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संप्रग सरकार के कर्णधार अपनी किस्मत को कोस रहे होंगे। उनका भारत निर्माण अभियान धूल में मिल रहा है। बेचारे भारत निर्माण अभियान के बहाने देश को अपनी कथित उपलब्धियों की तस्वीर दिखाने की चाहत रखते थे। पर उसके शुरू करते ही देश की अर्थव्यवस्था धूल में मिलने लगी है। शुरुआत रुपये के डॉलर के मुकाबले कमजोर होने से हुई। अब रुपया कहां पर जाएगा, किसी को मालूम नहीं। डॉलर की मजबूती ने आम-खास भारतीयों की जेब काट कर रख दी है। मध्यम वर्ग का मासिक बजट 20 फीसद बढ़ गया है। यह दावा उद्योग और वाणिज्य संगठन एसोचेम का है। एसोचेम का यह भी दावा है कि 78 फीसद मध्यम वर्गीय भारतीयों ने रेस्तरां में जाकर खाना खाने और फिल्म देखने को कम या बंद कर दिया है। मतलब महंगाई की मार से मध्यम वर्ग की पेशानी से पसीना छूट रहा है। गरीब जनता की हालत तो पूछिए मत क्या हो गई है।
कानपुर की गृहिणी सीमा मिश्र कहती है, ह्यकुकिंग गैस से लेकर प्याज और पेट्रोल से लेकर दालें-सब्जियां सब महंगे हो गए हैं। पहले मेरा हर हफ्ते सब्जियों का बिल आता था 500 रुपये। अब दुगुना हो गया है। महंगाई के कारण घर में कलह-क्लेश रहने लगा है।ह्ण
पैसा फूंको-तमाशा देखो
यूपीए सरकार ने अगले यानी 2014 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर जिस विज्ञापन अभियान को शुरू किया है उसके लिए 180 करोड़ खर्चने की बात सामने आई है। गौर करने वाली बात है कि साल 2009 लोकसभा चुनाव से पहले यूपीए-1 ने 100 करोड़ रुपये खर्चे थे। मतलब कितनी बेदर्दी से आम अवाम के पैसे को पानी में बहाया जा रहा है। भारत निर्माण अभियान के श्रीगणेश के समय सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने दावा किया भारत निर्माण अभियान से हम दिखाना चाहते हैं कि हमने देश का किस तरह से चौतरफा विकास किया। अब उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जिस भारत निर्माण अभियान को शुरू किया गया, उसका रुपये के धूल में मिलने और महंगाई से देश में त्राहि-त्राहि के हालात पैदा होने के चलते क्या हश्र होगा। जाहिर है, बड़बोले मनीष तिवारी इस सवाल का भी कोई जवाब दे ही देंगे। वे यह दावा तो कर ही रहे हैं कि यह ह्यइंडिया शाइनिंगह्ण नहीं बल्कि भारत की असली कहानी है। हालांकि देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है और आम आदमी महंगाई से लेकर रोजगार के कम होते अवसरों के कारण परेशान है।
देश के प्रमुख अर्थशास्त्री डा़ सुरजीत एस़ भल्ला ने चेतावनी दी है कि रुपया जिस तरह से डॉलर के मुकाबले गिर रहा है,उसका असर यह हो सकता है कि देश में बड़े पैमाने पर नौकरियां जा सकती हैं। यानी कि नौकरीपेशा लोगों की छंटनी हो सकती है।
एक खास बातचीत में डा़ भल्ला ने कहा कि रुपये का अवमूल्यन हमारी खराब अर्थव्यवस्था को भी इंगित करता है। उन्होंने सलाह दी कि भारत को हालातों से निकलने के लिए आईएएफ से संपर्क करना चाहिए।
डा़ भल्ला ने ताजा सूरते-हाल के लिए आरबीआई को भी कोसा,जो रुपये के अवमूल्यन और बिगड़ती आर्थिक हालत का मुकाबला करने में नाकाम रहा। उन्होंने आशंका जताई कि निवेशकों का भारत से विश्वास उठ गया है।
दरअसल भारत निर्माण अभियान के तमाम दावों के बावजूद अब ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि उपभोक्ता वस्तुओं समेत जरूरत की लगभग सभी चीजों की बढ़ती कीमतों की वजह से आम आदमी की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। औद्योगिक उत्पादन की वृद्घि लगभग शून्य पर पहुंच चुकी है। कृषि उत्पादन के बढ़ने की अपनी सीमाएं हैं। पिछली लगभग सात तिमाहियों से औद्योगिक उत्पादन में उठाव का कोई संकेत नहीं है। महंगाई केवल उत्पादन में वृद्घि में ठहराव के कारण नहीं है, इसकी बड़ी वजह सरकार का खर्च बढ़ना भी है। इसके चलते राजकोषीय घाटा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। जब इस घाटे की भरपाई उधार लेकर की जाती है, तो इससे सरकार पर ब्याज का बोझ बढ़ता है और इससे अगले वषोंर् में राजकोषीय घाटा बढ़ता रहता है। यदि सरकार आरबीई से उधार लेकर इस घाटे की भरपाई करती है, तो उससे देश में महंगाई बढ़ती है।
दिल्ली स्कूल आफ इकोनामिक्स में अध्यापन कर रहे डा़ राम सिंह कहते हैं,महंगाई के बढ़ने की एक बड़ी वजह आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ना है। पेट्रोलियम पदाथोंर् की कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। लेकिन पिछले लगभग एक वर्ष से रुपये के अवमूल्यन के कारण भी कीमतें बढ़ रही हैं। रुपये का अवमूल्यन इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमारा व्यापार घाटा और भुगतान शेष का घाटा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2012-13 में व्यापार घाटा 200 अरब डॉलर तक पहुंच गया। रुपये के कमजोर होने से आयात महंगा हो रहा है। वे दो टूक लहजे में कहते हैं अर्थशास्त्र का रिश्ता आंकड़ों से है, न कि फर्जी बयानबाजी से। जाहिर है उनका इशारा भारत निर्माण से ही तो है।
भारत निर्माण अभियान में जनता को सूचना के अधिकार, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसे संस्थानिक ढांचा योजनाओं से जुड़े अधिकारों और भोजन का अधिकार और नकद अंतरण लाभ योजना जैसी नयी योजनाओं का उल्लेख है। पर, सरकार महंगाई की मारी जनता बेचारी के आंसू कब पोछेगी? उसका दर्द जानने-सुनने की उसे कोई परवाह नहीं। कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि भारत निर्माण अभियान के जरिए वह वोटरों तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहेगी। हो सकता है, पर लगता नहीं। जाहिर है। क्योंकि अब तो तमाम सर्वेक्षण साफ कह रहे कि देश का अवाम यूपीए सरकार को उखाड़ फेंकने का मन बना चुका है।
फेल जोड़ी पीएम-एफएम की
यह कोई संयोग नहीं है कि आजादी के बाद से डॉलर के मुकाबले रुपया तभी गिरा जब मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री थे या फिर आज की तारिख में प्रधानमंत्री हैं। 1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो 24 रुपये के बराबर एक डॉलर था और 1996 में जब मनमोहन सिंह ने कुर्सी छोड़ी तब रुपया डॉलर के मुकाबले 35 रुपये पार कर चुका था। और 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो रुपया एक डॉलर के मुकाबले 44 रुपये था और 2013 में यह 65 रुपये पहुंच चुका है।
एसोचेम के वरिष्ठ निदेशक अजय शर्मा कहते हैं, रुपये के अवमूल्यन का एक असर यह भी हो रहा है कि बैंकों ने अपने कर्ज महंगे कर दिए हैं। यानी जिन्होंने बैंकों से कर्ज लेकर घर,कार या अपने बच्चे को उच्च शिक्षा दिलाने देश से बाहर भेजा है, उनको और ईएमआई देनी होगी। सैर-सपाटे के लिए देश से बाहर जाने वाले भारतीयों का आंकड़ा भी तेजी से गिरने लगा है। मतलब साफ है कि यूपीए सरकार की भारत निर्माण के नाम पर देश को बेवकूफ बनाने की रणनीति टांय-टांय फिस्स हो गई है। विवेक शुक्ला
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