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आखिर 5 जुलाई की शाम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उस खाद्य सुरक्षा अध्यादेश पर दस्तखत कर दिए जो मैडम सोनिया के दबदबे के चलते कैबिनेट ने 4 जुलाई को ही पारित करके राष्ट्रपति भवन भेजा था। जुलाई के तीसरे हफ्ते में संसद के मानसून सत्र के शुरू होने तक इंतजार न करके इसे अध्यादेश के रूप में पारित कराने से इस सरकार में चुनावों की आहट से उपजी बौखलाहट का साफ अंदाजा होता है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजय माकन का यह तर्क कितना हास्यास्पद है कि इसे चुनावों से जोड़कर नहीं देखना चाहिए, यह तो 'आम आदमी के प्रति कांग्रेस की चिंता' दिखाता है। वैसे अगर वे 40 रु. किलो आलू, 80 रु किलो प्याज और 100 रु. किलो अदरक न खरीद पाने पर नमक से ही रोटी खाने वाले आम आदमी के बारे में 'चिंता' की बात कर रहे हैं तो उनसे ज्यादा नासमझ कौन होगा?
बहरहाल, 80 करोड़ लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने का वादा करने वाले इस कार्यक्रम का जिक्र राष्ट्रपति के 2009 के अभिभाषण में था, लेकिन आज तक सरकार ने इस ओर गंभीरता नहीं दिखाई थी, लेकिन चौतरफा आरोपों से घिरी सरकार ने आम चुनावों के करीब आने की आहट सुनते हुए ऐसी आपाधापी मचाई कि लोकतांत्रिक परंपराओं और संसद की गरिमा को ठेस पहंुचाते हुए अध्यादेश लाने का एकतरफा फैसला ले लिया। सस्ता अनाज देने का वादा करने वाले इस कार्यक्रम के लिए आतुर सरकार ने आने वाली सरकार पर डेढ़ लाख करोड़ का बोझ डालने की ठान ली है। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का यह कहना गलत नहीं है कि संसद में इस पर बहस के बाद इसमें आवश्यक सुधार के बाद इसे लागू किया जाना चाहिए था। जाहिर है इससे घरेलू खाद्यान्न बाजार प्रभावित होगा और अर्थव्यवस्था पर उम्मीद से ज्यादा असर पड़ेगा। इसके तहत 2 रु. किलो गेहूं और 3 रु. किलो चावल दिया जाना है। देश के बड़े अर्थ विशेषज्ञ संस्थानों ने इसे बिना सोचे-समझे किया गया फैसला बताया है। 80 हजार करोड़ की मौजूदा खाद्य सब्सिडी पर अगले साल से 70 हजार करोड़ करनी पड़ेगी। पैसे नहीं हैं, कहकर तेल और रसोई गैस से सब्सिडी हटाने वाली सरकार इस पैसे का इंतजाम कहां से करने वाली है, उसका कोई खाका है? कहना न होगा, मनमोहन सरकार ने यह कदम चुनावों को करीब देखकर जल्दबाजी में, बिना विचारे और केवल अपनी डूबती छवि को दिलासा देने की गरज से उठाया है। दप्रतिनिधि
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