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जजों की नियुक्ति में सरकारी पसंद का ठप्पा हटा, मगर ह्यअंकल जजह्ण जैसे जुमलों ने प्रतिष्ठा को लगाया धक्का
सर्वोच्च न्यायालय ने 2-जी स्पेक्ट्रम आदि मामलों में सरकार को आड़े हाथों लेते हुये भ्र्रष्टाचार नियंत्रण के सार्थक प्रयास किये हैं। जनता ने न्यायालय की इस सक्रियता को सराहा है। आम आदमी समझ रहा है कि भ्रष्ट नेताओं पर नकेल कसने के लिये न्यायालय ही कारगर हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय की इस सक्रियता की जड़ें सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति स्वयं किये जाने की प्रक्रिया में हैं।
पूर्व में सरकार द्वारा उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति की जाती थी। इस प्रक्रिया का सरकार ने दुरुपयोग किया। जैसे इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के तीन वरिष्ठ जजों को ह्यसुपरसीडह्ण करते हुये पसंदीदा व्यक्ति को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। सरकार की पसन्द से नियुक्त किये गये व्यक्ति के द्वारा सरकार के विरुद्घ कदम उठाना कठिन है। इसलिये सरकार के द्वारा जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया असंतोषजनक थी। उस प्रक्रिया में न्यायपालिका की स्वतंत्रता क्षीण हो रही थी।
न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष हो
देश का सर्वोच्च मानदण्ड हमारा संविधान है। अपेक्षा की जाती है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गठित सरकार सरकार के अनुरूप कार्य करेगी। परन्तु सरकार संविधान के विपरीत कदम उठाये तो उस पर रोक लगाने का अधिकार न्यायपालिका के पास है। इसलिये न्यायपालिका का स्वतंत्र और निष्पक्ष होना निहायत जरूरी है। वरना हिटलर जैसे व्यक्ति लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चयनित होकर जनविरोधी नीतियां लागू कर सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने समझा कि उनकी नियुक्ति यदि सरकार द्वारा की जायेगी तो उनके द्वारा सरकार की मनमानी के विरुद्घ कदम उठाना कठिन हो जायेगा। इस समस्या के समाधान के लिए नब्बे के दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति न्याय पालिका द्वारा स्वयं की जायेगी। यह व्यवस्था वर्तमान में लागू है। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में वरिष्ठतम जजों के ह्यकालेजियमह्ण द्वारा नये जजों की नियुक्ति की संस्तुति सरकार को भेजी जाती है। सरकार चाहे तो इन संस्तुतियों पर प्रश्न उठा सकती है। परन्तु सामान्य रूप से इन संस्तुतियों को स्वीकार कर लिया जाता है। इस प्रकार उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति में सरकारी दखल नाममात्र की रह गयी है। वर्तमान जजों के द्वारा भविष्य के जजों को नियुक्त किया जा रहा है। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा लाभ है कि न्यायपालिका पर सरकार की छाया लगभग शून्यप्राय: रह गयी है। लगता है कि पिछले समय में देखी गयी सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता इसी कारण संभव हुयी थी। लेकिन वर्तमान प्रक्रिया में दूसरी समस्यायें सामने आ रही हैं।
जजों द्वारा अपने नजदीकियों को जज नियुक्त किया जा रहा है। इन्हें प्रचलन में ह्यअंकल जजह्ण के नाम से जाना जाता है। अकुशल व्यक्तियों को भी जज बनाये जाने के आरोप लग रहे हैं। जजों द्वारा पर्याप्त संख्या में नये जजों की नियुक्ति की संस्तुति के अभाव में जजों की संख्या न्यून बनी हुयी है और मामलों की सुनवाई नहीं हो पा रही है। इन समस्याओं को देखते हुये लगता है कि हम कुएं से निकल कर खाई में आ गिरे हैं। सरकारी दखल से हमने मुक्ति पाई लेकिन जजों द्वारा न्यायपालिका को अपनी स्वार्थसिद्घि का साधन बना लिया गया है।
नियुक्ति की व्यवस्था सुधरे
इस समस्या से निपटने के लिये विश्व के तमाम देशों में ह्यकालेजियमह्ण की व्यवस्था की जा रही है। न्यायपालिका, सरकार और स्वतंत्र नागरिकों की कमेटी द्वारा जजों की नियुक्ति एवं उन पर निगरानी रखी जा रही है। ऐसी कमेटी बनाने की चर्चा अपने देश में भी चल रही है। यह व्यवस्था तुलना में अच्छी है परन्तु अपर्याप्त है। मुख्य समस्या है कि सरकार का हस्तक्षेप बना रहता है। कमेटी के सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है। अत: कमेटी में नेताओं का वर्चस्व बना रहता है। वे अनुकूल नागरिकों को नियुक्त कर सकते हैं।
अपने देश में ह्यचीफ विजिलेंस कमिश्नरह्ण आदि कुछ संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के लिये (सीवीसी) ऐसे ही ह्यकालेजियमह्ण की व्यवस्था है। कमेटी में प्रधानमंत्री के साथ-साथ विपक्ष के नेता रहते हैं। परन्तु समस्या ज्यों की त्यों बनी हुयी है। सरकार के द्वारा विपक्ष के नेता के सुझाव को नजरन्दाज किया जा सकता है। सीवीसी के पद पर श्री पी. जे.थामस को सरकार ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की आपत्ति के बावजूद नियुक्त कर दिया था। इसके अतिरिक्त सत्तारूढ़ एवं विपक्ष की पार्टियों में भी एका हो सकता है। उदाहरणत: सूचना के अधिकार को राजनीतिक पार्टियों पर लागू करने का सभी प्रमुख पार्टियां विरोध कर रही हैं। अत: स्वतंत्र और निष्पक्ष व्यक्तियों की नियुक्ति ऐसी कमेटी द्वारा की जायेगी, इसमें संशय है।
उच्च न्यायपालिका में भ्र्रष्टाचार व्याप्त होने के भी आरोप लगते आये हैं। जजों पर भ्रष्टाचार के आरोपों पर आज तक कोई कार्यवाही संभव नहीं हुयी है। संविधान में व्यवस्था है कि राज्य सभा और लोक सभा के प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के जज को पदमुक्त किया जा सकता है। जस्टिस वी. स्वामी, एम. एम. पंछी एवं ए. एस. आनंद के विरुद्घ भ्र्रष्टाचार के आरोप लगे, कुछ आरोप सिद्घ भी हुये परन्तु संसद में प्रस्ताव पारित नहीं हो सके। जज को हटाने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। इस जटिलता एवं जांच प्रक्रिया की अस्पष्टता को दूर करने के लिये सरकार ने एक कानून प्रस्तावित किया है। प्रथम स्तर पर ह्यनेशनल जुडिशियल ओवरसाइट कमेटीह्ण, दूसरे स्तर पर ह्यकम्प्लेंट स्क्रूटिनी पैनलह्ण एवं तीसरे स्तर पर ह्यइनवेस्टिगेशन कमेटीह्ण बनाने का प्रस्ताव है। जजों की निगरानी के लिये इस प्रकार की स्पष्ट प्रक्रिया के बनाये जाने का स्वागत किया जाना चाहिए। परन्तु यह प्रक्रिया प्रभावी होगी इसमें गहरा संदेह है। दूसरे, जज के विरुद्घ भ्रष्टाचार के आरोप लगाना एवं सिद्घ करना कठिन कार्य है। कई जज स्तरहीन निर्णय देते हैं। दोनों पक्षों की बात को सुने-समझे बिना ही निर्णय दे देते हैं। ऐसे जजों को पद मुक्त करने की कोई व्यवस्था नहीं है।
उचित जनप्रतिनिधि आगे आएं
हमें नये सिरे से विचार करना चाहिये। स्पष्ट है कि अब तक लागू की गईं दोनों प्रक्रियाएं संतोषप्रद नहीं हैं। सरकार द्वारा नियुक्ति में न्यायपालिका की स्वतंत्रता जाती है। न्यायपालिका द्वारा स्वयं नियुक्ति में न्यायपालिका की जवाबदेही नहीं रहती है। अत: हमें ऐसी तीसरी प्रक्रिया अपनानी होगी जिसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जवाबदेही दोनों सुनिश्चित की जायें।
न्यायपालिका की अन्तिम जवाबदेही जनता के प्रति है। प्रश्न है कि जनता का प्रतिनिधित्व कौन करे? नेताओं को जनता अपना प्रतिनिधि नहीं मानती है अत: ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिये कि नेताओं को छोड़कर जनता के दूसरे प्रतिनिधियों पर न्यायपालिका के प्रबंधन की जिम्मेदारी दी जाये। ऐसे तमाम जन प्रतिनिधि उपलब्ध हैं। जैसे बार काउंसिल, मेडिकल काउंसिल एवं इंस्टीट्यूट आफ चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट्स के अध्यक्ष, सबसे बड़ी टे्रड यूनियन के अध्यक्ष, वरिष्ठतम अर्जुन पुरस्कार विजेता, सेना के सेवानिवृत्त कमान्डर इत्यादि। इन व्यक्यिों की कमेटी को जजों की नियुक्ति और निष्कासन का अधिकार दे देना चाहिये। ऐसा करने से न्यायपालिका में सरकार की दखल नहीं होगी और न्यायपालिका भ्रष्टाचार में भी लिप्त नहीं रह सकेगी। इस ह्यकालेजियमह्ण को भ्रष्ट एवं अकुशल जजों को बर्खास्त करने का अधिकार भी देना चाहिये। कहा जा सकता है कि यह ह्यकालेजियमह्ण भ्री भ्रष्ट हो सकता है। परन्तु यह ह्यकालेजियमह्ण सरकार तथा न्यायपालिका के ह्यकालेजियमह्ण से बेहतर होगा। कारण यह कि इसके सदस्य दूसरी स्वतंत्र प्रक्रिया से नामित होंगे। इन्हें प्र्रभावित करना तुलना में कठिन होगा।
दूसरा सुझाव है कि जजों की जवाबदेही स्वयं जजों के कन्धों पर डाली जाये, परन्तु इसके लिये ठोस ढांचा बना दिया जाये। गुप्त मतदान सरीखी कोई व्यवस्था जजों के लिये बनाई जा सकती है। हर दूसरे या तीसरे वर्ष न्यूनतम रैंक पाने वाले जज को बर्खास्त कर देना चाहिये।
तीसरा सुझाव है कि सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जजों की दूसरी कुर्सियों पर नियुक्ति पर रोक लगाई जाये। वर्तमान में इनकी नियुक्ति राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नेशनल ग्रीन ट्राइब्युनल आदि में की जाती है। इन नियुक्तियों के लालच में जजों का झुकाव सरकार की ओर हो जाता है।
इन सुझावों को लागू करने से न्यायपालिका में निश्चित ही सुधार आयेगा। वर्तमान में आम आदमी की प्रमुख शिकायत है कि वकील द्वारा बार बार समय ले लिया जाता है। बारम्बार तारीख लगने से वकील फीस अधिक वसूल करते हैं। जजों द्वारा वकील के इस कारनामे पर रोक नहीं लगाई जाती है। शिकायत है कि जजों की गुणवत्ता में ह्रास हो रहा है। यहां भी समस्या नियुक्ति से शुरू होती है। भ्रष्ट अथवा अकुशल जजों द्वारा अपने सरीखे व्यक्तियों को जज बनाने की संस्तुति दी जा रही है। इस समस्या का समाधान है कि ईमानदार व्यक्तियों की नियुक्ति की जाये। जजों की जवाबदेही नहीं है इसलिये इन्हें नियुक्ति का अधिकार नहीं देना चाहिये। सरकार पर नियंत्रण करना है इसलिये सरकार को नियुक्ति का अधिकार नहीं देना चाहिये। तीसरी प्रक्रिया बनानी चाहिये जो कि न्यायपालिका और सरकार से स्वतंत्र हो और पारदर्शी हो।
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