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वक्फ कानून में संशोधन की तैयारी से मुस्लिम समाज में बेचैनी

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Jul 13, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 13 Jul 2013 15:01:36

भारत में मुगल काल में वक्फ विभाग की स्थापना हुई थी। इस विभाग के अंतर्गत न केवल मस्जिद और मदरसों को मजहबी सम्पत्ति के तहत मान्यता प्रदान की गई, बल्कि इन सम्पत्तियों की आय से मस्जिद, मदरसे एवं उनमें कार्यरत मुल्ला-मौलवियों के जीवन निर्वाह की भी व्यवस्था का प्रावधान किया गया। भारत में जब ब्रिटिश सत्ता आई तो उन्होंने भी एक बोर्ड बना कर इस परम्परा का पालन किया। यह बोर्ड वक्फ सम्पत्ति का सम्पूर्ण ब्यौरा प्रतिवर्ष सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करता है। राज्यों में भी इसी प्रकार के वक्फ बोर्ड हैं। वक्फ बोर्ड मुसलमानों की मजहबी आवश्यकताओं के साथ-साथ मुस्लिम समाज की सामाजिक आवश्यकताओं पर भी करोड़ों रुपये खर्च करता है। इनमें समाज के निम्न वर्ग की बुनियादी आवश्यकताएं भी शामिल होती हैं। स्वास्थ्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग की सहायता करना इसका मुख्य कार्य है। स्वतंत्रता के पश्चात् भी भारत सरकार ने उक्त व्यवस्था को ज्यों का त्यों बनाए रखा है। आवश्यकता पड़ने पर सरकार इसके कानूनों में भी संशोधन करती रहती है। मजहबी क्षेत्र होने के कारण वक्फ बोर्ड का मसला संवेदनशील होता है। इसलिए सरकार का प्रयास रहता है कि वह इस काम में कम से कम हस्तक्षेप करे। लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार इसमें परिवर्तन करने के लिए लालायित है, क्योंकि वर्तमान सरकार का यह चिंतन है कि बाबरी ढांचे जैसी समस्या का कोई स्थायी हल हो सकता है तो इस कानून में कुछ परिवर्तन से ही। इसका ठोस सबूत यह है कि पिछले दिनों राज्य सभा में वक्फ बोर्ड की रीति नीति के संबंध में केन्द्र सरकार ने एक योजना तैयार की है। जिसके तहत वह चाहती है कि बाबरी ढांचे के मामले, जो  पिछले कई वर्षों से विचाराधीन है, में कोई ठोस योजना क्रियान्वित करने के लिए कोई कदम उठाया जाए। पाठक भली प्रकार जानते हैं कि बाबरी का मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए उस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है। इसलिए सरकार ने विचार किया है कि संसद में कोई ऐसा विधेयक प्रस्तुत किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे। सरकार अपने मुस्लिम वोट की चिंता सबसे पहले करती है। इसलिए इस मामले में कोई ऐसा निर्णय नहीं ले सकती कि उसका मुस्लिम वोट बैंक आहत हो जाए।

राम जन्मभूमि और बाबरी ढांचा का मामला काफी पुराना है। इसलिए हल करते समय उसके हाथ न जल जाएं यह देखना वर्तमान सरकार का प्रथम दायित्व है। उक्त समस्या को हल करने के लिए अब सरकार ने मन बना लिया है। वह चाहती है कि एक तो वक्फ की परिभाषा बदल दी जाए और दूसरी बात वर्तमान एक्ट को संशोधित कर बाबरी के लिए मार्ग खोजा जाए। प्राचीन समय से चली आ रही वक्फ की परिभाषा में यह कहा गया है कि एक बार जो सम्पत्ति वक्फ कर दी जाती है वह हमेशा के लिए वक्फ रहती है। उसमें परिवर्तन करने अथवा स्थानान्तरित करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। न तो वह बेची जा सकती है और न ही उसके उद्देश्यों में कोई फेरबदल हो सकता है, जो मस्जिद है वह मस्जिद ही रहेगी। जो मदरसा अथवा इमामबाड़ा है उसके स्वरूप में और उसके लिए दाता के द्वारा जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वक्फ किया गया है उसमें कोई बदलाव नहीं आ सकता है। मदरसा यदि पढ़ाने के लिए है तो वह मदरसा ही रहेगा। इसी प्रकार उसे जिस स्थान पर वक्फ किया गया है उसमें बदलाव नहीं हो सकता है। दिल्ली का कोई मदरसा उसके न्यासी वहां से हटा कर मुम्बई अथवा कानपुर लाना चाहे तो वह संभव नहीं है। इसलिए अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय वक्फ कानून में परिवर्तन करना चाहता है। वह उसके उद्देश्य और स्थान बदलने का कानूनी अधिकार संसद में संशोधित कर उसे प्राप्त कर लेना चाहता है। कहा जा रहा है कि इसके पीछे सरकार की नीयत में खोट है। वह ऐसा परिवर्तन करके बाबरी को वर्तमान स्थान से हटा देने के जुगाड़ में लगा हुआ है। वर्तमान प्रस्तावित विधेयक, जिस पर राज्यसभा में अनेक आपत्तियां उठाई गई थीं को 'सिलेक्ट कमेटी' के हवाले कर दिया गया था। अब 'सिलेक्ट कमेटी' की रपट के साथ संलग्न की गई टिप्पणी ने नए विवाद को जन्म दे दिया है। अनुमान यह है कि यदि इस टिप्पणी को विधेयक में शामिल कर लिया गया तो बाबरी ढांचा सहित अनेक वक्फ की सम्पत्ति की नीलामी का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

वक्फ सम्पत्ति पर की गई इस टिप्पणी के आधार पर इस प्रकार की सम्पत्ति का विक्रय किया जा सकेगा जो विवादास्पद हो अथवा जिसका उपयोग नहीं होता हो। इसके लिए वक्फ बोर्ड के 50 प्रतिशत सदस्यों की सहमति आवश्यक होगी। इस बात को विशेष ध्यान में रखना अनिवार्य है कि उक्त वक्फ संशोधित विधेयक 2011 में लोकसभा में पारित हो जाने के पश्चात् राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया था। लेकिन इसको लेकर भारी विरोध और हंगामा हुआ था। विधेयक में अनेक त्रुटियां बताई गई थीं। इसलिए इसे 'सिलेक्ट कमेटी' के हवाले कर दिया था। इस कमेटी के अध्यक्ष हैं कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार 'सिलेक्ट कमेटी' में सभी राजनीतिक दलों के सदस्यों का प्रतिनिधित्व होता है। इस कमेटी ने आल इंडिया मुस्लिम परसनल ला बोर्ड, वक्फ बोर्ड के सदस्य एवं जमीअतुल ओलेमा सहित अनेक मुस्लिम संगठनों को आमंत्रित किया था। इन सभी के विचार-विमर्श एवं सभी कार्यवाहियों के पश्चात् 'सिलेक्ट कमेटी' ने 2012 के शीतकालीन अधिवेशन में अपनी रपट संसद में पेश कर दी थी। इसके पश्चात् मंत्रिमण्डल को इसके लिए हरी झंडी देनी थी। वहां से हरी झण्डी मिलने के बाद अब यह विधेयक सदन में प्रस्तुत होने के लिए पूर्ण रूप से तैयार है। लेकिन मुस्लिम समाज के एक बड़े हिस्से में इसको लेकर बेचैनी फैल गई है। इस विधेयक में शामिल प्रस्तावों का जोरशोर से विरोध करने की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है। समाचार मिले हैं कि अब मुस्लिम समाज इसका विरोध करने के लिए कटिबद्ध है।

मुस्लिमों का कहना है कि इस विधेयक के मसविदे में एक ऐसा नोट लगाया गया है जिसके तहत वक्फ सम्पत्ति को बेचा जा सकता है। एक संगठन की ओर से यह सिफारिश की गई है कि यदि वक्फ बोर्ड के 50 प्रतिशत सदस्य स्वीकृति दे दें तो ऐसी वक्फ सम्पत्ति को बेचा जा सकता है जो विवादित हो अथवा वहां मुस्लिम आबादी नहीं होने के कारण बेकार पड़ी हो। इसे बेच कर दूसरी जमीन खरीद कर उसे वक्फ की जा सकती है। इस संबंध में जब मुस्लिम परसनल ला बोर्ड की कार्यकारिणी के सदस्य डॉ. कासिम रसूल इलयास से बातचीत की गई तो उन्होंने कहा कि इस प्रकार का प्रस्ताव सामने आया था। लेकिन बोर्ड ने यह प्रस्ताव रखा कि इसके लिए वक्फ बोर्ड की दो तिहाई सदस्यों की स्वीकृति अनिवार्य की जाए। उर्दू अखबारों में छपी रपट के अनुसार मुस्लिम परसनल ला बोर्ड के अधिकांश सदस्य उपरोक्त प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं, जिसमें वक्फ सम्पत्ति को नीलाम करने की बात कही गई है। पिछले दिनों इस संबंध में मुस्लिम परसनल ला बोर्ड की कार्यकारिणी की बैठक थी जिसमें अधिकांश लोगों का यह विचार था कि ऐसा नहीं होना चाहिए। सदस्यों का मानना है कि वक्फ सम्पत्ति की नीलामी किसी भी स्थिति में जायज नहीं है।

उपरोक्त टिप्पणी के आधार पर सदस्यों का सोचना है कि इसी आधार पर बाबरी ढांचे की नीलामी की जा सकती है। यदि उक्त विधेयक पारित हो जाता है तो फिर बाबरी के लिए अन्य स्थल पर जमीन खरीदी जा सकती है। सदस्यों का मानना है कि बाबरी के अतिरिक्त भी ऐसी अनेक विवादित सम्पत्तियां हैं जिन्हें बेचकर नए स्थान पर खरीदी का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। मोहम्मद अदीब सहित कई राज्यसभा सदस्यों ने यह सवाल उठाया है कि ऐसी कौन सी मुसीबत आ गई है कि वक्फ सम्पत्ति को बेचने वाला विधेयक लाया जा रहा है? कई सदस्यों का कहना था कि सरकार यदि इस प्रकार की मंशा रखती है तो उसे नोट या टिप्पणी करने के स्थान पर दूसरा विधेयक संसद में लाना चाहिए। लेकिन भीतरी सूत्रों का कहना है कि सरकार ऐसा कदापि नहीं करेगी। इस प्रकार का विधेयक पारित करके वह वक्फ सम्पत्ति का स्वरूप बदलने और स्थानान्तरित करने में सफल हो जाएगी। नए कानून के तहत सरकार न्यायालय से यह कहलवाने में सफल हो सकती है कि जब वक्फ सम्पत्ति को बेच कर अन्य स्थान पर स्थानान्तरित किया जा सकता है तो सरकार बाबरी को अन्य स्थान पर स्नानान्तरित करके नई मस्जिद का निर्माण करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। इसके पश्चात् वह स्थान राम मंदिर को दे सकती है। यदि न भी दे तब भी प्रस्तावित राम मंदिर का निर्माण हो सकता है। यानी कांग्रेस सरकार यह कह सकती है कि राम मंदिर तो अंतत: उनके ही प्रयासों से बना है। इस प्रकार चुनाव से पूर्व उक्त मुद्दा हथिया कर वह संघ समर्थित संगठनों से मंदिर का मुद्दा छीन कर मतदाताओं से यह कह सकती है कि मंदिर का निर्माण तो केवल कांग्रेस सरकार के ही कार्यकाल एवं मार्गदर्शन में हो सका है। हिन्दू संगठनों को नीचा दिखा कर कांग्रेस यह खेल खेलना चाहती है। मुजफ्फर हुसैन

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