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इतिहास
10 मई 1857 को पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों ने क्रांति की, जिसे अंग्रेजों व उनके वेतनभोगी इतिहासकार सिपाही विद्रोह भी कहते हैं। 13 मई को लाहौर की मीयांमीर छावनी में प्रात: 8 बजे बंगाल नेटिव इन्फेंट्री (पैदल सेना) के सिपाहियों का निशस्त्रीकरण कर दिया गया ताकि इस क्षेत्र में सेना विद्रोह न कर पाए। सुबह की परेड के बाद इन सिपाहियों को कैद कर लिया गया।
3० जुलाई तक कैद में रहने के बाद सैनिकों ने भी क्रांति का झंडा उठा लिया और अंग्रेजों की कैद से भाग निकले। 31 जुलाई को इन सैनिकों का जत्था अजनाला कस्बे के 5—6 किलोमीटर पीछे रावी नदी के किनारे स्थित डडीयां गांव के पास पहुंचा। भूख व थकान के मारे इन सैनिकों का बुरा हाल था, इनके पास देश के लिए लड़ने का जज्बा तो था परंतु हथियार व राशन नहीं। गांव के जमींदारों ने इन सैनिकों को रोटी-पानी देने का लालच देकर गांव में ठहरा लिया और तहसीलदार दीवान प्राण नाथ को इसकी सूचना दे दी। तहसीलदार ने अमृतसर के तत्कालीन उपायुक्तफेड्रिक कूपर को इसकी जानकारी भेजी।
उस समय थाने व तहसील में जितने भी सशस्त्र सिपाही थे उक्त गांव में भेज दिए गए ताकि इन सैनिकों को शहीद किया जा सके। गांव में पहुंचते ही ब्रिटिश सेना व पुलिस के जवान इन थके मांदे व भूखे सिपाहियों पर भूखे भेडि़यों की तरह टूट पड़े। 150 सिपाही जख्मी होकर अपनी जान बचाने के लिए रावी नदी में कूद गए और शहीद हो गए। 50 सिपाही लड़ते हुए नदी में गिर गए और सदा के लिए अलोप हो गए।
इतने में उपायुक्त कूपर अपने सैनिकों के साथ गांव में पहुंच गया। गांव के लोगों की सहायता से कूपर ने 282 सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया और रस्सियों से बांध कर इन्हें अजनाला लाया गया। 237 सैनिकों को थाने में बंद करने के बाद बाकी सैनिकों को एक कोठरी में ठूंस दिया गया। योजना के अनुसार इनको 31 जुलाई को फांसी लगाया जाना था, परंतु भारी बरसात के कारण इस योजना को अगले दिन के लिए लंबित कर दिया गया।
अगले दिन 1 अगस्त को ईद वाले दिन 237 सिपाहियों को 10—10 की टोली में बाहर निकाला गया और गोलियों से भून दिया गया। सफाई कर्मचारियों ने इन लाशों को एक-दूसरे के ऊपर इस तरह गिराना शुरू कर दिया कि वहां लाशों का ढेर लग गया।
इन सिपाहियों को शहीद किए जाने के बाद कोठडी (बुर्जी) में बंद सिपाहियों को बाहर निकाला गया तो यहां पर बहुत से सैनिक तो दम घुटने, भूख—प्यास व थकान के मारे पहले ही शहीद हो चुके थे। कूपर के आदेश पर ब्रिटिश सेना ने अर्ध बेहोशी की हालत में बाकी सैनिकों को भी शहीद कर दिया। जिला गजेटियर 1892—93 के पृष्ठ क्रमांक 170—71 के अनुसार इन सैनिकों के शव एक खाली पड़े कुएं में डलवा कर ऊपर टीला बनवा दिया गया जिसे कालेयांवाले दा खूह नाम दे दिया गया।
डेढ़ शताब्दी बीत जाने के बाद भी यह कुआं प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 282 शहीदों की पार्थिव देहों को अपने आगोश में छिपाए हुए है। स्वतंत्र भारत की किसी भी सरकार ने इन शहीदों की देहों को बाहर निकालना उचित नहीं समझा और न ही उन्हें उचित सम्मान मिला है।
कैसे हुआ रहस्योद्घाटन
वैसे तो इस स्थल के इतिहास की गांव व आसपास के लोगों को मौखिक जानकारी आरंभ से ही थी परंतु, इसको समाज के सामने लाए लेखक व अनुसंधानकर्ता श्री सुरिंद्र कोछड़। उन्होंने पंजाबी अजीत में लेख प्रकाशित कर सरकार व समाज को इसकी अधिकृत जानकारी दी। उन्होंने इस कुएं से शहीदों की अस्थियां निकालने, उनका विधिविधान से तर्पण करने व अस्थियों का गंगाप्रवाह करने की मांग की और सरकार को इस स्थान का नाम शहीदों के नाम पर करने का सुझाव दिया। श्री अमरजीत सिंह सरकारिया के नेतृत्व में 11 सदस्यीय समिति का गठन किया गया, जिसके नेतृत्व में इस स्थल की खुदाई व यहां पर भव्य गुरुद्वारा साहिब के निर्माण का निर्णय लिया गया है।
अब सरकार का दायित्व
1. शहीदां वाला खूह प्रकरण देश के इतिहास का बलिदान व देशप्रेम का गौरवमयी अध्याय है। सरकार का दायित्व है कि इस स्थल से संबंधित इतिहास व घटना की इतिहासकारों से खोज करवाए और घटना की पूरी सच्चाई सामने लाई जाए।
2. इस इतिहास को स्कूलों के पाठयक्रम में शामिल किया जाए।
3. शहीदों की अस्थियों को निकाल कर उनका विधिविधान से तर्पण किया जाए या फिर उनकी यहीं पर समाधि बनाई जाए।
4. यहां सरकारी स्तर पर शहीद स्थल का निर्माण किया जाए।
5. पंजाब सरकार जालंधर के पास स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों का स्मारक बना रही है। सरकार को चाहिए कि इस स्मारक में इन शहीदों की वीरगाथा को भी शामिल किया जाए। राकेश सैन
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