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लोकशाही हनक बढ़ी और चमक घटी

by
Aug 12, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Aug 2013 14:38:45

सांस्कृतिक क्रांति से होगी लोकतंत्र में शांति
स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक, 66 वर्ष लम्बी यात्रा की क्या उपलब्धियां हैं जिन पर हम गर्व करें? यह तो सत्य है कि इस कालखंड में हमारी जनसंख्या कई गुना बढ़ी है, बहुमंजिली अट्टालिकाओं, पांच सितारा होटलों, अस्पतालों, नर्सिंग होम्स, डाक्टरों और दवा विक्रेताओं, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों, मोटर साइकिलों, कारों, विमान सेवाओं, कम्प्यूटर और मोबाइल, टेलीविजन और फ्रिज, गैस के चूल्हों, एयर कंडीशनरों आदि आधुनिकता और प्रगति के प्रत्येक मानक की संख्या अंधाधुंध बढ़ी है। पर क्या भारत के स्वाधीनता आंदोलन की मूल प्रेरणा स्वाधीन भारत का यही चित्र निर्माण करने की थी? 1947 में भारत छोड़कर जाने की ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की क्या मजबूरियां थीं, यह इस लेख में चर्चा का विषय नहीं है। पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि खंडित भारत में सत्ता के सूत्र जिन हाथों में आये वे सभी महात्मा गांधी को अपना प्रेरणा पुरुष मानते थे, वे सब उस कांग्रेस की उपज थे, जिसे गांधी जी ने 1920 में शहरी अभिजात्य वर्ग के चंगुल से निकालकर ग्रामीण भारत से जोड़ दिया था। 1909 में लिखित हिन्द स्वराज शीर्षक छोटी सी पुस्तिका में उन्होंने ह्यस्वराजह्ण को राजनीतिक परिभाषा से बाहर निकालकर सभ्यता-परक अर्थ दिया था। गांधी जी ने कहा था कि ह्ययदि अंग्रेज चले जाएं पर उनकी सभ्यता यहां रहे तो मैं कहूंगा ह्यस्वराजह्ण नहीं मिला, भले ही अंग्रेज यहां रहें पर उनकी सभ्यता यहां से चली जाए तो मैं कहूंगा कि हमें ह्यस्वराजह्ण मिला।ह्ण
इन 66 वर्षों में गांधी के सपनों के स्वराज की दिशा में हम कितना आगे बढ़े? राष्ट्र जीवन के किस क्षेत्र में हमने गांधी को अभिप्रेत जीवन दर्शन के आधार पर नई रचनाओं का सूत्रपात किया? अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के परंपरागत सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के आधार पर गांधी जी जिस नैतिक, संयमी, दारिद्रय यानी सादगी का वरण करने वाले जिस ग्राम स्वराज या रामराज्य की बात किया करते थे, क्या उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने उस दिशा में बढ़ने का तनिक प्रयास भी किया? स्वतंत्रता की देहरी पर खड़े होकर अक्तूबर 1945 में अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहरलाल के साथ अपने पत्राचार में उन्होंने आग्रहपूर्वक दोहराया था कि मैं हिन्द स्वराज में प्रस्तुत चित्र पर आज भी अडिग हूं। मेरे सपनों का स्वाधीन भारत शहरों में नहीं गांवों में रहेगा, महलों में नहीं झोपड़ों में जिएगा। पूरी दुनिया चाहे जिस रास्ते पर जाए पर हमें अपना रास्ता अलग बनाना होगा। 1915 में भारत लौटने के बाद से ही गांधी जी ने पश्चिमी मशीनी सभ्यता को अस्वीकार कर एक श्रम प्रधान प्रकृति पोषक वैकल्पिक सभ्यता का चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। उनका जीवन दर्शन, उनकी जीवन शैली और सभ्यता का चित्र भारतीय जनमानस को रुचता था। इसीलिए स्वाधीनता आंदोलन में भारतीय समाज बड़े पैमाने पर उनके पीछे चल पड़ा था ब्रिटिश साम्राज्यवाद और गांधी के बीच जो युद्ध चला वह राजनीति बनाम सभ्यता का युद्ध था। गांधी की लोकप्रियता पर सवार होकर उनके अनुयायी 1947 में सत्तारूढ़ हो सके।
दोष समाज का नहीं
पर उन्होंने स्वाधीन भारत को गांधी के रास्ते पर बढ़ाने के बजाए ब्रिटिश शासकों द्वारा स्थापित संस्थाओं का ही ज्यामितिक गति से दिन दूना रात चौगुना विस्तार किया। भारत के आज के चित्र को देखकर प्रश्न उठता है कि यदि अंग्रेज शासक यहां बने रहते तो क्या भारत का चित्र इससे भिन्न होता? डा.राममनोहर लोहिया की यह टिप्पणी स्मरण आ जाती है कि ह्यकांग्रेस सरकार=ब्रिटिश सरकार, प्रशासन-कुशलता +भ्रष्टाचार।ह्ण
ब्रिटिश शासकों द्वारा स्थापित संवैधानिक, प्रशासनिक, न्यायप्रणाली, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक विकास की सब संस्थाओं का अंधाधुंध विस्तार करने के बाद भी क्या हम किसी भी क्षेत्र में अन्य राष्ट्रों की तुलना में अपने लिए उच्च स्थान प्राप्त कर पाये हैं? इसका दोष हम भारतीय समाज को नहीं दे सकते क्योंकि इसी समाज के पुत्र विदेशों के उन्मुक्त वातावरण में जाकर अपनी प्रतिभा और बुद्धिबल की छाप बैठा रहे हैं। अमरीका जैसे शक्तिशाली देश की समृद्धि में योगदान कर रहे हैं, भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों के लिए आदर भाव जगा रहे हैं। क्या इससे विदित नहीं होता कि स्वाधीन भारत के वातावरण में प्रतिभा और योग्यता को विकास का समुचित अवसर नहीं मिल पा रहा जिससे भारत से प्रतिभा पलायन हो रही है।
हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, जबकि एशिया के अधिकांश देशों में लोकतंत्र का दीपक या तो जला ही नहीं, जला तो जल्दी ही बुझ गया या बुझने के निकट है, भारत में लोकतंत्र की यात्रा अनवरत जारी है। लोकतंत्र के जिस लक्षण पर हमें सबसे अधिक गर्व है वह है लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनावों का लगातार होना, वयस्क मताधिकार के द्वारा सरकारों का चुना जाना। हमें गर्व है कि 1975 में इंदिरा गांधी के द्वारा आपात स्थिति की घोषणा के बाद भी 1977 में मतदान के द्वारा ही भारत की जनता ने पहली बार केन्द्र में सत्ता परिवर्तन का चमत्कार कर दिखाया। पर उस महत्वपूर्ण चुनाव में भी उत्तर और दक्षिण भारत का व्यवहार इतना भिन्न क्यों रहा? सत्ता परिवर्तन के बाद जो नेतृत्व जनता पार्टी के नाम से केन्द्र में सत्तारूढ़ हुआ, उसमें विपक्षी दलों का सर्वोच्च नेतृत्व था, वह आपातकाल की अग्नि परीक्षा से गुजर चुका था, पर उसी नेतृत्व ने सत्ता संघर्ष में अपनी ही सरकार को केवल दो ढाई वर्ष में गिरा दिया और व्यक्तिगत सत्ता के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने वाली इंदिरा गांधी के सत्ता में वापस आने की स्थिति पैदा कर दी। क्या हमारे लोकतंत्र के चरित्र को समझने के लिए यह अनुभव पर्याप्त नहीं है?
 हम लोकतंत्र को राजतंत्र या वंशतंत्र से श्रेष्ठ क्यों मानते हैं? इसीलिए तो कि उसमें पूरा समाज सत्ता में समान रूप से सहभागी है। हम गर्व के साथ कहते हैं कि हमारे लोकतंत्र की जड़ें वयस्क मताधिकार में हैं। वयस्क मताधिकार का अर्थ है कि प्रत्येक भारतवासी किसी समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, किसी समान निष्ठा को लेकर इस पूरे देश को एक समान लक्ष्य की ओर ले जाने के लिए कृत्संकल्प हैं। इसीलिए तो स्वाधीन भारत द्वारा अंगीकृत संविधान की उद्देशिका या भूमिका में हमने अपना परिचय दिया है ह्यहम भारत के लोग।ह्ण और उसके नीचे हमारी संविधान यात्रा के लक्ष्य की व्याख्या की गई है, जो इस संवैधानिक यात्रा का गन्तव्य है। राष्ट्र के रूप में किसी समाज को बांधने वाला पहला सूत्र है उसका भौगोलिक अधिष्ठान। इसीलिए गांधी जी ने 1909 में ही अपनी ह्यहिन्द स्वराजह्ण में घोषित किया था कि अंग्रेजों के आने के पहले भी हम एक राष्ट्र थे क्योंकि हमारे पूर्वजों ने इस विशाल भूखंड की पैदल या बैलगाड़ी से तीर्थयात्रा की थी, भारत की विविधता का साक्षात्कार किया था, उसके चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी। यहां गांधी जी भारत के भौगोलिक एकता का साक्षात्कार कराने वाली सांस्कृतिक आधार भूमि का स्मरण दिलाते हैं और रामराज्य की स्थापना को ही भारत के स्वाधीनता संघर्ष का अंतिम लक्ष्य घोषित करते हैं। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारतीय समाज क्षेत्र, जाति और पंथ की परंपरागत संकीर्ण निष्ठाओं को लांघकर गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़ा।
कूटनीतिक युद्ध
यहीं से गांधी जी और अंग्रेजों के बीच एक कूटनीतिक युद्ध शुरू हो गया। स्वाधीनता द्वारा प्रदीप्त राष्ट्रीय एकता की भावना को कुंठित करने के लिए अंग्रेजों ने हमारी इतिहास प्रदत्त जाति, जनपद और पांथिक निष्ठाओं को गहरा करने के साथ साथ उन्हें परस्पर स्पर्धा और विरोधी बनाने का कूटनीतिक प्रयास किया। गोलमेज सम्मेलनों और पूना पैक्ट में गांधी जी व कांग्रेस नेतृत्व ने माना कि पृथकतावाद का संकट नेतृत्व की ओर से आ रहा है, सामान्य भारतवासी की ओर से नहीं। उनका विश्वास था कि भारतीय समाज के अचेतन मानस में राष्ट्रीय एकता की भावना बहुत सुदृढ़ है और यदि एक बार सामान्य जन को ऊपर आकर भूमिका निभाने का अवसर मिलेगा तो सब ठीक हो जाएगा। इस विश्वास के भरोसे गांधी जी और उनके पीछे-पीछे पूरे कांग्रेस संगठन ने मई 1934 से वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित संविधान सभा के निर्माण की मांग उठाना शुरू कर दिया। फरवरी 1939 के ह्यहरिजनह्ण में गांधी जी ने लिखा कि हमारी राष्ट्रीय एकता में बाधक साम्प्रदायिक एवं जातिवादी समस्याओं का एकमात्र हल वयस्क मताधिकार से निर्वाचित संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान में ही निहित है इसलिए इस एकमेव मांग पर ही हमारा पूरा आंदोलन केन्द्रित होना चाहिए। गांधी जी भारत में लोकतंत्र के पुनरुज्जीवन का यही उपाय देखते थे। किंतु संविधान सभा के खेल में भी अंग्रेजों ने गांधी जी को कूटनीतिक मात दी। उन्होंने 1946 में भारत को संविधान सभा दी पर उसका गठन वयस्क मताधिकार से न होकर केवल 16 प्रतिशत मताधिकार से हुआ। उस संविधान सभा ने गांधी जी की लोकतंत्र की कल्पना के बजाए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा आरोपित ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की विकृत अनुकृति, जिसका मूल उद्देश्य भारत पर ब्रिटिश दासता को बनाये रखना और इस हेतु ह्यफूट डालो राज करोह्ण की नीति के क्रियान्वयन था, उसी तथाकथित संविधानिक सुधार प्रक्रिया में से जन्मे 1935 के भारत एक्ट के मूल ढांचे को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। गांधी जी की वयस्क मताधिकार पर आधारित ग्राम पंचायत से ऊपर की ओर बढ़ने वाले लोकतंत्र की संविधानिक रचना पर उस संविधान सभा में विचार तक नहीं किया गया।
दलों में बिखरती राजनीति
ब्रिटिश कूटनीति द्वारा निर्मित 1935 के एक्ट के दायरे के भीतर ही संविधान सभा बहस करती रही। न उसने भारतीय राष्ट्र की वैज्ञानिक व्याख्या की, न अल्पसंख्यक बहुसंख्यक की अप्रासंगिकता पर विचार किया, न ही उसने व्यक्ति को अधिकार के बजाए कर्तव्य भावना से बांधने का प्रयास किया, न उसने भारत की इतिहास प्रदत्त विविधता के आलोक में संकीर्ण निष्ठाओं को राष्ट्रीयता की ओर बढ़ाने के संविधानिक उपाय खोजे, न उसने ब्रिटिश शासन की मजबूती के लिए विकसित न्याय प्रणाली और नौकरशाही को स्वाधीन भारत की आवश्यकता के अनुरूप ढालने की चिंता की। वयस्क मताधिकार पर आधारित दल और वोट की ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को हमने लोकतंत्र मान लिया। संसार के सबसे भारी भरकम लिखित संविधान को लेकर हमने अपनी लोकतंत्र की यात्रा प्रारंभ की। किंतु इस यात्रा के 66 वर्ष बाद आज हमारा लोकतंत्र कहां खड़ा है? 9 दिसम्बर, 1946 से 26 नवम्बर, 1949 तक संविधान सभा की बैठकों के समय स्वाधीनता आंदोलन में से उभरी राष्ट्रीय चेतना भारतीय मानस में बलवती थी। इसलिए उस आंदोलन की वाहक होने के नाते कांग्रेस अखिल भारतीय दल की भूमिका कुछ समय तक निभा पायी। किंतु क्रमश: भारतीय राजनीति अनेक दलों में बिखरने लगी। इस्लामी विचारधारा ने तो भौगोलिक राष्ट्रवाद को कभी स्वीकार ही नहीं किया और इस्लाम को ही अपनी सामूहिक पहचान का एकमात्र आधार माना। इसलिए खंडित भारत में बस गये मुस्लिम समाज की मूल प्रेरणा राष्ट्रवाद न होकर इस्लाम ही बनी रही और उसने रणनीति के तहत पूरे भारत में सत्तारूढ़ दल कांग्रेस का दामन थाम लिया। नेहरू जी ने मुस्लिम पृथकतावाद को सेकुलरवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठावान हिन्दू समाज को साम्प्रदायिक घोषित कर दिया। इस चुनाव प्रणाली में से उभरा नेतृत्व राष्ट्र के बजाय दल, और दल के भीतर अपने सत्ता हित को प्राथमिकता देने लगा। उसने जाति और क्षेत्र को सामूहिक वोट बटोरने के सुगम साधन के रूप में देखा। फलत: भारतीय राजनीति जातिवादी और क्षेत्रवादी दलों में बिखरने लगी। स्वाधीनता के बाद राष्ट्रीयता के क्षरण का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि तमिलनाडु में 1937 से 1967 तक कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व रहा। वहां 1967 के बाद से आर्य द्रविड़ द्वंद्व में से उपजी क्षेत्रीय द्रविड़ संस्थाओं का वर्चस्व है, स्वयं कांग्रेस एक ह्यफुटनोटह्णबन कर रह गयी है और स्वतंत्रता के बाद जन्मे जनसंघ और उसके परवर्ती अवतार भारतीय जनता पार्टी के अ.भा.राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा के कारण तमिलनाडु की राजनीति में अब तक कोई स्थान नहीं मिल पाया है। आज स्थिति यह पहुंच गयी है कि राजनीतिक विश्लेषकों ने यह मान लिया है कि द्विदलीय राजनीति का युग समाप्त हो गया है। अखिल भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठावान कोई अकेला दल केन्द्र में सत्तारूढ़ नहीं हो सकता। अब छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन करके ही वह सत्ता में रह सकता है। अर्थात अब गठबंधन धर्म का युग है और गठबंधन धर्म का अर्थ है दलों के साथ मंत्रिपदों व उनके दलीय स्वार्थों के लिए सौदेबाजी करना। जोड़ तोड़ और सौदेबाजी का यह खेल इतना अधिक चर्चित है कि उसके उदाहरण गिनाना यहां आवश्यक नहीं है।
धन-बल और डंडा-बल
चुनाव राजनीति में सिद्धांतवाद, और आदर्शवाद के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। खुल्लमखुल्ला सम्प्रदायवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद की वोट बैंक राजनीति का खेल चल रहा है। चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं को तरह-तरह के प्रलोभन दिये जा रहे हैं। चुनावों में धन बल और डंडेबल का प्रभाव बढ़ता जा रहा है जिसने पूरी राजनीति को भ्रष्टाचार के गर्त्त में धकेल दिया है। पहले राजनेता चुनाव जीतने के लिए बाहुबलियों का सहारा लेते थे अब बाहुवली स्वयं ही चुनाव जीतकर संसद व विधानसभाओं में पहुंच रहे हैं। अभी पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने दागी नेताओं को टिकट न देने का आदेश दिया तो सब दल इस आदेश के विरुद्ध एकजुट हो गये। मीडिया ने आंकड़े प्रकाशित किये कि संसद में कम से कम एक तिहाई सांसद दागी हैं और कोई भी दल उनसे मुक्त नहीं है। पिछले चुनाव परिणामों के विश्लेषण से प्रगट हुआ कि दागी उम्मीदवार जेल में बंद रहते भी जीत जाते हैं जबकि दाग मुक्त उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत बहुत कम रहता है। अब तो यह मान लिया गया है कि कोई ईमानदार और चरित्रवान व्यक्ति चुनाव राजनीति के अखाड़े में उतर ही नहीं सकता, उतरेगा तो जीत नहीं सकेगा, यदि एक बार जीत गया तो शिखर की ओर नहीं बढ़ सकता। जीत का आधार प्रत्याशी का चरित्र न होकर उसकी जाति हो गयी है। इसलिए उ.प्र.में बसपा और सपा जैसे दल खुलकर जाति सम्मेलन बुला रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जाति सम्मेलनों पर रोक लगाने की कोशिश की तो बसपा सुप्रीमो मायावती ने उसकी खुलकर आलोचना की। सर्वोच्च न्यायालय ने मतों के लिए राजनीतिक दलों द्वारा खैरात बांटने पर भी रोक लगाने की कोशिश की है। केन्द्रीय सूचना आयोग ने जनता की मांग पर राजनीतिक दलों को सूचनाधिकार के अन्तर्गत लाने की कोशिश की तो उसका सबसे पहले विरोध सोनिया पार्टी की ओर से हुआ। एक ओर तो सोनिया सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम के निर्माण का पूरा श्रेय स्वयं बटोरना चाहती हैं दूसरी ओर राजनीति में पारदर्शिता लाने वाले सूचना आयोग के निर्देश का विरोध कर रही हैं। उनकी पहल पर तृणमूल कांग्रेस के अलावा सब राजनीतिक दल अब इस प्रश्न पर एकजुट हो गये हैं। इसी से स्पष्ट है कि जो राजनीतिक नेतृत्व स्वयं को भारतीय लोकतंत्र का प्रतिनिधि घोषित करता है, संसद की सर्वोच्चता का राग अलापता है वह जनमत के सामने पारदर्शिता का उदाहरण स्वयं नहीं बनना चाहता।
 सच्चे लोकतंत्र का अर्थ है सामूहिक हितों पर केन्द्रित विचारधाराओं के आधार पर दलों का गठन, जनता के बीच प्रत्यक्ष कार्य करके अपनी योग्यता, कर्मठता व सेवा भावना के आधार पर मतदाताओं का विश्वास प्राप्त करना। किंतु भारतीय लोकतंत्र का दृश्य इससे बिल्कुल भिन्न है। यहां लोकतंत्र के बजाय वंशतंत्र का प्राधान्य बढ़ रहा है। भाजपा और वामपंथी दलों को छोड़कर अधिकांश राजनीतिक दल वंश या व्यक्ति केन्द्रित बन गये हैं और अपने वंश को सत्ता में बनाये रखने के लिए वे जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद का सहारा ले रहे हैं।
लोकतंत्र का तेजी से क्षरण हो रहा है। राजनीति के पतन का प्रभाव लोक के चरित्र पर हो रहा है। वयस्क मताधिकार की सार्थकता के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक मतदाता अपना मत दे और कम से कम 51 प्रतिशत मत पाने वाला निर्वाचित हो। किंतु आज स्थिति यह है कि अधिकांश राज्यों में 50 प्रतिशत मतदान नहीं होता। आधे से कम मतदान का 30-35 प्रतिशत मत पाने वाला प्रत्याशी विधायक बन जाता है अर्थात वह अपने चुनाव क्षेत्र का एक चौथाई से कम जनता का प्रतिनिधि होता है।
यक्ष प्रश्न
राजनीति के सर्वतोमुखी पतन के बीच भी अभी तक प्रशासन की गाड़ी को ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्मित अ.भा.प्रशासनिक सेवाएं खींचती रही हैं। स्वतंत्रता के पूर्व यह नौकरशाही अपने को ब्रिटिश शासकों के प्रति जवाबदेह मानती थी। पर स्वतंत्रता के बाद उसे जनता के प्रति जवाबदेह माना गया। अपने को जनता का प्रतिनिधि कहने वाले राजनेताओं ने उसे अपने प्रति जवाबदेह मान लिया। और यहीं से नौकरशाही का पतन आरंभ हो गया। अब स्थिति यह है कि नियमों का ईमानदारी से पालन करने वाला नौकरशाह अपने को संकट से घिरा पाता है। हरियाणा का अशोक खेमका और उत्तर प्रदेश की दुर्गा शक्ति नागपाल इसके ताजे उदाहरण हैं। ऐसे उदाहरणों की लम्बी श्रृंखला है।
लोकतंत्र के इस क्षरण को क्या न्यायपालिका अपने बल पर रोक सकती है? आखिर न्यायपालिका को भी मनुष्य ही चलाते हैं और वे मनुष्य भी उसी समाज में से आते हैं जो राजनेता पैदा करता है, नौकरशाह पैदा करता है, पुलिस अफसर पैदा करता है। क्या इन छयासठ वर्षों में हमारे समाज का नैतिक स्तर नहीं गिरा है? क्यों गिरा? किसने गिराया? इन प्रश्नों की मीमांसा का यह अवसर नहीं है। कौन कहेगा कि देश का चरित्र नहीं गिरा है। यदि कोई प्रत्याशी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा होने के बाद भी यदि भारी अंतर से जीत जाय, यदि कोई बाहुबली जेल में बंद रहकर भी जीत जाए तो उसे जिताने वाले समाज को किस दृष्टि से देखें? लोकतंत्र समाज का प्रतिबिम्ब होता है यह स्थापित सत्य है कि समाज जैसा होगा वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से वैसा ही नेतृत्व चुनकर ऊपर फेंकेगा? यह सत्य है कि हजारों वर्षों के संस्कारों के कारण हमारे समाज की लोकतांत्रिक चेतना पूरी तरह मरी नही है और शायद इसीलिए अनेक विकृतियों के बावजूद चुनाव प्रक्रिया पर आधारित लोकतांत्रिक ढांचा चरमराकर भी जीवित है। किंतु लोकतंत्र का यह संविधानिक ढांचा भारत की इतिहास प्रदत्त प्रकृति और स्थिति को प्रतिबिम्बित नहीं करता। उसके लिए भारत को आत्मबोध जगाना होगा, आत्मबोध के लिए एक सांस्कृतिक क्रांति से गुजरना होगा। यही आशा का केन्द्र है। पर इसकी शुरुआत राजनीति से नहीं, नौकरशाही से न हो, न्यायपालिका से नहीं, स्वयं समाज से करनी होगी। समाज का चरित्र शोधन होगा तो सब संस्थाओं का चरित्र बदलेगा पर समाज के चरित्र शोधन की प्रक्रिया का वाहक कौन बने? यही सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है और इसी का उत्तर हम सभी को खोजना है।    ल्ल

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