण कर पाते हैं।
कोई त्योहार अगर आदमी की मौजूदा जरूरतों की कसौटी पर खरा न उतरे, तो अप्रासंगिक हो जाए। दीपावली हर साल आती है और हर बार नई सी लगती है। हममें कुछ नया जोड़ जाती है। हमारी प्रगति की निरंतरता, यही दीपावली का सार है। वह सिर्फ धन-वैभव ही नहीं, हमें सभ्यता और संस्कारों से भी सज्जित करती है। यह हमें देना सिखाती है।
दीपावली कार्तिक में ही क्यों
बारह राशियों में से छठी कन्या में से निकलकर सूर्य जब सातवीं तुला में पहुंचता है तो साल का उत्तरार्ध शुरू होता है। उसकी पहली अमावस्या ही दीपावली यानी रोशनी, नई शुरुआत, नवनिर्माण का त्योहार हो सकता है। इसी तरीके से साल के अन्त में भी मीन राशि के सूर्य के दौरान होली भी उपसंहार,साल के समापन या स्काउट वालों की तरह ह्यकैम्प फायरह्ण यानी फिर रोशनी के नवीकरण का पर्व होता है।
कालरात्रि नाम का रहस्य
भारतीय कालगणना में 14 मनुओं का समय बीतने पर प्रलय के बाद पुन: निर्माण, रचना, नई सृष्टि की शुरुआत इसी दिन हुई थी। इसीलिए नए सिरे से समय या काल की गिनती शुरू होने के कारण इसे कालरात्रि कहते हैं। कार्तिक से भी नए साल की शुरुआत होने की परम्परा गुजरात आदि प्रदेशों में आज भी जिन्दा है जो हमारी पुरानी प्रथा का ही अवशेष है। अत: नए साल की पहली रात होने से यह मुखरात्रि भी है।
पूजा का समय और क्रम
सूर्यास्त के समय से लेकर सारी रात में सुविधानुसार पूजन करना उचित है। कालरात्रि में नई सृष्टि के आरम्भ में मानो देवताओं द्वारा भावी संसृति की रूपरेखा तय करने के लिए लक्ष्मी गणेश के रूप में शक्ति और शक्तिमान् को दीपमाला जलाकर सबसे पहले पूजा जाता है। पूजा सामग्री धूप, दीप, दीपमाला, फल-मिठाई, फूल आदि जुटा लेने के बाद गणेश लक्ष्मी की सम्मिलित पूजा होती है। फिर नवग्रह, चौंसठ योगिनी, सोलह माताएं, वास्तु, ब्रह्मा विष्णु महेश की पूजा करनी चाहिए।
लक्ष्मी पूजन से पहले इस मन्त्र से कुबेरजी की पूजा करें-
धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च।
भवन्तु त्वत्प्रसादान्मे धनधान्यादिसम्पदरू।।
फिर दवात या कलम पर महाकाली की पूजा इस मन्त्र से करनी चाहिए-
ओं ऐं महाकाल्यै नम:।
पुस्तकों , बही खातों या अपने रोजी रोटी के साधन पर चाहे लेपटप ही क्यूं न हो, सरस्वती की पूजा करें। यह नमस्कार मन्त्र है-
ओं क्लीं सरस्वत्यै नम:।
तदनन्तर भगवान् विष्णु सहित लक्ष्मीजी की पूजा करें। इन मन्त्रों से तीन बार पुष्पांजलि अर्पित करें-
ऊॅं नमस्ते सर्वदेवानां वरदासि हरिप्रिये।
या गतिस्त्वत्प्रपन्नानां सा मे भूयावदर्चना।।
विश्वरूपस्य भार्यासि पद्मे पद्मालये शुभे।
सर्वतरू पाहि मां देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तु ते।।
धन तेरस में कितना धन?
साफ-सफाई के उपरान्त घर की सारी गन्दगी साफ होने के बाद घर के बाहर यमराज के लिए दीपक जलाए जाते हैं। यहीं से दीपदान की परम्परा शुरू होती है। वेदों में गन्दगी अलक्ष्मी और स्वच्छता लक्ष्मी कही गई है। अत: अलक्ष्मी के निस्तारण के बाद लक्ष्मी का स्वागत करना धनतेरस की मुख्य क्रिया है। अतरू यह तिथि लक्ष्मी या धन से खुद ब खुद जुड़ जाती है। टूटे-फूटे सामान के स्थान पर नए घरेलू सामान खरीदने के पीछे भी यही रहस्य है। साथ ही आयुर्वेद के प्रवर्तक धन्वन्तरि जी का प्रकट उत्सव होने के कारण धन्वन्तरि जयन्ती के कारण भी इसे धनतेरस कहते हैं।
छोटी दीवाली या
नरक चौदस
इस दिन विष्णु जी ने नरकासुर यानी गन्दगी के राक्षस का वध किया था। यह राक्षस वास्तव में हमारी जीवन शैली का अवशेष ही है, जिसे बार-बार समाप्त करना ही पड़ता है। इसी हकीकत की पौराणिक स्मृति को ताजातरीन करने के लिए दीपोत्सव के रूप में छोटी दीवाली यानी नरक चौदस मनाकर हम अपने तन-मन, घर और पास-पड़ोस की सफाई की परम्परा और अनिवार्यता को ही रेखांकित करते हैं।
हनुमान जयन्ती
इस बारे में दो परम्पराएं हैं। एक प्रथा के अनुसार छोटी दीवाली के दिन ही हनुमान जयन्ती मनाई जाती है। दक्षिण भारतीय परम्परा में इसे चौत की चौदस को मनाते हैं।
अन्नकूट या गोवर्धन
कृषिप्रधान भारत में इस समय गन्ने और चावल की फसल तैयार हो रही होती है। हिन्दुस्थानी परम्परा में पहला अनाज भगवान् और राजा को अर्पण किया जाता है। इसी उपलक्ष्य में अन्न का ढेर बनाकर उसकी पूजा करना और कृषि की धुरी गाय और बैल का सम्मान करना ही अन्नकूट है।
इस दिन भगवान् कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर किसान व गोपालकों और उनकी सम्पत्ति की रक्षा की थी, इसलिए यह गोवर्धन यानी पशुपालन संवर्धन का त्योहार भी है।
भैया दूज बनाम यमद्वितीया
समाज में पशुओं की तरह के स्वेच्छाचारी काम सम्बन्धों और रिश्ते नातों को अनुशासित करने के लिए विवाह संस्था की शुरुआत की गई है। सभ्यता के आदिम युग में जब सारे रिश्ते पुरुष और स्त्री पर ही समाप्त होते थे तब वैदिक कथा के अनुसार यमी ने अपने भाई यम से विवाह प्रस्ताव रखा था, जिसे उनके पिता सूर्य यानी सृष्टि के प्राणविधाता की आज्ञा से भावी पीढि़यों को शिक्षित करने के लिए यम ने साफ ठुकरा कर भाई-बहन के रिश्ते की बन्दिशों को स्थापित किया था। इसी की याद में यह भ्रातृद्वितीया, भैया दूज या यमद्वितीया का पर्व मनाया जाता है।
मिठाई बांटने का रहस्य
कहा गया है कि इस अवसर पर खाद्य पदार्थो को अपने मान्य जनों, प्रियजन, परिजन, पुरजनों और सेवकों, वेतनभोगी सहयोगियों को बंटे बिना स्वयं खाना पाप है।
दीए जलाने की विधि
दीपक जलाने में घी, तिल तेल, सरसों का तेल या कोई भी खाद्य तेल सुविधानुसार प्रयोग कर सकते हैं। दीपक का पात्र भी सोना, चांदी, पीतल, कांसा, धातु, लकड़ी या मिट्टी का हो सकता है। बत्ती रूई या कलावे की होना उचित है।
कपड़े या कागज की झण्डियों और फूलों की सजावट, दीपकों का पिरामिड भी बना सकते हैं।
खील बताशे की अनिवार्यता
हम जानते हैं कि धान ही एकमात्र ऐसा अन्न है जिसकी पौध एक खेत में तैयार करने के बाद उसे पुन: दूसरे खेत क्यारी में रोपा जाता है। यह निर्माण और ध्वंस के बाद पुनर्निर्माण का द्योतक है। अत: धन हो या धान, उसे यदि चलायमान न किया जाए तो वह निष्फल हो जाएगा। उसकी पूरी खिलावट, उन्नति और बढ़वार के लिए उसे अदल बदल करना ही होगा। वेदों में भुने धान की खील को लक्ष्मी और गणेश का सर्वप्रिय धान्य कहा गया है। कालरात्रि दीवाली पर सबसे पहली फसल धान और ईख की ही होती है, अत: गुड़ और धान (खील) को ऋग्वेद में सबसे पहली फसल के रूप में स्थापित कर उसे ही आदिदेव और उसकी शक्ति को नैवेद्य चढ़ाने का विधान है। ल्ल
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