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प्रकृति में परमेश्वर की तलाश

by
Aug 3, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Aug 2013 14:48:38

हर–हर–बम–बम का समवेत् स्वर हिन्दी पट्टी में श्रावण मास की पहचान है। दिल्ली से देवघर तक, राजमार्गों से गली–चौपालों तक एक भगवा लकीर सी खिंची है। महादेव को रिझाने निकली कांवड़ियों की टोलियों ने सावन की फुहारों को उत्सवी रंग दे दिया है। मगर सावन की यह सारी कहानी क्या सिर्फ एक लोटा गंगाजल तक सीमित है? नहीं, इस लुटिया भर जल में समाज का पहाड़–सा हौसला और सदियों की समझ समाई है।

हिन्दू समाज की उत्सवधर्मी परंपरा, प्रकृति को परमेश्वर का ही रूप मान पूजने–सहेजने की है। 'ग्लोबल वार्मिंग' और तबाही की कड़ियां जोड़ते–समझाते नवज्ञानी जब ऐसी परंपराओं को रूढ़ियों और समाज की बेड़ियों की तरह देखते हैं तो तरस आता है।

पुरातन हिंदू संस्कृति के अपने अद्भुत वैज्ञानिक–सामाजिक समीकरण हैं जो युगांतरकारी बदलावों में भी इस सभ्यता को जीवित रखते आए हैं। कांवड़ यात्रा के संदर्भ में इसे यूं समझा जा सकता है–

यह श्रावणी आयोजन समाज को दुष्कर लक्ष्य हासिल करने की चुनौती और इसके लिए टोलियों में संगठित होने का मंत्र देता है। संसाधनों के बिना, समाज की सात्विक शक्ति के भरोसे, एक किशोर को पर्वत सा संकल्प उठाने की शक्ति से भर देता है। यह वह आयोजन है जो पानी बचाने और नदियों को इस स्तर तक पावन बनाए रखने का प्रतीकात्मक स्मरण कराता है कि उसका जल प्रभु को भी प्रसन्न कर दे।

आशु यानी शीघ्र, तोष यानी प्रसन्नता…सो, सहज–शीघ्र खुश होने वाले भगवान आशुतोष का यह संदेश हम इस सावन में जितना अच्छे से समझेंगे प्रकृति के जरिए परमेश्वर की कृपा उसी अनुपात में हमें शीघ्र प्राप्त होगी।

सुधारों के विरोध में
सत्ता की पालेबंदी

सूचना का जो अधिकार जनता के लिए वरदान है वह राजनीतिक दलों के लिए अभिशाप क्यों कर होगा? लोकतंत्र के मंदिर में दागियों को रोकने की पहल में आखिर बुरा क्या था? केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले खारिज किए जाने लायक थे या फिर लोकतंत्र के पहरुओं की ही नीयत में खोट पैदा हो गया? सवाल कई हैं, परंतु एक बात जो साफ समझ आती है वह यह है कि भारतीय लोकतंत्र संभवत: अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है।

ऊपरी तौर पर भले महसूस ना हो, परंतु स्थितियां काफी खराब हैं। ज्यादा खतरनाक बात यह कि सत्ताधीशों का अहं पहले वैयक्तिक दिखता था और गुस्सा प्रत्यक्ष होता था। आज इसका दायरा और रूप बदल गये हैं। दिखता कोई नहीं, लेकिन सारी सत्ता का चेहरा एक। आज पार्टी लाइन से परे सभी दल जनाकांक्षाओं और चुनाव सुधारों को रौंदने के लिए मिलकर खड़े दिखाई देते हैं। जनप्रतिनिधियों द्वारा अपनी बिरादरी को अतिविशेष और सारे कानूनों से परे मानने की यह पहल देश को किस दिशा में पहुंचाएगी यह राजनीतिक भ्रष्टाचार और शासकीय संवेदनहीनता की खबरें बताती हैं। संसद और राजनीतिक दलों की विशेष स्थिति से इनकार नहीं। यह भी ठीक कि 'एक दिन की जेल पर नामांकन रद्द करने' जैसे बिन्दु राजनीतिक दलों की चिन्ता बढ़ाते हैं। परंतु जनप्रतिनिधियों के अधिकार कुछ कर्तव्यों के खूंटे से बंधे हैं। संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 संसद को यह जिम्मेदारी भरा अधिकार देते हैं कि वह जनप्रतिनिधियों की योग्यता की कसौटी तय करे। क्या यह काम पूरी ईमानदारी से हुआ है? कर्तव्यों का खूंटा तुड़ाकर स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्छंद विचरने की आजादी आखिर क्यों मिलनी चाहिए? जनप्रतिनिधियों की ऐसी कल्पना क्या संविधान की मूल भावना रही होगी?

दु:ख की बात यह है कि शुचिता के जो स्वर संसद से उठने चाहिए थे वे सीआईसी और सर्वोच्च न्यायालय से उठे, इस पर भी उन्हें प्रजातंत्र के कथित 'पहरेदारों' ने ही शांत करा दिया। महिला आरक्षण और समान नागरिक संहिता जैसे अहम मुद्दों पर बिखर जाने वाले दलों का आरटीआई और दागियों के मुद्दे पर एकजुट होना बताता है कि सत्ता का रंगमंच धरातल पर खड़ी जनता के मुकाबले इतना ऊंचा हो गया है कि उस पर से जनाकांक्षाओं का ज्वार और जमीनी सच नहीं दिखता।

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