कलंदर के बंदरों का मीडिया उत्पात
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कलंदर के बंदरों का मीडिया उत्पात

by
Jul 20, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 20 Jul 2013 12:37:23

 

विदेशी मूल के कलंदर की देसी मूल के बंदरों की फौज आजकल बहुत आक्रामक मुद्रा में है। नरेन्द्र मोदी ने मुंह खोला नहीं कि वह चारों तरफ से खोंखिया कर दौड़ पड़ती है। नरेन्द्र मोदी ने अन्तरराष्ट्रीय ख्याति की न्यूज एजेंसी 'रायटर' को एक साक्षात्कार में सहज मानवीय संवेदना का उदाहरण देते हुए कह दिया कि, 'अगर ड्राईवर चलित कार में हम पीछे बैठे हों और कार के नीचे कोई कुत्ते का पिल्ला यानी 'पप्पी' आकर कुचल जाए तो भी हमें बहुत दु:ख होता है।' वह साक्षात्कार तो काफी लम्बा था पर बंदर फौज 'पप्पी' शब्द पर टूट पड़ी। इस फौज के सब बड़े सिपहसालारों ने शोर मचा डाला कि देखिए, 'मोदी ने मुसलमानों को पप्पी कह दिया।' स्पष्ट है कि उनका एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम भावनाओं को मोदी एवं भाजपा के विरुद्ध भड़काना था। नफरत फैलाने की इस राजनीति को ही वे 'सेकुलर' कहते हैं। बंदर सेना का शोर-शराबा सुनकर मुझे महात्मा गांधी जी के जीवन का एक प्रसंग स्मरण आ गया। सन् 1935 में एक अमरीकी ईसाई मिशनरी अलक्जेंडर मॉट गांधी जी से मिलने आया। बातों-बातों में गांधी जी ने उससे कहा कि, 'भाई अगर आपको भारत में धर्मांतरण करना है तो मुझसे या मेरे सहयोगी महादेव देसाई से क्यों नहीं शुरू करते? हमें तर्क से समझाओ कि तुम्हारे चर्च और ईसाई धर्म में क्या अच्छाई है कि हम अपने पूर्वजों का धर्म छोड़कर तुम्हारे चर्च की शरण में आ जाएं। क्यों तुम इन गरीब, पिछड़े और गाय के समान भोले- भाले हरिजनों के धर्मांतरण पर अपनी ताकत लगा रहे हो?' गांधी जी ने कितने सहज भाव से यह बात कही थी। पर पश्चिम का पूरा मिशनरी प्रेस 'गाय' शब्द को ले उड़ा कि गांधी जी तो हरिजनों को जानवर समझते हैं, उन्हें 'गाय' की श्रेणी में रखते हैं। जब बहुत हो-हल्ला मचा तो गांधी जी ने अपने 'हरिजन' साप्ताहिक में लिखा, कि 'मेरी दृष्टि में गाय जानवर नहीं, अति पवित्र पूजनीय देवी है।' हो सकता है नरेन्द्र मोदी जी को गांधी जी का यह उत्तर स्मरण न हो, पर बंदर सेना के हो-हल्ले का उन्होंने सहज उत्तर दिया कि भारतीय संस्कृति में मनुष्य से लेकर कुत्ते के पिल्ले और पेड़-पौधे तक में उसी एक आत्मा का वास है, और हमारे लिए वे समान रूप से                  वंदनीय हैं।

पुणे की सार्वजनिक सभा में नरेन्द्र मोदी ने सोनिया पार्टी पर कटाक्ष किया कि जब-जब वह पार्टी संकट में होती है तब-तब सेकुरिज्म का बुरका ओढ़ लेती है। उन्होंने एक और कटु सत्य की ओर इशारा किया था। पिछले नौ वर्ष के शासनकाल में सोनिया गठबंधन आर्थिक नीति, विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा आदि प्रत्येक मोर्चे पर नाकाम रहा है। महंगाई की मार से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। पर अपनी असफलताओं पर से जनता का ध्यान हटाने के लिए वह गुजरात में 2002 के दंगों का ही राग अलाप रही है और पूरे ग्यारह वर्ष तक गुजरात को दंगा मुक्त रखने और विकास के मार्ग पर तेज गति से बढ़ाने वाले मोदी के विरुद्ध गुजरात के बाहर के मुसलमानों के मन में कटुता का जहर घोलने में लगी हुई है। 'बुरका' मुस्लिम प्रतीक होने के कारण उन्हें भा गया, और बंदर सेना के सभी मुखिया, जैसे-अजय माकन, शशि थरूर, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह मोदी पर खोंखियाने लगे।

बंदरों की बौखलाहट

सबसे हास्यास्पद बौखलाहट तो सूचना प्रसारण मंत्री की कुर्सी पर बैठाये गये मनीष तिवारी की है। ये वही मनीष तिवारी हैं जिन्होंने एक बार अण्णा हजारे जैसे श्रेष्ठ पुरुष पर अनर्गल और निराधार आरोप बहुत बेहूदी भाषा में जड़ दिये थे। जब अण्णा हजारे ने मानहानि का नोटिस दिया तो मनीष ने सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगते हुए सब आरोप वापस ले लिए। शायद उसी बेशर्मी का इनाम उन्हें सूचना मंत्री बनाकर दिया गया। आप प्रतिदिन मनीष तिवारी को नरेन्द्र मोदी और भाजपा के विरुद्ध अनाप-शनाप बोलते सुन सकते हैं। उनके पास वकील बुद्धि है। अंग्रेजी और हिन्दी में बहस करने की क्षमता है। पर न उन्हें इतिहास की जानकारी है और न ही राजनीति की समझ। अखबारों में छपा कि नरेन्द्र मोदी की हैदराबाद में युवाओं की एक रैली को सम्बोधित करने वाले हैं। उस रैली के लिए आयोजकों ने 5 रुपये का प्रवेश शुल्क रखा है। यह भी समाचार आया कि अब तक 8000 से अधिक लोगों का शुल्क मिल चुका है। यह भी बताया गया कि शुल्क से जमा होने वाली सारी राशि को उत्तराखंड के राहत कोष में अर्पित किया जाएगा। इस निर्णय का स्वागत करने की बजाए मनीष तिवारी नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से तिलमिला उठे और उन्होंने टेलीविजन चैनलों पर कहा कि भाषण पर टिकट लगाना तो लोकतंत्र का व्यावसायी- करण है। बेचारे मनीष को क्या पता कि गांधी जी भी 'हरिजन फंड' के लिए यही रास्ता अपनाया करते थे। 1931 के कराची अधिवेशन के दो दिन पूर्व कराची में उनके लिए एक जनसभा का आयोजन किया गया।' जिसमें प्रवेश के लिए पच्चीस पैसे का शुल्क रखा गया और 40,000 लोगों ने वह शुल्क देकर उनका भाषण सुना। 1931 के पच्चीस पैसे आज के पांच रुपये से कम नहीं, अधिक ही होंगे। आज भी महाराष्ट्र में 'वसंत व्याख्यानमाला' में प्रवेश शुल्क लगता है। जरा मनीष तिवारी और उनके बाकी साथी भाषण के लिए टिकट लगाने की हिम्मत करें तब पता चलेगा कि उनका बाजार भाव क्या है? आज जब नेताओं की रैली में भीड़ जुटाने के लिए पूरी ट्रेनें बुक की जाती हैं, बसें और ट्रक जुटाये जाते हैं, खाने के पैकेट बांटे जाते हैं, यात्रा भत्ता दिया जाता है, तब हमारे देश के किसी राजनेता का भाषण सुनने के लिए 8000 से अधिक पढ़े-लिखे युवा शुल्क देना स्वीकार करें तो क्या इसमें हमारे लोकतंत्र की गुणात्मक परिवर्तन का संकेत नहीं छिपा है? भारत का सूचना और प्रसारण मंत्री का प्रचार स्तर कितना निम्न हो सकता है यह जागरण (18 जुलाई) के पहले पन्ने पर एक थियेटर कर्मी आमिर रजा खान के दिल्ली प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष पद से त्यागपत्र को 'सेकुलरिज्म के लिए आघात' कहने की बजाय मनीष प्रखर राष्ट्रभक्त मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन को भाजपा से त्यागपत्र देने की सलाह देते हैं? नंगे सम्प्रदायवाद का इससे निर्लज्ज उदाहरण और क्या हो सकता है? यहां मनीष वही भाषा बोल रहे हैं जो मौलाना अब्दुल कलाम के लिए जिन्ना बोला करते थे।

कलंदर की रणनीति

आखिर नरेन्द्र मोदी से बंदर सेना को इतना डर क्यों लग रहा है? क्यों वे अपनी उपलब्धियों के आंकड़े पेश करने की बजाय गुजरात के विकास के आंकड़ों को गलत सिद्ध करने में अपनी पूरी अकल लगा रहे हैं। कैसा विचित्र था कि नरेन्द्र मोदी के पुणे भाषण से तिलमिलाकर तुरंत अजय माकन ने 'प्रेस कांफ्रेंस' बुलायी, जिसे सब खबरिया चैनलों पर 'लाइव' (सीधा प्रसारण) दिखलाया गया। कहा गया कि कुछ विशेषज्ञों ने काफी समय तक खोज करके ये आंकड़े इकट्ठा किए हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि नरेन्द्र मोदी गलत आंकड़े देकर देश को गुमराह कर रहे हैं।

वस्तुत: मीडिया के मोर्चे पर यह आक्रामकता एक सोची-समझी रणनीति का अंग है। कलंदर का एकमात्र लक्ष्य है युवराज पप्पू का राज्याभिषेक। और वह तभी संभव है जब उन्हें लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिले। और यह बहुमत देसी बंदरों की मदद के बिना संभव नहीं है। वंशवादी चापलूसी की मानसिकता में पले बंदरों को आपसी झगड़ों से हटाकर अपने एकमात्र प्रतिद्वंद्वी भाजपा के विरुद्ध आक्रामक मुद्रा में लाना अनिवार्य मजबूरी है। पिछले महीने पूरी पार्टी का जो पुनर्गठन हुआ है, उसके पीछे यही रणनीति काम कर रही है। 12 महासचिवों और 44 सचिवों की सूची को ध्यान से देखने पर बाहरी व्यूह रचना दिखायी देती है। एक छोटा-सा कोर ग्रुप है जिसमें अहमद पटेल, ए.के.एंटोनी, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और शायद जनार्दन द्विवेदी हैं, जो कलंदर और पप्पू से सीधे आदेश प्राप्त करते हैं। दूसरे घेरे में वे हैं जिन्हें कुछ राज्यों का प्रभारी बनाया गया है। ये हैं-दिग्विजय सिंह, अम्बिका सोनी, सी.पी.जोशी, शकील अहमद, मधुसूदन मिस्री, मोहनप्रकाश, गुरुदास कामत और बी.के.हरिप्रसाद। इन्हें अपने अपने कार्यक्षेत्र में जोड़-तोड़ की रणनीति तैयार करनी है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है मीडिया प्रबंधन का घेरा। कलंदर की रणनीति का सूत्र है- 'हमला ही सर्वोत्तम बचाव है। इसलिए अपने काम की चर्चा करने की बजाय प्रतिद्वंद्वी पर लगातार हमला करते रहो।'

मोर्चे पर मीडिया

इकानॉमिक टाइम्स (18 जुलाई) का कहना है कि 15, गुरुद्वारा रकाब गंज रोड पर एक 'वार रूम' स्थापित किया है, जिसका दायित्व हरियाणा के मुख्यमंत्री के सांसद पुत्र दीपेन्द्र हुड्डा को सौंपा गया है। एंटोनी, दिग्विजय और जयराम रमेश उनका मार्गदर्शन करेंगे। इस 'वार रूम' के लिए 50 ऐसे विशेषज्ञों की खोज जारी है जो राजनीति और पत्रकारिता की समझ रखते हों। जो सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया में प्रवेश कर सकें। इस काम के लिए अभी 100 करोड़ रु. की राशि तय की गयी है।

मेल टुडे (16 जुलाई) की सूचना है कि 150 प्रवक्ताओं को 21 से 23 जुलाई तक 24 अकबर रोड पर सघन प्रशिक्षण दिया जाएगा। जून माह में प्रत्येक राज्य ईकाई को इस प्रशिक्षण शिविर के लिए 15 नाम भेजने का आदेश दिया गया था। वे नाम ऐसे हैं जो जानकार हों।' बोलने में कुशल हों और आक्रामक हों। इन पन्द्रह नामों में से पांच को सोशल मीडिया, पांच को प्रिंट और पांच को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर काम करना होगा। पूर्वी दिल्ली के सांसद और शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित के नेतृत्व में एक शोध टीम पहले ही स्थापित की जा चुकी है, जो प्रत्येक प्रश्न पर पार्टी के प्रवक्ताओं और मीडिया विभाग को आवश्यक आंकड़े और तथ्य देने का काम करेगी। नये पुनर्गठन में मीडिया प्रकोष्ठ का प्रभार जनार्दन द्विवेदी से छीनकर अजय माकन को दिया गया है। अजय माकन ने गर्वोक्ति की कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी की पूरी ताकत 'सोशल मीडिया' तक सीमित है, हम वहां से उनको पूरी तरह उखाड़ फेकेंगे। हम भी एक एक व्यक्ति के द्वारा 100-100 नामों से झूठी आई.डी. खोल देंगे और चाय की दुकान से लेकर विश्वविद्यालयों तक अपनी बात पहुंचा देंगे। इसीलिए आजकल टेलीविजन चैनलों पर अजय माकन की 'प्रेस कांफ्रेंसों' का सीधा प्रसारण देखा जा सकता है, चाहे वह खाद्य सुरक्षा विधेयक हो, या गुजरात का विकास या बुरके पर प्रतिक्रिया।

'मीडिया मैनेजमेंट' में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी व संसदीय कार्यमंत्री राजीव शुक्ला निभा रहे हैं। कुछ पत्रकार इसलिए भी चिंतित हैं कि मनीष तिवारी परदे के पीछे चुपचाप 'मीडिया के नियमन' का षड्यंत्र रच रहे हैं। प्रचार रणनीति का त्रिसूत्री कार्यक्रम है- मुस्लिम और ईसाई मतदाताओं को भाजपा से दूर करना, नरेन्द्र मोदी को विवादों के केन्द्र में रखना, राहुल को विवादों से दूर रखना। 15 जुलाई को अंतिम तार राहुल को भेजा गया- यह सब अखबारों के मोटे शीर्षकों में छपा। पर किसने भेजा, यह केवल इंडियन एक्सप्रेस ने छापा कि दूरदर्शन के एक एंकर ने वह भेजा, दूरदर्शन यानी मनीष तिवारी। प्रचार का कितना आसान तरीका।

इस आक्रामक प्रचार नीति का ही परिणाम है कि दैनिक जागरण (7 जुलाई) ने सर्वेक्षण में पाया कि जिन राज्यों में सोनिया पार्टी सत्ता में नहीं है जैसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़, वहां मीडिया प्रबंधन बहुत चुस्त-दुरूस्त है, और जहां वह सत्ता में है, वहां बिल्कुल लचर। स्पष्ट है कि एक जगह केवल आक्रामक तेवर अपनाना है दूसरी जगह कुछ उपलब्धि दिखानी है। कितना रोचक दृश्य है कि कलंदर और पप्पू देसी मूल के बंदरों के कंधे पर बैठकर वंशवाद की विजय का स्वप्न देख रहे ½éþ* näù´Éäxpù स्वरूप 19.07.2013)

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