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बिंदु, रेखाओं और रंगों की अलग-अलग क्या बिसात! किन्तु क्या यह सच नहीं कि हर चित्र की नींव में कोई बिन्दु ही होता है जो रेखाओं में बढ़ता और रंगों में उतरता है। चित्र की ही तरह घटनाओं के बिन्दु जोड़ें, रेखाएं खड़ी करें तो शायद भविष्य के घटनाक्रम का खाका खींचना संभव हो जाए। इस सप्ताह की कुछ घटनाओं के छोर जोड़कर देखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इनसे उभरती तस्वीर भयानक है। यह तस्वीर है इस्लामी जिहाद के उस खूनी चेहरे की जो आज केन्या-पाकिस्तान में दुनिया के सामने आया और कल संभवत: भारत में दिखने वाला है। वहां, गैर मुसलमानों की पहचान कर उन्हें चुन-चुनकर मारने वाले इस्लामी जिहादी और यहां सिर्फ मुसलमानों को छांट-छांटकर पुचकारने वाले ह्यसेकुलरह्ण सत्ताधीश। खतरे की बात यह कि समाज को काटने-बांटने की सोच जहां भी है, एक सी जहरीली है।
क्या नैरोबी में किसी गैर-मुस्लिम की जान सिर्फ इसलिए ले ली जाएगी कि उसे पैगम्बर मोहम्मद की मां का नाम नहीं पता और क्या मुजफ्फरनगर में किसी को सिर्फ इसलिए ज्यादा पुचकार और मुआवजा मिलेगा कि उसका नाम मुस्लिम है?
वैसे, भारत में अल्पसंख्यक वोटबैंक मजबूत करने के लिए कट्टरवादियों का हौसला बढ़ाने और देश को कमजोर करने वाली कोई अकेली पार्टी नहीं और यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं जो हाल में देखने को मिला है। उत्तर से दक्षिण तक विभाजनकारी राजनीति का यह खेल न्यायालय की टिप्पणियों और बहुसंख्यक जनता के स्पष्ट आक्रोश के बाद भी बेशरमी से चल रहा है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मक्का-मस्जिद धमाकों में बरी हुए मुस्लिम युवकों पर मेहरबान हुई कांग्रेस सरकार को कसकर फटकारा, मगर महाराष्ट्र में इसी दल की सरकार मदरसों को करोड़ों रुपए के विशेष अनुदान की झोली खोले बैठी है।
अमरीका में इलाज कराने के लिए दौड़ने वाले राजनेताओं को एक बार यह भी देखना चाहिए कि उस देश ने अपनी जमीन पर फैलते जिहादी विषाणु का इलाज कैसे किया। अमरीका एक आतंकी हमले के बाद मस्जिदों को निगरानी की सूची में रखता है, यह काम दर्जनों आतंकी हमलों और मस्जिद-मदरसों की संदिग्ध भूमिका के खुलासों के बावजूद भारत में क्यों नहीं होना चाहिए?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की घटनाओं के तार केन्या-पाकिस्तान के खूनी तालिबान और इस्लामी जिहाद से इसलिए भी जुड़ते हैं, क्योंकि दुनिया भर में सिरफिरे पैदा करने वाली वहाबी कट्टरवादी शिक्षा का गढ़ यहीं है। मलाला युसुफजई की शिक्षा में वहां तालिबानी रोड़े थे तो यहां कॉपी-किताबें फूंकती लड़कियों की राह में मुस्लिम बस्तियों के शाहनवाज जैसे शोहदे खड़े हैं।
वैसे, तुष्टीकरण को तमाचा तो लगा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आ रही खबरें बताती हैं कि ह्यसेकुलर टोपीह्ण लगाने, और घडि़याली आंसू बहाने वालों की जमीन अब खिसकने लगी है। मुजफ्फरनगर देहात की महिलाएं ऐसा कुछ कर दिखाएंगी शायद लखनऊ और दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों ने ऐसा सपने में भी नहीं सोचा होगा। खुद ट्रैक्टर चलातीं, हांक लगाकर साथिनों को जुटातीं अनेक गांवों की महिलाएं इस मायने में अलग हैं कि यह जन ज्वार स्त्री हितों के हिमायती कहलाने वाले किसी जनवादी या प्रगतिशील गैर सरकारी संगठन के कहे से नहीं उमड़ा। मातृशक्ति का यह स्वत:स्फूर्त उफान बहू-बेटियों के सम्मान और पति-बेटों पर प्रशासनिक प्रताड़ना के विरोध में है।
मुजफ्फरनगर दंगे के बाद सिर्फ मुस्लिम समुदाय को दुलारते-ढाढस बंधाते सोनिया-मनमोहन के जो चित्र मीडिया में आए उसने दिल्ली में चाहे जो माहौल बनाया हो, इस पूरे क्षेत्र को भारी गुस्से से भर दिया है। देश को बांटकर वंशवादी राजनीति चलाने वालों की कलई खुलने के बाद जनता का यह गुस्सा जायज भी है और जरूरी भी।
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