आजकल नौकरशाहों से 'दिल्ली' की 'अहं' की बीमारी का इलाज पूछिए, जवाब मिलेगा -अमदाबाद। भाजपा की दिल्ली रैली के बाद साउथ ब्लॉक के गलियारे, संकेतों में ही सही, एकमत हैं। गलियारों की यह गूंज कहां तक पहुंची जांचना हो तो केंद्र सरकार, खासकर कांग्रेस पार्टी, की बेचैनी के संकेतों को पढ़ना चाहिए। अजय माकन प्रदेश की राजनीति में कोई छोटा चेहरा नहीं जिसे खुद की भद्द पिटवाने के लिए चुना जाए, मगर यह हुआ। प्रेस क्लब में माकन की प्रेसवार्ता में राहुल गांधी ने जिस नाटकीय ढंग से प्रवेश किया उससे सभी को सहज ही पता चल गया कि 'पटकथा' पहले से लिखी रखी थी। इसके फौरन बाद आई मुसलमानों को इशारों में पुचकारती गृहमंत्री की चिट्ठी। दोनों ही घटनाओं में कांग्रेस की बेचैनी बता रही है कि चुनावी बिसात बिछने से पहले ही हड़बड़ी और खींचतान शुरू हो चुकी है। भ्रष्टाचार के भंवर में डूबी पार्टी की छटपटाहट खुद को साफ-सुथरा दिखाने और विकास की चर्चा टालते हुए, लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने और बहकाने की है। पहले बात उन राहुल गांधी की जो कल लोकपाल के विरोध में खड़े थे और आज दागी जनप्रतिनिधियों के अध्यादेश को फाड़ने के जुमले उछाल रहे हैं। सच यह है कि न्यायपालिका की चढ़ी भृकुटियों के बावजूद भ्रष्टाचारी जनप्रतिधियों को पंखा झेलने की तैयारी जिस अध्यादेश के जरिए की गई उसका खाका बुजुर्ग प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी ने अपने वरिष्ठ रणनीतिकारों के साथ बैठकर खींचा था। लालू प्रसाद यादव जैसे हमजोली का जो 17 साल पुराना दाग कांग्रेस को आंख मूंदकर मंजूर था। उस पर न्यायालय का फैसला आने से ठीक पहले युवराज का जाग जाना और दुनिया को चेताना नाटक नहीं तो और क्या है! राजनीतिक भंगिमाएं पढ़ने वाले जानते हैं कि बांहें चढ़ाते युवराज के तेवर असल में सबसे दागदार दल के चमक खोते खेवनहार की बौखलाहट भर है। वैसे भी भ्रष्टाचार से लड़ाई का ढोंग करती कांग्रेस से लालू के विरोध का एक भी बयान ना आना बताता है कि 'बिहार की बाढ़' के लिए 'चप्पू' की तलाश में पार्टी कुछ भी करेगी। कितना अच्छा हो यदि राहुल के तेवर बनावटी ना हों! यदि दागियों के मुद्दे पर वह वास्तव में प्रधानमंत्री से लेकर अपनी मां तक के खिलाफ जाने को तैयार हैं तो उन्हें सफाई की शुरुआत अपने घर से करनी चाहिए। क्वात्रोक्की से लेकर राबर्ट वाड्रा तक भ्रष्टाचार की कलंक कथा के तार सीधे-सीधे कांग्रेस के शीर्ष परिवार से ही जुड़ते हैं। कीजिए शुरुआत, स्वागत है। अब बात केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की उस चिन्गारी-चिट्ठी की जिसने समाज विभाजन की आग तो तेज की ही, खुद कांग्रेस का मुंह जला दिया। खुले शब्दों में मुस्लिम तुष्टीकरण की गोटी खेलते हुए गृह मंत्रालय ने राज्यों की पुलिस से कहा है कि बेगुनाह मुसलमानों को झूठे मामलों में ना फंसाया जाए। मगर अब शिंदे के शब्द उन्हीं के गले में फांस की तरह अटक गए हैं। शिन्दे जब कहते हैं कि मुसलमान युवकों को गलत तरीके से जेल ना भेजा जाए तो इससे दो बातें साफ हो जाती हैं पहली- गृहमंत्री यह मानते हैं कि वे जिस व्यवस्था को संभाल रहे हैं वह वास्तव में निर्दोष मुसलमानों को जेल में डालने का काम करती है, दूसरी बात, अपनी चिट्ठी से निरपराध हिन्दुओं को जेल में डालने की आजादी वे पुलिस को दे रहे हैं। अच्छा होता यदि इस पाती में मुसलमान की बजाय सिर्फ 'निरपराध' पर जोर होता और पूरे समाज के लिए निष्पक्ष व्यवस्था की बात होती। कल को यदि लोग अपने ही मोहल्ले के मुसलमानों को अलग दृष्टि से देखने लग जाएं तो दोष मोदी का नहीं, शिंदे सरीखे नेताओं का है जो ऐसे शातिर, नफरतभरे पैंतरों पर पलते हैं। वैसे, इन नेताओं को हाशिए पर धकेलना खुद मुसलमानों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। तथ्य बता रहे हैं कि अल्पसंख्यकों को आज पुचकारने वालों ने ही सबसे ज्यादा मारा भी है। जिन मुकदमों में निर्दोष युवकों को झूठा फंसाए जाने का दर्द गृहमंत्री को है वे मामले उनकी पार्टी के ही राज के दौरान, कांग्रेस शासित प्रदेशों में ही, सबसे ज्यादा रहे हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे कांग्रेस चाहे जितना मुंह चुराए, बच नहीं सकती। सेकुलर कांग्रेस से मुसलमानों को यह सीधा सवाल तो पूछना ही चाहिए। बहरहाल, लालू की लुटिया डूबी, राहुल की बौखलाहट का राज खुला और शिंदे की चिट्ठी का फंदा भी कांग्रेस के गले में आ पड़ा है। इन पिटी हुई गोटियों के जिम्मेदार बिसात पलटने पर दोष किसे देंगे? एक गुजराती कहावत है – 'छाशमा मक्खन जाए, ने वहू फूहड़ कहेवाए' यानी छाछ में मक्खन जाए तो फूहड़ बहू को ही कहा जाता है। अब कांग्रेस की राजनीति का अर्थ 'गुजराती' में साफ हो इससे ज्यादा बुरे दिन पार्टी के लिए क्या होंगे!
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