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मिल्खा की दौड़, पलायन के दर्द का दस्तावेज

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Jul 27, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 27 Jul 2013 16:37:34

 

     विभाजन की पीड़ा और आंखों के सामने अपनों की हत्या के तैरते दृश्य लेकर जब 15 साल बाद 1962 में मिल्खा सिंह पाकिस्तान के अपने उस गांव पहुंचे तो उनके पैतृक घर पर मिला उनका वही पुराना बचपन का दोस्त जो बंटवारे के वक्त वहीं रह गया था, तब एक मौलवी ने उसे बचाया और अब उसकी वेशभूषा बदल गई थी। अब वह मुसलमान बन गया था। सर पर गोल जालीदार टोपी, तहमद। बड़ी मासूमियत से वह बोला – 'यारा, लोक खराब नई होंदे, ओ वक्त खराब-सी।'

पर क्या सच में वह वक्त खराब था। पाकिस्तान बनने और विभाजन का पूरा सच यही है कि देश का बंटवारा चाहने वाले वे लोग खराब थे और आज भी खराब ही हैं। 47 से अब तक वक्त बहुत बदल गया है, पर वे लोग नहीं बदले। यदि लोग बदले होते तो आज भी पाकिस्तान से भागकर हिन्दू भारत नहीं आ रहे होते और जो बचे हैं उनकी वह हालत नहीं होती जो आज मिल्खा के दोस्त की है। पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हमले, युवतियों के अपरहण और जबरन मतांतरण और बड़ी संख्या में वहां से हिन्दुओं के पलायन की खबरें आज भी सुर्खियां बनी रहती हैं। पाकिस्तान के हालात जस के तस हैं। बिल्कुल नहीं बदले, क्योंकि वहां के लोग नहीं बदले, वह मानसिकता नहीं बदली। मिल्खा सौभाग्यशाली थे कि बचकर हिन्दुस्तान तक आ गए और आज गौरवशाली जीवन जी रहे हैं। उनकी रिकार्ड तोड़ जीत पर देश में एक बार एक दिन का अवकाश भी रहा था। देश के प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने उन्हें गले लगाया, 'पद्म श्री' से नवाजा। और आज उनके जीवन पर बनी फिल्म बाक्स आफिस पर सफलता के रिकार्ड तोड़ रही है।

दर्द और संवेदना से उबरकर जूझने और जीतने का नाम है 'भाग मिल्खा भाग'। फिल्म देखना लम्बे समय तक याद रखेंगे उस मिल्खा को जो अपने माँ – बाप , भाई – बहन के खून से सनी कमीज पहनकर दसियों दिन तक भूखा-प्यासा भागता रहा, और फिर आगे जीवन में ऐसा भागा, ऐसा भागा कि विश्व गगन पर छा गया, और  नाम पडा 'उड़न सिख'।  और  यह नाम भी उसे उसी मुल्क के तानाशाह ने दिया जिस मुल्क के निर्माण ने उसे अनाथ होकर भागने के लिए मजबूर कर दिया था। 'भाग मिल्खा भाग' के प्रचार और प्रारंभिक प्रशंसा सुनकर जब फिल्म देखने जा रहे थे तब मन में भाव था कि युवाओं, विशेषकर खिलाड़ियों को प्रेरित करने वाला कोई कथानक होगा। पर जब  पिक्चर हाल से बाहर आये तो 1947 में देश के विभाजन की पीडा और उस हिंसक और भयावह दौर के दृश्य ऑंखों के सामने रह-रह कर तैर रहे थे। माँ-माँ पुकारता एक 10 साल का बालक गोविन्दपुरा गाँव (मुल्तान, अब पकिस्तान का मुज्जफरगढ़) के कच्चे घर में इधर-उधर बदहवास भाग रहा था। एक कमरे में घुसा तो वहां भरे धुएं में दम घुटने लगा। बाहर की तरफ भागा तो फिसलकर गिरा, और जिस कारण गिरा वहां पानी नहीं, खून ही खून फैला था। खून, उसके अपनों का खून। ऊपर से नीचे तक भीग गया उस खून से, लाल गीली मिट्टी चिपक गयी उस पर। जैसे-तैसे खड़ा हुआ, अपनी हालत देखकर फिर माँ – माँ कहकर चिल्लाया और घर के पिछवाड़े की तरफ भागा और कच्ची मुंडेर से टकराकर बाहर गिरा तो उफ्फ… कल्पना कीजिये, लाशों के ढेर पर एक मासूम बालक की। वह उठने की कोशिश करता, ऊपर मुंडेर की तरफ बढ़ना चाहता, पर फिसल जाता। और इस खींच-खांच में लाशों के बीच से एक हाथ बाहर निकल आया, चूड़ियों से भरा हुआ… आखिरी बार मुँह से सकती लम्बी सी चीख निकली, माँ….। 

और यह सारा दृश्य उसकी आँखों में तैरता रहा, तब भी जब वह दौड का विश्व रिकॉर्ड तोड़ चुका था। इसीलिए एशियाई खेल में 400 मीटर के दौड़ में 'गोल्ड मैडल' जीतने से ज्यादा उसे खुशी हुई पकिस्तान की धरती पर पकिस्तान के उस समय के सबसे तेज धावक अब्दुल खालिक को हराकर। पर इस दौड़ से पहले वह अपने गाँव गोविन्दपुरा जाना नहीं भूला। 80 पार के हो चले मिल्खा सिंह आज तक उस दौर को नहीं भूला पाए जब उनकी आँखों के सामने मुस्लिम दंगाइयों ने उनके दादा का सर धड़ से अलग कर दिया था जब वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे-भाग मिल्खा भाग। अपने जीवन की यह सारी सच्चाई और मैदान मार लेने के लिए अपने अपने प्रशिक्षकों के निर्देशन में की गयी हाड़-तोड़ कोशिशों का सच उन्होंने बताया  लेखक प्रसून जोशी को और निर्माता- निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा को, और मेहरा ने उस सच को पूरी सच्चाई, ईमानदारी और बहुत खूबसूरती के साथ प्रस्तुत कर दिया है इस फिल्म में।

आजकल के दौर में अधिकांश, या कहें 99 प्रतिशत फिल्में बनती है व्यवसाय के लिए। ऐसे में एक खिलाड़ी और उसकी पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाया उन्हीं राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने, जो इससे पहले 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्म का निर्देशन कर चुके हैं।  'रंग दे का सन्देश साफ-साफ था कि आज के दौर में भी भगत सिंह और चंद्रशेखर पैदा हो सकते हैं, पर भ्रष्टाचारी तंत्र उन्हें मार दे रहा है। उस फिल्म के लिए निर्माता-निर्देशक मेहरा को फिल्म फेयर ने सर्वक्षेष्ठ निर्देशक के तौर पर 2006 में सम्मानित किया और राष्ट्रीय फिल्म सम्मान समारोह में भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का सम्मान मिला। पर जब राकेश ओमप्रकाश मेहरा 'भाग मिल्खा भाग' बनाने निकले तो उन्हें कोई फाइनेंसर खरीददार नहीं मिल रहा था। ऐसे में फिल्म के अभिनेता फरहान अख्तर खुद आगे आए। क्योंकि वे समझ चुके थे कि यह फिल्म जरूर चलेगी और जिसमें उनका अभिनय भी सराहा जाएगा।  वास्तव में इस फिल्म का प्रसून जोशी ने जितना सुंदर कथानक लिखा और निर्माता-निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने जितनी मेहनत की, उसको सामने लाने में अभिनेता फरहान अख्तर ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हू-ब-हू मिल्खा सिंह जैसा दिखने के लिए और उनके जैसा बनने लिए फरहान ने असली मिल्खा से भी ज्यादा मेहनत की, यह खुद मिल्खा सिंह कह रहे हैं।

मिल्खा ने कुछ नहीं छिपाया अपने बारे में, अपनी कमियां भी बताईं। साफ बता दिया कि 1956 के जिस मेलबर्न ओलंपिक में वे असफल होकर लौटे थे, देश की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सके थे, उसके पीछे थी उनके आस्ट्रेलियन कोच की बेटी, जिसके प्यार में पड़कर वे अपना असली उद्देश्य भूल गए थे। उस दौड़ में निराश होने के बाद अकेले, एक शीशे के सामने बार-बार अपने को थप्पड़ मारते मिल्खा ने बताया कि अपनी गलतियों को सुधारने के लिए खुद को कितना सख्त और निर्मम बनना पड़ता है। और मेलबर्न से लौटते मिल्खा ने जब अपने कोच से 400 मीटर की दौड़ के उस समय के विश्व कीर्तिमान 45.9 सेकेंड का समय पूछा और उसको फिर अपने वाहे गुरु के चरणों में रखकर बनियान से बाल्टी भर पसीना निचोड़ने तक की जो मेहनत की, उसका परिणाम यह आया कि वे 1960 में भले रोम ओलम्पिक में चौथे स्थान पर रहे पर उन्होंने 45.73 सेकेंड का समय निकालकर इतिहास रच दिया। जापान के एशियाई खेलों में जो उन्होंने स्वर्ण पदक जीता तो उसका रिकॉर्ड 40 साल तक कोई भारतीय नहीं तोड़ पाया। पर 1962 में जब पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब खान ने दोस्ताना दौड़ के लिए भारत की ओर हाथ बढ़ाया और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पद्म श्री मिल्खा सिंह को उस टीम का नेतृत्व सौंपा तो उनके घाव फिर हरे हो गए। अनमने ढंग से उन्होंने फिर उस धरती पर जाकर दौड़ने का प्रस्ताव स्वीकार किया जहां से वे अपने मां-बाप, दादा, दो भाई और एक बहन को खोकर, रिफ्यूजी बनकर दिल्ली आए थे और फिर क्या-क्या नहीं करना पड़ा था। चोर उच्चकों का साथ, बेटिकट यात्रा और तिहाड़ की जेल। पर अपने जीजा के हाथों प्रताड़ित होती अपनी बहन के कुंडल बेचकर जेल से छुड़ाने की घटना ने उनमें अपने सम्मान के लिए देश के सेवा में लग जाने का भाव जगाया तो भारतीय सेना में शामिल हो गए। और फिर एक हवलदार से 'फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह' बनने तक की सच्ची कथा भाग मिल्खा में देखने लायक है।  जितेन्द्र तिवारी

यह फिल्म एक इतिहास है, सचाई है। इसमें कुछ भी बढ़ा–चढ़ाकर प्रस्तुत नहीं किया गया है। कहीं कुछ ज्यादा नहीं, ऐसा कुछ नहीं जो लिखा न गया हो। 

–एम. जे. अकबर अपने ब्लाग पर

मिल्खा सिंह की अपनी कहानी महज उनकी व्यक्तिगत कहानी नहीं है बल्कि उसमें एक ऐसा रक्तरंजित अतीत है जो बँटवारे की बुनियाद पर बनी छत पर हमेशा बैठी रहती है । मिल्खा का अतीत हिन्दुस्थान का भी अतीत है।

-रवीश कुमार, कस्बा ब्लाग पर

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