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चुनाव आयोग ने उत्तर भारत के पांच राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम) के विधानसभा चुनाव की तिथियां घोषित करके आगामी लोकसभा चुनाव के महाभारत युद्ध का उद्योग पर्व आरंभ कर दिया है। इन विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव के रिहर्सल के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि मिजोरम के अतिरिक्त सभी चारों राज्यों में भाजपा और सोनिया कांग्रेस के बीच मुख्य टक्कर है और ये ही दोनों केन्द्र में सत्ता के लिए मुख्य दावेदार हैं। पर, दिल्ली में एक नया राजनीतिक दल-आम आदमी पार्टी ह्यआपह्ण के नाम से ह्यझाडृूह्ण का चुनाव चिन्ह लेकर मैदान में कूद पड़ा है। उन्होंने दिल्ली विधानसभा की सभी 70 सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने का निश्चय घोषित किया है और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 57 नामों की विधिवत घोषणा भी कर दी है। इस नयी पार्टी का नेतृत्व जिस छोटे ग्रुप के हाथ में है-उसमें अरविंद केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, गोपाल राय और शाजिया हल्मी जैसे लोग हैं। ये सभी लोग राजनीतिक दृष्टि से बहुत जागरूक, जानकार, विचारवान, आदर्शवादी, संगठन कुशल व संकल्पबद्ध व्यक्तियों की छवि रखते हैं। ये सभी चेहरे अप्रैल से अगस्त 2011 तक राजधानी दिल्ली में ह्यइंडिया अगेंस्ट करप्शनह्ण भ्रष्टाचार विरुद्ध भारत के द्वारा आयोजित आंदोलन में से उभर कर देश के सामने आये। तभी देश ने उन्हें जाना और पहचाना था।
शिखर पुरुष
भले ही वह आंदोलन ह्यभ्रष्टाचार विरुद्ध भारतह्ण की पताका के नीचे खड़ा हुआ था पर उसका केन्द्र बिन्दु और शिखर पुरुष अण्णा हजारे थे इसलिए उसे अण्णा आंदोलन के नाम से ही भारत और पूरे विश्व ने जाना था। 5 से 8 अप्रैल 2011 दिल्ली के जंतर मंतर परिसर में अण्णा के नेतृत्व में प्रवर्तित इस यज्ञ के प्रथम चरण के तुरंत बाद 14 अप्रैल को हमने लिखा था, ह्य5 अप्रैल की प्रात:काल तक कौन कल्पना कर सकता था कि कोई एक व्यक्ति, जिसका नाम महाराष्ट्र के बाहर इने गिने सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के अलावा कोई नहीं जानता था, अनशन की घोषणा करके जंतर-मंतर पर धूनी रमा देगा और उसका अनशन पूरे भारत में लोक जागरण और उत्साह की अद्भुत लहर खड़ी कर देगा, सभी टेलीविजन चैनलों और अखबारों पर पूरी तरह छा जाएगा। ट्विटर, फेसबुक और मोबाइल जैसे नवीनतम संचार माध्यम उस अनशन के प्रचार में जुट जाएगा। भारत के भविष्य के लिए चिंतित प्रत्येक अंत:करण उस अनशन के समर्थन में आवाज उठाने के लिए सशरीर जंतर-मंतर पहुंचकर इस महायज्ञ में अपनी उपस्थिति की आहुति देने को उत्सुक होगा…भारत भर के अनेक नगरों-कस्बों में प्रदर्शन आयोजित होंगे।ह्ण (पाञ्चजन्य 24 अप्रैल, 2011)
16 अगस्त 2011 से उस आंदोलन के द्वितीय चरण में 18 से 28 अगस्त तक रामलीला मैदान में दिखायी दिये उसके विराट रूप का वर्णन हमने 18 अगस्त 2011 को भारत के नियति पुरुष बने अण्णा शीर्षक इन शब्दों में किया था, 'इस समय स्थिति यह है कि पूरे भारत की जुबान पर सिर्फ अण्णा का नाम है। प्रत्येक युवा, महिला, वृद्ध कह रहा है कि मैं अण्णा हूं, मैं अण्णा हूं, मैं अण्णा हूं। अण्णा का यह विराट रूप भारत की लोकतांत्रिक चेतना और एकात्म राष्ट्र भावना का साक्षात्कार कर रहा है। (पाञ्चजन्य 28 अगस्त, 2011)
1 सितम्बर 2011 के 'अण्णा आंदोलन के दर्पण में राष्ट्रवाद' शीर्षक लेख में हमने यह भी कहा था, एक ओर अकेले नियति पुरुष अण्णा और 5-7 अनजाने चेहरों की उनकी टीम, दूसरी ओर सर्वशक्तिमान सरकार, संसद की सर्वोपारिता की दुहाई देता स्वयं को भारत की 121 करोड़ जनता का निर्वाचित प्रतिनिधि कहने का दंभ पाले पूरा राजनेता वर्ग।..इस आंदोलन ने प्रमाणित कर दिया है कि स्वाधीन भारत के 64 वर्ष लम्बे भटकाव के बाद भी राष्ट्रवाद की प्राणधारा सूखी नहीं है। वह भारत के अवचेतन मानस में प्रवाहमान है। उसको ऊपर लाने के लिए किसी शुद्धात्मा के नैतिक स्पर्श की प्रतीक्षा मात्र थी, अण्णा के माध्यम से वह चमत्कार घटित हुआ है। पाञ्चजन्य (11 सितम्बर, 2011) उस समय हरेक सिर पर सफेद टोपी पर लिखा था, ह्यमैं भी अण्णा, तू भी अण्णाह्ण भारत माता की जय, वंदेमातरम्। अण्णा तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। (पाञ्चजन्य वही)। इस लेख में जिन 5-7 अनजाने चेहरों की टीम का उल्लेख है, यही वह टीम है जो इस समय ह्यआम आदमी पार्टीह्ण का नेतृत्व कर रही है।
नैतिक शक्ति
इसी टीम ने अण्णा की नैतिक शक्ति को पहचानकर उन्हें महाराष्ट्र तक सीमित अज्ञात साधना से बाहर निकालकर दिल्ली के रंगमंच पर प्रतिष्ठित किया और उनकी नि:स्वार्थ, रचनात्मक, राष्ट्र समर्पित छवि का पूरा लाभ उठाकर उस विशाल आंदोलन का सृजन किया। अण्णा की देव प्रतिमा जैसी छवि को सामने रखकर इस टीम ने अपनी संगठन क्षमता से भ्रष्टाचारी राजनीति के विरुद्ध जनाक्रोश के एक संगठित आंदोलन का रूप प्रदान किया। किंतु अण्णा की प्रेरणा को उन्होंने पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। यद्यपि अण्णा और यह टीम दोनों ही व्यवस्था परिवर्तन की बात करते रहे। एक तरफ अण्णा जंतर मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक लगातार एक ही बात कहते रहे कि व्यवस्था परिवर्तन का एकमेव मार्ग गांव-गांव जाकर रचनात्मक कार्य के द्वारा समाज को संगठित करके सामाजिक सहभागिता के द्वारा ही बनाना होगा। पर अरविंद केजरीवाल की यह टीम हमेशा राजनीति में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करके ही व्यवस्था परिवर्तन की कल्पना करती रही। अरविंद केजरीवाल की मूल प्रवृत्ति राजनीतिक है यह तो हरियाणा के हिसार लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव में हस्तक्षेप की उनकी उतावली से प्रगट हो गया था। इस टीम की प्रामाणिकता, समाजनिष्ठा और भ्रष्टाचार विरोधी संकल्प के प्रति अविश्वास का कोई कारण अभी नहीं है पर प्रश्न भ्रष्टाचार मुक्त समाज के निर्माण के सही मार्ग का है। अपने राजनीतिक सोच के कारण ही उन्होंने यह मान लिया था कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल और संसद के ऊपर एक सर्वाधिकार सम्पन्न लोकपाल की स्थापना हो जाने मात्र से भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण हो जाएगा। इसीलिए उन्होंने पूरे आंदोलन का अंतिम लक्ष्य संसद द्वारा उनकी कल्पना के लोकपाल विधेयक को पास कराना घोषित कर दिया। उन्होंने चुनाव प्रणाली की धुरी पर घूमने वाली राजनीतिक प्रणाली की सीमाओं, आवश्यकताओं और बाध्यताओं के यथार्थ को समझने का कभी प्रयास ही नहीं किया। जबकि अण्णा की दृष्टि प्रारंभ से अंत तक ग्राम स्तर तक रचनात्मक कार्य और लोक जागरण पर केन्द्रित रही।
अखबारी प्रचार
अण्णा की नैतिक शक्ति और लोकप्रिय छवि इस बात पर केन्द्रित थी कि उन्होंने महाराष्ट्र के एक अति पिछड़े गांव रालेगण सिद्धि में आर्थिक, नैतिक, सामाजिक और शैक्षिक विकास का एक मॉडल खड़ा किया, सेना से निवृत्त होने के बाद स्वा.विवेकानंद की प्रेरणा लेकर अपना पूरा जीवन समाज सेवा के लिए अर्पित कर दिया। विवाह नहीं किया, घर नहीं बनाया, गांव के मंदिर को ही अपना घर बनाया, जमीन पर चटाई को बिछौना बनाया। वे राजनीतिक महत्व या अखबारी प्रचार के पीछे नहीं दौड़े, अज्ञातवास का जीवन जीते रहे। इसका श्रेय अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी को जाता है कि उन्होंने अण्णा की नैतिक शक्ति के जनमानस पर प्रभाव को पहचानकर उन्हें दिल्ली के रंगमंच पर उतार दिया और उनकी लोकप्रियता का पूरा दोहन कर लिया।
अण्णा ने कभी विचारक और वक्ता होने का दावा नहीं किया। राजनीतिक दांव पेंचों से वे पूरी तरह शून्य हैं। अत: उनके भोलेपन का दुरुपयोग समय-समय पर होता रहा है। केजरीवाल द्वारा संगठित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भी उनका उपयोग मुखौटे की तरह किया गया। अब केजरीवाल अण्णा के रास्ते से अलग होकर पूरी तरह राजनीति के रास्ते पर चल पड़े हैं। जिन किरण बेदी ने प्रारंभिक वर्षों में केजरीवाल के साथ पूरे भारत का दौरा किया, जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर मंच संभाला वे भी अब केजरीवाल से बहुत दूर चली गयी हैं।
अण्णा आंदोलन के भीतर पैदा हुए इस युद्ध के लक्षण बहुत पहले से दिखायी देने लगे हैं। 13 अक्तूबर, 2011 को अण्णा आंदोलन दोराहे पर? शीर्षक लेख में हमने इस युद्ध का चित्रण किया था। वोट और दल की राजनीति का विकल्प ढूंढने के लिए प्रारंभ किये गये लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के राजनीतिक अपहरण का उदाहरण देकर हमने लिखा था, ह्यइंदिरा गांधी ने बड़ी चतुराई से उन्हें चुनाव युद्ध में शक्ति परीक्षण की चुनौती दे डाली और प्रतिक्रिया के किन्हीं क्षणों में जे पी ने उस चुनौती को स्वीकार कर लिया। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर दिल्ली में विभिन्न दलों के 50 नेताओं की बैठक बुलाई। संपूर्ण क्रांति आंदोलन समाज परिवर्तन की पटरी से उतरकर चुनाव राजनीति की भंवर में फंस गया। जे पी की त्याग तपस्या का परिणाम यह तो हुआ कि उनके कंधे पर चढ़कर सत्ता के भूखे राजनेता सत्ता के बेर खाने में सफल हो गये, पर उन बेरों को खाने के लिए जो छीना झपटी मची, उसमें जे पी अकेले एक कोने में उपेक्षित पड़े रह गये और सत्तालोलुप राजनेता आपस में लड़ मरे। स्वाधीन भारत का एक महान प्रयोग असमय ही काल कवलित हो गया। क्या अण्णा आंदोलन की नियति भी यही होने वाली है? अण्णा पक्ष के कर्णधार यह क्यों सोचते हैं कि वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व उनकी कल्पना का जन लोकपाल बनाकर राजनीतिक आत्महत्या स्वीकार कर लेगा? वे यह क्यों भूल रहे हैं कि संकट राजनीतिक नेतृत्व या विचारधारा का नहीं है, उस राजनीतिक प्रणाली का है जो भ्रष्टाचार की जननी है, जो प्रचार और नाटकीय प्रदर्शन पर आश्रित है। इस प्रणाली के भीतर से उभरे सभी राजनीतिक दलों का चरित्र समान है, वे एक ही राजनीतिक संस्कृति के अनुगामी हैं।ह्ण(पाञ्चजन्य 23 अक्तूबर, 2011) उस लेख में हमने पुन: अण्णा के मूल चिंतन का स्मरण दिलाते हुए लिखा था, 'अण्णा प्रारंभ से कहते आ रहे हैं कि जन लोकपाल पहला कदम है, आखिरी मंजिल नहीं है। आखिरी मंजिल तो सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन है। ग्राम सभा आधारित विकेन्द्रीत रचना खड़ा करना है, वे यह भी कहते हैं कि यह आंदोलन अण्णा का आंदोलन नहीं है, युवा पीढ़ी का आंदोलन है।ह्ण(पाञ्चजन्य वही)
कैसी विडम्बना
कैसी विडम्बना है कि जो हश्र जे पी आंदोलन का हुआ, वही हश्र अण्णा आंदोलन का होता लग रहा है। केजरीवाल-मण्डली ने अपनी संगठन कुशलता के बल पर अण्णा आंदोलन का राजनीतिक अपहरण कर लिया है। उस आंदोलन ने भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने के लिए संकल्पबद्ध युवा पीढ़ी को आम आदमी पार्टी के नाम से बटोर लिया है। उन्हें स्वप्न दिखाया है कि यदि हम दिल्ली में सत्ता में आ गये तो 29 दिसंबर को रामलीला मैदान पर विशाल जनसभा करके जन लोकपाल बिल पास करा देंगे। बेचारे भावुक युवा मन को इस गर्वोक्ति की संवैधानिक और व्यावहारिक कठिनाइयों की शायद समझ नहीं है।
पर यहां प्रश्न खड़ा होता है कि केजरीवाल मंडली ने पांच राज्यों में से केवल दिल्ली राज्य को ही क्यों चुना है? इसके पीछे उनकी रणनीति क्या है? उनका दावा है कि आम आदमी पार्टी का संगठनात्मक ढांचा पूरे देश में फैल गया है। 12 राज्यों और 350 जिलों में उनकी इकाइयां गठित हो चुकी हैं। उनकी 23 सदस्यों वाली राष्ट्रीय कार्य समिति में पूरे देश का प्रतिनिधित्व है। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि दिल्ली में ही अण्णा आंदोलन का कई महीनों तक एकमात्र मंच बना रहा। इसलिए दिल्ली की युवा पीढ़ी और मध्यम वर्ग पर उसका व्यापक प्रभाव हुआ है। पूरे राजनीतिक वर्ग के प्रति इस विशाल वर्ग की वितृष्णा का दोहन करना सरल है। इसलिए वे पूरे देश से यहां तक कि विदेशों से भी उन युवाओं को दिल्ली में जुटा रहे हैं जो परिवर्तन चाहते हैं। केजरीवाल ने टाइम्स नाऊ चैनल पर गर्वोक्ति की कि उनके 7000 कार्यकर्त्ता दिल्ली में काम कर रहे हैं। एक सूत्र ने बताया कि अकेले इंदौर से 300 कार्यकर्त्ता आये हैं। पर, कार्यकर्त्ताओं की इस विशाल फौज को रहने, खाने, और इधर-उधर जाने की सुविधा के लिए साधन कहां से जुटाये जाएंगे? केजरीवाल मंडली अभी तक इस राजनीतिक प्रणाली का सीधा अंग नहीं बनी है। इसलिए वह स्वयं को दागमुक्त कहने का दावा कर सकती है। पर वह भूल जाती है कि ऐसे राजनेताओं की संख्या कम नहीं है जो प्रारंभ में घोर आदर्शवाद, सिद्धांतनिष्ठा व निष्कलंक छवि लेकर राजनीति में उतरे या भेजे गये किंतु चुनावी राजनीति की आवश्यकताओं ने किस प्रकार उन्हें धीरे-धीरे बदलकर आज की स्थिति में पहुंचा दिया, उसी स्थिति में केजरीवाल मंडली नहीं पहुंचेगी यह दावा मिथ्या कथन होगा। अभी तो यह प्रचार करना सरल है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। ऐसे प्रचार के द्वारा कुछ वोट अवश्य जुटाये जा सकते हैं किंतु किसी भी सर्वेक्षण ने दिल्ली विधानसभा में आप पार्टी को नौ से ज्यादा सीटें नहीं दी हैं। अत: आप के सत्ता में आने की संभावनाएं तो दूर-दूर तक नहीं हैं। पर कांग्रेस का खेमा आप पार्टी के मैदान में आने से बहुत प्रसन्न है। उनका कहना है कि कांग्रेस के विरुद्ध जो व्यापक जनरोष है वह भाजपा के खाते में जाने के बजाए आप के खाते में चला जाएगा। जिसका फायदा सिर्फ कांग्रेस को होगा। कांग्रेस की दृष्टि में आप की भूमिका वोट कटवाने से अधिक कुछ नहीं है। केजरीवाल मंडली के चतुर सुजान राजनीतिक मस्तिष्क के इस सत्य को न पहचानता है तो आश्चर्य ही होगा। पर शायद वे सोचते हैं कि दिल्ली राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय प्रचार माध्यमों का केन्द्र है। यहां सुई भी खड़कती है तो मीडिया के माध्यम से उसकी आवाज विश्व के प्रत्येक कोने में पहुंच जाती है। इसलिए दिल्ली के चुनाव मैदान में उनके उतरने से भले ही मुख्य विपक्षी दल भाजपा की थोड़ी हानि हो, पर उन्हें तो भारी प्रचार और राजनीतिक आधार मिल ही जाएगा। देवेन्द्र स्वरूप
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