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बच्चो! आपने जगदीशचन्द्र बसु का नाम अवश्य सुना होगा। इनके पिता श्री भगवानचंद्र बसु सख्त, अनुशासनप्रिय डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। श्री जगदीशचंद्र बसु में बचपन से ही अनुशासन, ईमानदारी, सत्य, न्याय के लिए सुदृढ़ रहने के गुण कूट-कूटकर भरे थे। प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में पाने के बाद कलकत्ता के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़े। जहां रहकर नियम पालन की आदत और दृढ़ हो गई। इंटर के बाद सेंट जेवियर कालेज में प्रवेश लिया। वहां भौतिकी के प्रोफेसर इनके चरित्र एवं परिश्रम से बड़े प्रभावित हुए। विज्ञान उनका प्रिय विषय बन गया। प्रोफेसर लेफंट से भी उनको विशेष मार्गर्शन प्राप्त हुआ था।
सन् 1880 में माता ने अपने गहने बेचकर इन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा। वह उन्हें महान चिकित्सक बनाना चाहती थीं। चिकित्सा क्षेत्र में उन्होंने बड़ी लगन से अध्ययन भी किया, परंतु प्रभु को यह स्वीकार नहीं था। स्वयं ही वे बार-बार बीमार हो जाते थे। अत: उन्होंने भौतिकी विषय पढ़ना शुरू किया। सन् 1884 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय से एमएससी करके वे भारत लौट आए।
भारत आकर सन् 1885 में डा. जगदीशचंद्र बसु कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर नियुक्त हुए तथा 1915 तक यहीं कार्य करते रहे। कालेज-प्रशासन ने अंग्रेज प्राध्यापकों के वेतन और भारतीय प्राध्यापकों के वेतन में भारी अंतर रखा हुआ था। महात्मा गांधीजी से बहुत पहले ही श्री जगदीशचंद्र बसु ने सत्याग्रह का प्रयोग किया था। उन्होंने कहा, ये विद्यार्थी मेरे देश के भविष्य हैं। इनकी सेवा मेरा कर्तव्य है। कम वेतन लेना मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचाता है। अत: कम वेतन नहीं लूंगा। यदि समान वेतन नहीं दे सकते तो मैं बिना वेतन ही पढ़ाऊंगा।
अपने इस सत्याग्रह पर वे डटे रहे। दो-चार महीने नहीं, पूरे तीन वर्ष तक डटे रहे, परंतु छात्रों को पढ़ाने में या कालेज के अन्य कार्यों में कभी कोई कोताही नहीं बरती। उनका यह सत्याग्रह सफल रहा तथा कालेज प्रबंध समिति ने तीन वर्ष बाद ससम्मान उन्हें सबके समान पूर्ण वेतन प्रदान किया।
इंग्लैंड की वैज्ञानिक अनुसंधान सभाओं में इन्हें शोध विषयक व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया जाता था। सन् 1896 में लंदन विश्वविद्यालय ने उन्हें डीएससी की उच्चतम उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1895 में ही श्री बसु ने बंगाल के गवर्नर के सामने 80 फीट की दूरी पर रखी घंटी को बिना किसी तार के चुंबकीय तरंगों के द्वारा बजाकर दिखाया था। इस प्रकार वायरलैस सिस्टम का सही आविष्कार किया था, परंतु शिक्षा विभाग ने उन्हें समय रहते अनुमति नहीं दी, तब इटली के मारकोनी ने यह आविष्कार पहले पेटेंट करा लिया। समय और सरकार ने साथ दिया होता तो रेडियो का आविष्कार जगदीशचंद्र बसु के नाम लिखा जाता।
परंतु बसु इससे निराश नहीं हुए, उन्होंने भारतीय मान्यता 'पेड़-पौधों में भी जीवन है' को वैज्ञानिक आधार पर संसार के समक्ष सिद्ध कर दिया। इतना ही नहीं, 1902 में अपनी इसी खोज को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने एक यंत्र का आविष्कार किया, जिसको 'कैस्कोग्राफ' नाम दिया गया। यह यंत्र पौधों की जीवंतता को दस हजार गुणा बढ़ाकर दिखाता है। उन्होंने प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधों पर वायु एवं प्रकाश का ही प्रभाव नहीं होता, बल्कि शोर, रात्रि, नींद, आराम, थकान, उत्तेजना एवं संगीत का भी प्रभाव पड़ता है। सन् 1903 में श्री बसु को सीआरई तथा 1912 में सीएसआई की उपाधि से सम्मानित किया गया।
अपने उनसठवें जन्मदिवस पर 30 नवंबर, 1917 को उन्होंने 'बसु अनुसंधान संस्थान' की स्थापना की। वे अपने देश के छात्रों से अपार स्नेह करते थे। वे उन्हें आधुनिक विश्व में बढ़ते वैज्ञानिक आविष्कारों की प्रतिस्पर्धा में किसी से पीछे देखना नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि भारत के छात्र विज्ञान सीखें, समझें। विज्ञान में रुचि बढ़ाएं। अत: वे देशवासियों को विज्ञान की पेचीदगियां समझाने का निरंतर प्रयत्न करते रहे। इंग्लैंड की रॉयल सोसाइटी ने उन्हें 1920 में फैलोशिप प्रदान की। जर्मनी, फ्रांस आदि की वैज्ञानिक पत्रिकाएं भी जदगीशचंद्र बसु से आग्रहपूर्वक लेख प्रकाशनार्थ मंगवाती रहती थीं।
यद्यपि श्री बसु प्रत्यक्ष राजनीतिक गतिविधियों से अलग ही रहे, तथापि राष्ट्र-प्रेम उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ था। उन्होंने अपने छात्रों को सदैव देशप्रेम की शिक्षा दी। वे कहा करते थे, भारतवासी पढ़ेंगे, तभी आगे बढ़ेंगे। लोगों का विकास होगा तो देश का विकास होगा। आधुनिक भारत आधुनिक विश्व में सबके साथ आगे बढ़े, यही हमारा देशप्रेम है। हमारा देश किसी भी क्षेत्र में किसी से पीछे न रहे। प्राचीनकाल के महान व्यक्तियों ने देश को जिस सम्मानित गुरुपद पर प्रतिष्ठित किया था, हम यदि अपने राष्ट्र से प्रेम करते हैं तो भारत को पुन: उसी गुरुपद पर पहुंचाएं। इसके लिए प्रेम के साथ-साथ परिश्रम भी करना पड़ेगा। ईमानदारी तथा अनुशासन से युक्त परिश्रम ही हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचा सकता है।
जीवन भर देशप्रेम और वैज्ञानिक विचार का पाठ पढ़ाते हुए श्री जगदीशचंद्र बसु ने 23 नवम्बर, 1937 को इस संसार से विदा ली। विश्व में उनका नाम सदैव श्रद्धा और सम्मान से लिया जाता रहेगा। मायाराम पतंग
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