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देश के प्रहरियों की प्रेरक दास्तान

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Oct 19, 2013, 12:00 am IST
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सुस्थापित धारणाओं पर साहस भरे प्रहार

दिंनाक: 19 Oct 2013 14:12:25

 

कथानक किसी चित्रकथा सा, विषय पाठकों को खींचने में सक्षम और अनुवाद ऐसा जो किरकिराहट पैदा ना करे। पैट्रिक फ्रेंच लिखित और सुशांत झा द्वारा अनूदित ह्यभारत-एक तस्वीरह्ण कुछ ऐसी ही किताब है। भारत की शक्ति को पहचानती, बाधाओं को टटोलती और संभावनाओं का उद्घोष करती पुस्तक।
लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच की पहचान विस्तृत विषयों पर कलम चलाने वाले ऐसे गंभीर लेखक की है जो पाठक की नब्ज पकड़ना जानते हैं। भरपूर तथ्य और संदर्भ देते हुए भी विषय को बोझिल ना होने देना उनकी विशेषता है। 1997 में भारत बंटवारे पर लिखी उनकी पुस्तक ह्यलिबर्टी ऑर डेथह्ण काफी चर्चित रही। इंडिया ए पोर्टेट का हिन्दी अनुवाद यानी ह्यभारत एक तस्वीरह्ण उसी श्रृंखला की अगली पुस्तक है जो भारत को और गहरी नजर से देखती है। यह पुस्तक रक्त-रंजित विभाजन के बाद राख और धुंधलके से उठ खड़े हुए एक ऐसे राष्ट्र की विस्मयकारी कहानी है जिसकी जिजीविषा और क्षमताएं अतुलनीय हैं। राष्ट्र, लक्ष्मी और समाज शीर्षक से तीन भागों और बारह उपशीर्षकों में बंटी यह पुस्तक भारत के गठन से उठान तक की कहानी क्रमवार कहती है और परत दर परत गहराई में जाती है।
कहानी में चांदनी चौक के गली कूचों तक की राजनीतिक पदयात्राएं भी हैं और सिलिकॉन की चमक से चौंधियाते बेंगलुरू की सिलवटों में बसे उन प्रवासी मजदूरों का दर्द भी जिनका जिक्र ठेकेदारों की बहियों से बाहर नहीं आता। यहां आपको खदानों के बाहर जंजीरों से बंधे प्रताडि़त दास भी दिखेंगे और ऐसी विषम परिस्थितियों से लड़ते हुए अमेरिका में याहू के दफ्तर की ऊंची कुर्सियों तक बढ़ निकले वंचित वर्ग के वंशज भी। राजनैतिक दलों में वशंवाद के बीज, समाज की ताकत, जातियों का जंग, भ्रष्टाचार की घुन, अर्थनीति के गड़बड़झाले और इस सबके बाद भी भारत की वैश्विक पहचान, क्षितिज की संभावनाओं का साफ चित्र यह किताब दिखाती है।
समाजवाद या पूंजीवाद, विकास के आयातित मॉडल पर चलते हुए नीति निर्माताओं की समझ और व्यवस्थागत भ्रष्टाचार ने कैसे इस देश को चोट पहुंचाई। पुस्तक इन बातों को तटस्थ भाव से पाठकों के सामने रखती है। ह्यसन 1978-79 में कोल इंडिया लिमिटेड का घाटा 25 करोड़ 80 लाख डॉलर के बराबर था। किसी एक कंपनी में महज एक साल में इतना बड़ा घाटा भारत की पांचवीं पंचवर्षीय योजना की सारी कल्याणकारी योजनाओं और सारी पोषण संबंधी योजनाओं के बराबर था।ह्ण पृष्ठ-198 इसी कड़ी में पैट्रिक जब कोयला खदानों में भ्रष्टाचार की कालिख के चुर्चा कोलियरी जैसे किस्से (जहां दिनदहाड़े पूरी कन्वेयर बेल्ट ही गायब हो गई थी) कहते हुए संसद के सवाल-जवाबों का उल्लेख करते हैं तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर लगे आरोपों के ताजा संदर्भ कौंध जाते हैं।
स्वरचित इतिहास की अचकन ओढ़, संभ्रांति के गुलाब सूंघते हुए सच कहा या भ्रांतियां रचीं, पुस्तक स्थापित व्यक्तित्वों की ऐसी सुस्थापित धारणाओं पर भी साहस भरे प्रहार करती है।
पृष्ठ 38 पर पैट्रिक कहते हैं-ह्यएक एकीकृत समाज को बनाए रखने के लिए नेहरूवादी सेक्यूलर धारा जो प्रभावशाली रूप में इतिहास का एक छद्म या अति आकलन था, देश का आधिकारिक दृष्टिकोण बन गया।ह्ण
ह्यजब फ्रांसीसी लेखक आंद्रे मॉलेरो ने उम्र के अंतिम दिनों में पहुंच चुके अनिश्वरवादी नेहरू से पूछा कि उनके लिए सबसे कठिन काम कौन सा था तो नेहरू का जवाब था, ह्यएक धार्मिक देश में एक सेकुलर राज्य का निर्माणह्ण
कुछ ऐतिहासिक संदर्भों को हटाना या उसे अलग तरह से पेश करना जरूरी समझा गया। ऐसा कहना जरूरी समझा गया कि पिछली शताब्दियों में भारत पर मुसलमानों का आक्रमण एक लेन-देन की प्रक्रिया का हिस्सा था। यह राजनैतिक जमीन को हासिल करने की ऐसी प्रतिस्पर्धा थी जिसने भारत को नई पाक कलाएं और संगीत दिए और हिन्दू बहुसंख्यकों पर कोई वास्तविक प्रभाव नहीं डाला।ह्ण पृष्ठ-35-36
पैट्रिक तथ्यों का तरकश सजाते हैं, आभासी अभेद्य आभा से मंडित महारथियों के कवच की परवाह ना करते हुए संदर्भों की झड़ी लगा देते हैं और यह सब वे इस कुशलता से करते हैं कि विषय कटता नहीं और गति बनी रहती है। किसी इतिहासकार लेखक से  इतनी सरसता की आशा आमतौर पर पाठक नहीं करते इसलिए यह पुस्तक विशेष हो जाती है।
पैट्रिक एक परेशान हाल लद्दाखी ग्रामीण से बातचीत करते हुए शुरू हुई इस किताब का अंत आधारकार्ड बनाने वाली टीम के एक तकनीकविद् से बातचीत करते हुए करते हैं और बातों ही बातों में पूरी भारत यात्रा करा देते हैं।
संक्षेप में कहें तो- संघर्ष में लहूलुहान परंतु धीरे-धीरे शक्ति अर्जित करते किसी ऐसे राष्ट्रयोद्धा की सी कहानी जिसने हर-बाधा को पार कर विश्व में अपनी पताका फहराने का निश्चय कर लिया और इस प्रण के बाद जिसके सामने वैश्विक संभावनाओं का अनंत आकाश खुलता गया। आलोचकों, शोधार्थियों और संदर्भ सहेजने वाले जिज्ञासु पाठकों के लिए काम की किताब। हालांकि भारत के पौराणिक-सांस्कृतिक ज्ञान को खंगालने में लेखक चूक गए हैं। हितेश शंकर

पुस्तक का नाम – भारत एक तस्वीर
लेखक   –    पैट्रिक फ्रैंच
प्रकाशक  –  पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि.
  11कम्युनिटी सेंटर
  पंचशील पार्क
  नई दिल्ली-17
पृष्ठ   –   546
मूल्य   – 350 रु.

 

इस देश का गौरवमयी इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब भारत मां की आन-बान और शान पर किसी दुश्मन की नापाक नजरें पड़ीं, तो उसके सपूतों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी मातृभूमि की रक्षा की। ब्रिटिश शासन से मुक्ति मिलने के बाद भी कई ऐसे मौके आए जब पड़ोसी देशों ने भारत की सरहदों पर कब्जा करने की कोशिश की। लेकिन वीर सैनिकों ने उनके इरादों को पूरा नहीं होने दिया।  1962  में चीन ने भी ह्यहिन्दी-चीनी भाई-भाईह्ण की आड़ लेकर भारत के उत्तरी और उत्तरी पूर्वी सीमाओं में घुसने की कोशिश की थी। उनके हमले का उचित जवाब देने के लिए अनेक भारतीय रणबांकुरों ने अपनी जान गंवाईं और दुश्मन के पांव भारत भूमि पर आगे नहीं बढ़ने दिए। 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के दौरान अदम्य साहस और वीरता का परिचय देने वाले 2 सेनानियों की वीरगाथा को शिवकुमार गोयल ने ह्यहिमालय के प्रहरीह्ण पुस्तक में संकलित किया है। हालांकि यह पुस्तक अब से 50 वर्ष पहले प्रकाशित हो चुकी है, लेकिन हाल ही में इसका नया संस्करण प्रकाशित होकर आया है।
हालांकि इस पुस्तक में हिमालय की चीनी आक्रमणकारियों से रक्षा करने वालों में सबसे पहले सेनापति जोरावर सिंह का जिक्र किया गया है। जो कश्मीर के राजा गुलाम सिंह के सेनापति थे और वर्ष 1834 में उन्होंने चीनी लुटेरों से लद्दाख की  रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इसके बाद के पुस्तक में संकलित सभी 12 सेनापतियों ने 1962 लड़ाई में चीनी आक्रमणकारियों से मोर्चा लिया था। हालांकि इन सभी सौनिकों ने अलग-अलग स्थानों पर चीनी आक्रमणकारियों से मोर्चा लिया था और दुश्मन के दांत खट्टे किए थे, लेकिन एक बात जो सभी में एक समान है कि इन सभी ने भयानक विषम परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी और अपने प्राणों की परवाह किए बगैर देश की रक्षा की। फिर वह चाहे सुबेदार जोगिरा सिंह थे, मेजर गौतम सिंह थे, लेफ्टिेंनेंट श्यामल देव गोस्वामी या फिर ब्रिगेडियर होशियार सिंह थे। सभी ने अंतिम सांस और अंतिम गोली तक संघर्ष किया था। पुस्तक में अभय सिंह जैसे जुझारू और जुनूनी सिपाही की दास्तान भी दर्ज है, जो गोलियां खत्म होने पर राइफल की संगीन लेकर ही दुश्मन पर टूट पड़े थे।
इनके अलावा इस पुस्तक में मेजर धन सिंह थापा, सूबेदार जोगिंदर सिंह, सिपाही उग्गम सिंह चौहान, हवलदार स्वरूप सिंह, मेजर अजीत सिंह, सिपाही काशीराम, सिपाही केवल सिंह, और राइफलमैन यशवंत सिंह रावत की भी वीर गाथाएं मौजूद हैं। इनमें से कुछ को बाद में परमवीर चक्र और महावीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। हालांकि कुछ प्रसंगों में एक ही तरह की भाषा और वाक्यों का प्रयोग किया गया है लेकिन फिर भी भाषा सहज और बोधगम्य है। यह पुस्तक वैसे तो देश के हर नागरिकों को पढ़नी चाहिए लेकिन विशेष रूप से बच्चों और युवाओं के लिए यह बहुत             उपयोगी है।

पुस्तक का नाम – हिमालय के प्रहरी
लेखक   –     शिव कुमार गोयल
प्रकाशक  –  अनिल प्रकाशन
  26/9, न्यू मार्केट
  नई सड़क, दिल्ली-06
पृष्ठ   –   63
मूल्य   – 100 रु.

 

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