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केरन सेक्टर में नियंत्रण रेखा पर शम्साबाद गांव के पास हाल में हुई जिहादी घुसपैठ, भारत-पाकिस्तान संबंधों और जम्मू-कश्मीर की वर्तमान स्थिति पर मेजर जनरल (से.नि.) गगनदीप बख्शी से सहयोगी सम्पादक आलोक गोस्वामी की बातचीत के प्रमुख अंश-
अभी हाल में केरन सेक्टर में पाकिस्तानी जिहादियों की घुसपैठ हुई। इन आतंकियों को पाकिस्तानी सेना सहायता दे रही थी। नियंत्रण रेखा पर बढ़ीं घुसपैठ की इन गतिविधियों पर आपका क्या कहना है?
1990 में सीमा पार से घुसपैठ का सिलसिला शुरू हुआ था। पहले पहल आतंकियों ने 100-150 के बड़े समूहों में घुसपैठ की कोशिश की थी। भारतीय सीमा रक्षकों के लिए उनको चिन्हित करके मारना आसान था। इससे सबक सीखकर उन्होंने 10-12 के समूहों में घुसपैठ करनी शुरू की। पिछले कुछ साल से छोटे समूहों में घुसपैठ का दौर चला है। हमने सीमा पर इनके घुसने के रास्तों पर चौकसी भी बढ़ा दी है। सीमा पर बाड़ लगने के बाद आतंकियों को गोला-बारूद और हथियार पहुंचाने में खासी दिक्कत आने लगी थी। पाकिस्तान से जिहादियों को तो बंगलादेश, नेपाल के रास्ते में भारत में भेजा जा सकता था, लेकिन हथियार, गोला-बारूद तो नियंत्रण रेखा पार करके ही लाया जा सकता था। इधर सीमा पार घुसपैठ में वाकई तेजी आई है।
2009 में भी बड़े समूह में आतंकियों ने घुसपैठ की थी, उस वक्त भी जवानों ने बड़ा अभियान चलाया था।
2009 में 140 के जत्थे में जिहादियों ने घुसपैठ की थी, जिसमें सामान ढोने वाले लोग भी थे। वे हथियार वगैरह लाकर नियंत्रण रेखा के इस तरफ उन्हें छुपाने की कोशिश में थे।
केरन सेक्टर में पिछली 23 सितम्बर को जो घुसपैठ हुई थी, क्या वह भी हथियार वगैरह यहां भेजने के लिए थी?
केरन सेक्टर में ताजा घुसपैठ भी लगता है उसी तर्ज पर आतंकियों और हथियार-बारूद पहुंचाने के लिए हुई थी। उसमें बहुत से माल ढोने वाले भी रहे होंगे। 23 सितम्बर के आस-पास घुसपैठ की शुरुआत सुदूर शम्साबाद गांव के नजदीक हुई थी। इस जगह की रणनीतिक दृष्टि से उतनी अहमियत नहीं दिखती जैसी कारगिल पोस्ट पर थी। उन आतंकियों ने एक किलोमीटर इलाके में चार-पांच जगह से घने जंगल के रास्ते घुसने की कोशिश की थी। हमारी सेना को खोजी यंत्रों के जरिए इस घुसपैठ की भनक लग गई थी। हमारे 3/3 गुरखा राइफल रेजीमेंट के जवान वहां पहुंचे और भीषण गोलीबारी शुरू हो गई। दिक्कत यह थी कि सीमा के उस पार से आतंकियों की सहायता के लिए गोलीबारी की जा रही थी।
जहां यह मुठभेड़ हुई वह इलाका गहरे खड्ड और जंगलों से घिरा होने के कारण कितने आतंकी हैं, कहां हैं, यह साफ दिख सकता था क्या?
वह इलाका नाले के पास ऐसा घना जंगल है कि 2 मीटर आगे नहीं दिखता कि वहां क्या है। हमारे जवानों को घुसपैठियों की बातचीत पकड़ने से ही पता चला कि कई आतंकी मारे गए, कई घायल हुए हैं।
कुछ अखबारों ने छापा कि वे हमारे इलाके के एक गांव पर कब्जा करके बैठ गए थे। क्या यह खबर सही थी?
नहीं, वे आतंकी सीमा के 400-500 मीटर अंदर ही आ पाए थे। हमारे जवानों ने जमकर गोलियां चलाईं और कड़ा मुकाबला किया। मैंने खुद ऐसे इलाकों में गोलीबारी देखी है और जानता हूं कि ऐसे जंगल में सामने कोई आतंकी है या वहां से वह चला गया है, इसका पता लगाना मुश्किल हो जाता है। केरन में तो आतंकी ही नहीं, उस पार की चौकियों से भी गोलियां दागी जा रही थीं। ऐसे में हमारे जवान आगे बढ़कर मारे गए आतंकियों के शव निकाल पाते उससे पहले वे अपने जिहादी साथियों के शव घसीटकर अपनी तरफ ले गए।
क्या शम्साबाद के पास दो और जगहों से भी घुसपैठ की कोशिश की गई थी?
शम्साबाद गांव से 20 किलोमीटर दूर गुज्जरतूर और 4 किलोमीटर दूर फतेहगंज से शायद आतंकियों के उसी गुट ने घुसपैठ की फिर से कोशिश की थी।
क्या ऐसा नहीं लगता कि आतंकी किसी भी तरह भारत में घुसपैठ करने की ठाने हुए थे?
ऐसा ही है। बर्फ पड़ने से पहले वे चाहते हैं ज्यादा से ज्यादा जिहादी और हथियार सीमा के इस पार पहुंचा दिए जाएं।
क्या वहां नियंत्रण रेखा पर भारत ने कंटीली तार लगाई हुई है?
कंटीली तार तो लगी है, पर कई जगह रेखा से एक किलोमीटर तो कहीं डेढ़ किलोमीटर अंदर लगाई गई है, क्योंकि पाकिस्तानी नियंत्रण रेखा पर कंटीली तार लगाने की कोशिश करने पर गोलियां चलाने लगते हैं।
क्या इस बार भी घुसपैठ पाकिस्तानी सेना के सहयोग से
हुई थी?
सौ फीसदी पाकिस्तानी सेना के सहयोग से हुई थी। उसकी सेना की मर्जी के बगैर कोई घुसपैठिया सीमा तक नहीं पहुंच सकता। जिहादी आकर पाकिस्तानी सेना के शिविरों में ठहरते हैं, खाना खाते हैं, वहां से सीमान्त इलाके का मुआयना करते हैं। घुसपैठ के दौरान अगर उनको घेर लिया जाता है तो पाकिस्तानी सेना उन्हें बाहर निकालने में गोलियां दाग कर 'कवर' देती है।
यह घुसपैठ लगभग उसी दौरान चल रही थी जब न्यूयार्क में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने की उतावली दिखा रहे थे।
हमारे प्रधानमंत्री जब न्यूयार्क में शरीफ से हाथ मिला रहे थे, उसके महज 72 घंटे पहले ही पाकिस्तानी सैनिकों ने हीरानगर और सांबा में हम पर चोट की, हमारे 12 नागरिक मार दिए। ऐसी घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी होती गई। ऐसी स्थिति में बातचीत की कोई तुक नहीं बनती। उससे पहले भी हमारे 2 सैनिकों के सिर काट दिए थे, 5 को शहीद कर दिया था। ऐसे में हमारे प्रधनमंत्री ने जैसे बालहठ पकड़ ली थी कि 'बातचीत तो मैं करूंगा ही'। क्या भारतीय नागरिकों की जान की कोई कीमत नहीं उनकी नजर में? किसी और प्रजातंत्र में वहां के प्रधानमंत्री ने ऐसा किया होता तो बवाल खड़ा हो गया होता। मैं तो कहूंगा कि यह हमारी ही कमजोरी है कि हमारे नागरिकों की लाशें गिरें और हम बातचीत की रट लगाते रहें।
पाकिस्तानियों ने देखा कि हीरानगर और सांबा की घटनाओं से भी भारत के नेताओं को ठेस नहीं पहुंची तो उन्होंने घुसपैठ चालू कर दी। वे जानते हैं कि न्यूयार्क में यूएन में दोनों देशों के प्रधानमंत्री मिलने वाले हैं, शरीफ कश्मीर का राग अलापेंगे ही, ऐसे में तनाव के बिन्दु और बढ़ा दिए जाएं तो दुनियाभर में कश्मीर … कश्मीर का शोर मचेगा। कश्मीर सबकी जुबां पर होगा कि 'भई, जल्दी वहां का समाधान करो।'
शरीफ का पिछला कार्यकाल और वर्तमान कार्यकाल भारत के लिए मुसीबतें बढ़ाने वाला ही रहा है। ऐसे में उन पर विश्वास कैसे किया जा सकता है?
शरीफ भारत के नेताओं को बरगलाना चाह रहे हैं कि उनके दिल में भारत को लेकर बहुत सकारात्मक रुख है, वे बहुत दोस्ताना जज्बे से भरे हैं, अपनी फौज के दबाव में नहीं हैं, वगैरह-वगैरह। सब फिजूल बाते हैं।
क्या भारत की मौजूदा केन्द्र सरकार में पाकिस्तान को सही जवाब देने की इच्छाशक्ति नहीं है?
मैं आपसे पूछता हूं, इच्छाशक्ति होती तो हमारे प्रधानमंत्री उनसे बातचीत की यूं जिद ठान कर बैठे होते? क्या उन्हें हमारे नागरिकों के यूं मारे जाने का रत्तीभर अफसोस नहीं होता?
ऐसे महौल में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और केन्द्र के कुछ मंत्री सेना के विशेषाधिकार कानून को हटाने और घाटी से सेना को वापस बुलाने की मांग उछाल रहे थे। इस पर क्या कहेंगे?
सेना को हटाने की मांग भी उस कठुआ से जहां हाल में जवानों को मारा गया है! 2014 में अफगानिस्तान से अमरीकी सेनाएं हटने के बाद वहां के बचे जिहादी कश्मीर भेजे जाएंगे। जब सेनाध्यक्ष ये बातें बताकर सेना हटाने से इनकार करते हैं तो उनकी हंसी उड़वाई जाती है, उन्हें पद से हटने के बाद अपमानित किया जाता है, विधानसभा में बुलाकर पूछताछ करने के जुमले उछाले जाते हैं। श्रीनगर इलाके में उमर अब्दुल्ला ने पुलिस चौकियां हटवा दीं जबकि सेना ने मना किया था क्योंकि सेना की वहां से बहुत आवाजाही होती है। लेकिन बात नहीं सुनी गई। तब से वहां पर चार बड़े हमले हुए हैं, जवान मारे गए हैं, सेना के काफिलों पर हमले हुए। क्या मारे गए जवानों की जिम्मेदारी अब्दुल्ला लेंगे? हमारा कहना है कि जब तक प्रदेश में हालात काबू में नहीं आते सेना के विशेषाधिकार कानून को हटाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। सीमापार 30 आतंकी शिविर चल रहे हैं। वे जिहादी कभी भी घुस सकते हैं यहां। अब्दुल्ला वहां से ग्राम सुरक्षा समिति (वीडीसी) हटवा रहे हैं। क्यों? क्योंकि वहां बचे-खुचे अल्पसंख्यकों (हिन्दू) की मार-काट मचे और वे खत्म हो जाएं? यह इस देश के खिलाफ साजिश है।
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