खाद्य सुरक्षा का तुर्रा
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खाद्य सुरक्षा का तुर्रा

by
Sep 21, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 21 Sep 2013 16:18:19

सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून को खेल बदलने वाली योजना बताया जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को प्रति माह 5 किलो गेहूं अथवा मोटा अनाज सस्ते दाम पर उपलब्ध कराया जायेगा। निश्चित रूप से देश के हर नागरिक का पेट भरना ही चाहिये। परन्तु सरकार की मूल मंशा गरीबों को कुत्ते की तरह रोटी बांटने की है ताकि रोटी के लालच में उनके वोट हासिल किये जा सकें। योजना आयोग के पूर्व सदस्य अरविन्द विरमानी के अनुसार राज्यों के बीच कुपोषण का अन्तर मुख्यत: स्वच्छता के अभाव एवं शुद्घ पेयजल की अनुपलब्धता के कारण है। बच्चे के पेट में कीड़े हों तो शरीर में पौष्टिक भोजन को पचाने की ताकत नहीं रह जाती है, और वह कमजोर बना रहता है। पेचिश से ग्रस्त व्यक्ति को हलवा खिलाने से स्वास्थ्य लाभ नहीं होता है। अत: सरकार को चाहिये था कि गरीब को सर्वप्रथम सफाई की व्यवस्था और स्वच्छ पेय जल मुहैया कराती। इसके बाद खाद्यान्न उपलब्ध कराने पर जोर देती।दूसरी समस्या प्रशासनिक तंत्र की है। खाद्य सुरक्षा कानून को वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा ही लागू किया जायेगा। वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अधिकतर छूट खाद्य निगम की अकुशलता और भ्रष्टाचार में खप जाती है। मनरेगा का हाल सर्वविदित है। आज सरपंच से मंत्री तक का हिस्सा निर्धारित हो चुका है। यही स्थिति कुछ समय में खाद्य सुरक्षा की हो जायेगी। तुलना में छत्तीसगढ़ की व्यवस्था उत्तम है। वाल स्ट्रीट जर्नल को दिये गये साक्षात्कार में मुख्य मंत्री रमन सिंह ने बताया कि उन्होंने व्यक्तिगत दुकानों के स्थान पर वितरण का काम ग्राम पंचायतों, सहायता समूहों एवं सहकारी समीतियों को दिया है। इससे रिसाव में कमी आयी है। खाद्य सुरक्षा कानून में ऐसी सोच का अभाव है।तीसरी समस्या संतुलित आहार की है। स्वस्थ शरीर के लिये कार्बोहाइड्रेट के साथ-साथ दूसरे पोषक तत्व जरूरी होते हैं विशेषकर प्रोटीन। लेकिन वर्तमान कानून के तहत केवल खाद्यान्न उपलब्ध कराये जायेंगे। फलस्वरूप घर में सस्ते अनाज के लालच में भोजन में कार्बोहाइड्रेट अधिक और दूसरे पोषक तत्वों का कम उपयोग किया जायेगा। इससे आहार असंतुलित हो जायेगा और जनता के स्वास्थ्य की हानि होगी। कुछ समय पूर्व देश में नात्रजन फर्टिलाइजर पर छूट दी जा रही थी। इसमें पाया गया कि किसानों के द्वारा नात्रजन अधिक एवं पोटाश तथा फास्फोरस का उपयोग कम किया जाने लगा। इससे भूमि की उत्पादक क्षमता का ह्रास होने लगा। अन्तत: सरकार को तीनों फर्टिलाइजर पर छूट देनी पड़ी। इसी प्रकार सस्ते खाद्यान्न की नीति से स्वास्थ्य में गिरावट आयेगी। केवल सस्ता अन्न उपलब्ध कराने के स्थान पर दाल एवं अन्य दूसरे तत्वों को भी उपलब्ध कराना था। सरकार को छत्तीसगढ़ और पंजाब से सबक लेना चाहिए था। इन राज्यों द्वारा लागू खाद्यान्न योजना में दाल भी उपलब्ध कराई जाती है एवं छत्तीसगढ़ में आयोडीन युक्त नमक भी उपलब्ध कराया जाता है। निश्चित ही इससे केन्द्र सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ता है। ज्ञात हो कि पंजाब सरकार के लिये बजट की कमी के कारण दाल उपलब्ध कराना कठिन हो रहा है। लेकिन केन्द्र सरकार ने चतुराई से महंगी और जरूरी दालों को योजना से बाहर रखा है जिससे बजट पर मार भी न पड़े और मतदाता को सरकार द्वारा सस्ते भोजन दिलाये जाने का आभास भी हो। चौथी एवं प्रमुख समस्या गरीबी की है। सच यह है कि नागरिकों के पास आय हो तो वे स्वच्छ पेयजल एवं संतुलित आहार की व्यवस्था स्वयं कर लेते हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा राज्य की प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े प्रकाशित किये जाते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा पांच वर्ष से कम आयु में मरने वाले बच्चों के आंकड़े दिये जाते हैं। इसे कुपोषण का सूचकांक माना जाता है। 11 राज्यों के दोनों के आंकड़े उपलब्ध हैं। इनमें ऊंची आय वाले छह राज्य हैं कर्नाटक, आन्ध्र, पंजाब, केरल, तमिलनाडु और हरियाणा। इन राज्यों की औसत बाल मृत्यु दर 45़7 प्रति हजार है। कम आय वाले पांच राज्य हैं बिहार, उत्तर प्रदेश, आसाम, उड़ीसा एवं पश्चिम बंगाल। इनकी औसत बाल मृत्यु दर 83़4 है। इससे प्रमाणित होता है कि गरीबी दूर हो जाये तो लोग स्वच्छ पेयजल और संतुलित भोजन की व्यवस्था कर लेते हैं। केन्द्र सरकार का उद्देश्य खाद्य सुरक्षा से वोट हासिल करना है। यद्यपि इसमें कुपोषण की मूल समस्याओं-स्वच्छ पानी, संतुलित आहार एवं आय की समुचित व्यवस्था नहीं है। समस्या यह है कि आम आदमी इन बातों को न तो पढ़ता है और न ही समझता है। आम आदमी के लिये भ्रष्टाचार का मुद्दा गौण है। वह सस्ते खाद्यान्न और नकद हस्तान्तरण से प्रभावित होगा। जिस प्रकार 2004 में इंडिया शाइनिंग का मुद्दा निष्प्रभावी सिद्घ हुआ उसी प्रकार 2014 में भ्रष्टाचार का मुद्दा निष्प्रभावी होने की सम्भावना रखता है। वर्तमान में सार्वजनिक वितरण प्रणाली, उर्वरक, स्वास्थ्य एवं शिक्षा तथा मनरेगा पर केन्द्र सरकार द्वारा लगभग 360 हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च किये जा रहे हैं। इन तमाम कार्यक्रमों को समाप्त करके उपलब्ध रकम से प्रत्येक बीपीएल परिवार को 2000 रुपये प्रति माह नगद दिये जा सकते हैं। 100 दिन मनरेगा में कार्य करने की अनिवार्यता समाप्त करने से इन दिनों में भी आय अर्जित की जा सकती है। डीजल एवं एलपीजी सब्सिडी भी जोड़ दें तो प्रत्येक परिवार को 5,000 रुपये प्रति माह नगद दिये जा सकते हैं। विपक्ष इस मुद्दे को उठाए।  

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