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कब तक चुपचाप रहेंगे हम
ये रोज-रोज की घुसपैठें
अपमानजनक छेड़ाखानी
दिल्ली की रहस्यमयी चुप्पी
दुश्मन की बढ़ती शैतानी
सिरकटी जवानों की लाशें
आई पर शासक मूक रहे
ये बाहें खोले खड़े रहे
वे सीधे मुंह पर थूक गये।
बोलों ओ मौनी बाबाओ,
कितना सन्ताप सहेंगे हम?
नस-नस में खोल रहा लावा
कब तक चुपचाप रहेंगे हम?
जन-गण के मन को पढ़ो कि क्या
इस बार चाहती है जनता
दिल्ली के स्वर में सिंहों की
हुंकार चाहती है जनता।
मिमियाहट उसे पसंद नहीं
ललकार चाहती है जनता
दस के बदले दो सौ लाशें
उपहार चाहती है जनता
अपमानों की इस भुट्ठी में
कितने दिन और दहेंगे हम?
नस-नस में खौल रहा लावा
कब तक चुपचापस रहेंगे हम?
इतना कुछ घट जाने पर भी
उबला है जिनका खून नहीं
रिपुओं के शीश उड़ाने का
जिनके सिर चढ़ा जुनून नहीं
जो चरण चाटते रहते हैं
हरदम अपने आक्राओं के
सपनेभी आते हैं जिनको
केवल भावी राजाओं के
वे कैसे देखें सीमा पर
पंजे बढ़ते यमराजों के
जो व्यस्त कसीदे पढ़ने में
बस नौसिखिये युवराजों के
बोलो कब तक उनको गिरवी
अपना यह देश धरेंगे हम?
नस-नस में खौल रहा लावा
कब तक चुपचाप सहेंगे हम?
हमको डर है यह वोट गणित
दोबारा घर को बांट न दे
मुश्किल से उपवन महका है
यूँ इसको कोई छांट न दे
डर है दिल्ली की कायरता
कहीं अमर तिरंगा झुका न दे
दलदल में पुन: गुलामी की
डर है भारत को धंसा न दे
चुप रहकर खोया ही खोया
अब सब कुछ साफ कहेंगे हम।
नस-नस में खौल रहा लावा
कब तक चुपचाप सहेंगे हम?
बलवीर सिंह ‘करुण’
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