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यहां-वहां पड़े शवों को नोचते कौवे, जो उठा लिए उन शवों को टायर पर डालकर जलाने के घिनौने प्रयास, महामारी रोकने के नाम पर डी.डी.टी. के साथ रसायन छिड़कने के षड्यंत्र ताकि शव विखण्डित हो जाएं और भूखे-प्यासे अभावों से जूझते गांव वाले… राज्य सरकार की नकामी से यह चित्र उभर रहा है उस प्रदेश का जिसे लोग देवभूमि कहते हैं। उत्तराखण्ड में आई जलप्रलय में जो अकाल मौत का शिकार हो गए, उनके परिजनों के दर्द कौन समझे। जिनके सामने उनके अपने हाथ से फिसलते हुए मलबे के ढ़ेर में दब गए, फिर ढूंढें नहीं मिले, उनके दर्द की कौन थाह। अपने 4 सालों के बेटे को अपनी गोद में दम तोड़ता देख और फिर उसके शव को रजाई में लपेट उसी होटल की छत पर छोड़ आये अलीगढ़ के हरिओम वर्मा की व्यथा रुला जाती है। रात भर अपने पति का सर अपनी गोद में रख पानी-पानी की कराह में पत्तों पर गिरी पानी की बूंदों को उनके होठों पर गिराती महाराष्ट्र की चन्द्र प्रभा सिंह भी आखिर उन्हें नहीं बचा पाई। जीवनसाथी ने साथ छोड़ा तो घर से बहुत दूर, ऊंची पहाड़ी पर, एक जंगल के बीच। उन्होंने एक पेड़ के नीचे अपने पति के शव को अंतिम प्रणाम किया, उस वियावान जंगल में अपने आंसू खुद ही पोछती नीचे की ओर बढ़ी और उस पेड़ पर अपने लाल पेटीकोट का किनारा बाँध आयीं, यह सोचकर कि शायद कोई देखे, उनका शव मिले और उनका विधिवत अंतिम संस्कार हो सके।
…….ऐसी और भी न जाने किंतनी दर्दनाक आपबीती से भरे पड़े हैं देश भर में अखबारों के पन्ने। मौतों के झूठे सरकारी आकड़ों का सच यह है कि उत्तराखंड सरकार ऋषिकेश से हरिद्वार तक गंगा के बीच एक जाल तक नहीं लगा सकी और 12 दिन बाद बहते हुए कुछ शव इलाहाबाद के संगम तक पहुँच गए। इतने लम्बे मार्ग में और कहाँ-कहाँ अभागे लोगों के शव मिल रहे हैं या मिलेंगे, उनकी घटनाएं सामने आती रहेंगी। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल तक आज भी हजारों लोगों को इन्तजार है अपनों का, जिनकी कोई खबर नहीं। कुछ स्थानीय लोग अब बता रहे हैं कि शवों की पहचान करने, उनके पहचान चिन्ह सुरक्षित रखने या उनका डी.एन.ए. संभाल कर रखने के झंझट से बचने के लिए कुछ सरकारी राहत वाले ही अब सामने बहती नदी में लाशें सरका दे रहे हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री बहुगुणा का गुणा-भाग यही है कि कैसे भी हो मरने वालों की सही – सही संख्या का पता न चल सके। राज्य के विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल ने कहा कि मरने वालों की संख्या 10000 के पार हो सकती है तो 15 दिन तक 1000 का आंकड़ा बताते मुख्यमंत्री अचानक 3000 तक पहुंचे, साथ ही बोल दिया कि सही-सही आंकड़ा तो कभी पता नहीं चल पायेगा। जब सारी की सारी सरकारी मशीनरी लोगों को बचाने और राहत पहुँचाने की वजाय अपने यहाँ श्रद्धा से आये लोगों को लावारिश समझ उनकी लाशें ठिकाने लगाने और मलबे में ही दफ्नाने में जुटी हो तो उस महाविनाश का पूरा सच और मरने वालों का सही–सही आंकड़ा सामने आ भी कैसे सकता है?
जरा नजरों के सामने लाईए केदारनाथ धाम का दृश्य। जो सरकार जीवित बचे लोगों को निकलने में नाकाम रही हो, क्या आप उससे उम्मीद कर सकते हैं कि वह 8-10 फीट ऊंचा मलबा हटाकर उसके नीचे से शवों को निकालने का काम करेगी? केदारनाथ से लेकर गौरीकुंड तक अनेक जगह जमे मलबे के ढेर हटा पाना असंभव-सा कार्य है। उस पर हवा में फैल रही दुर्गन्ध घाटी के ऊपर हैलीकाप्टर में बैठे-बैठे ही महसूस की जा सकती है। साफ पता चल रहा है कि दैवी आपदा में अकाल काल के गाल में समा गए अभागों के शव सड़-गल रहे है। इस सबके बीच एक बड़ा मुद्दा उठाया इंदौर के रहने वाले शुभम जोशी ने। शुभम उन कुछ सौभाग्यशाली लोगों में से हैं जो केदारनाथ से जीवित बचकर लौटे। वे बोले, 'उस दिन रविवार था, सबसे भीड़ भरा दिन। केदारनाथ जी के एक दिन में दर्शन करने वालों की संख्या 15000 निर्धारित की गई है। साफ है कि इतने लोग तो केदारनाथ और रामवाड़ा में होंगे ही। अगले दिन दर्शन करने वाले लगभग इतने ही लोग गौरीकुंड और सोनप्रयाग में थे। और केदारनाथ की ओर बढ़ रहे लोग भी इतनी ही बड़ी संख्या में गुप्तकाशी, तिलवाडा आदि में थे। खच्चर वालों और हैलीकाप्टर सेवा वालों की हड़ताल के चलते सब जहाँ-तहां रुके हुए थे। किसी भी धर्मशाला या होटल में कोई जगह नहीं थी। पूरे रास्ते में कुल मिलाकर 50,000 लोगों में से एक तिहाई मारे गए होंगे। केदारनाथ मंदिर के सामने जो मलबा जमा है उसे भी हटा पाना मुश्किल। सिर्फ वहीं 800 से 1000 लोग दबे होंगे। यह मलबा ठीक मंदिर के सामने है, इसलिए नया रास्ता भी वहीं से होकर गुजरेगा। मलबा हटाना मुश्किल और सड़क बनाना भी जरूरी। साफ है कि सरकार मंदिर को ठीक- ठाक कर उस मलबे के ऊपर से ही सड़क बना देगी। फिर तीर्थयात्री उस पर से गुजरेंगे। इस निर्लज्ज और संवेदनहीन सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद भी मत रखिये। यह सारा सच लोगों के सामने न आने पाए इसीलिए उत्तराखण्ड की राज्य सरकार मदद के लिए बढ़े दूसरे प्रदेशों के हाथ झटक रही है। और शायद इसीलिए उसने केदारनाथ मंदिर के दोबारा निर्माण के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। सच है कि ऐसी निकम्मी, नाकारा और निर्लज्ज कांग्रेस सरकार देश में शायद ही कोई दूसरी हो।'
देशभर में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के नेतृत्व और लाचार राज्य प्रशासन के निकम्मेपन पर थू-थू हो रही है, पर टेलीविजन पर 17 दिन बाद मुख्यमंत्री बयान दे रहे हैं कि अब स्थानीय लोगों को सुरक्षित पहुंचाने के काम में प्रशासनिक अधिकारी बड़ी मुस्तैदी से जुटे हैं। सच तो यह है कि पहाड़ कमजोर हुए हैं, सड़कें कमजोर हुई हैं, लोग मजबूर हुए हैं तो सिर्फ और सिर्फ कमजोर शासन और लाचार प्रशासन की वजह से। सरकार की नाकामी और संवेदनहीनता के कुछ उदाहरण-
चार धाम यात्रा में जाने वाले तीर्थयात्रियों के लिए न कोई केन्द्रीयकृत सूचना केन्द्र, न उनके पंजीकरण की कोई योजना, न उन्हें नियंत्रित करने की कोई कार्य प्रणाली।
मौसम विभाग ने 12 जून को ही ऊंचे पर्वतों पर भारी बारिश और भूस्खलन की सूचना नहीं, चेतावनी और सलाह दी थी, पर सरकार ने अनदेखी की और चार धाम की यात्रा पर जा रहे लोगों को सूचित करने या सजग रहने की जरूरत नहीं समझी।
16-17 जून को जल प्रलय की विभीषिका को कम करके आंका और उसी दिन मुख्यमंत्री बहुगुणा प्रशासनिक अधिकारियों को प्रभावित क्षेत्रों में सक्रिय करने की बजाय दिल्ली चले आए। सूत्रों के अनुसार वे विदेश यात्रा के लिए वीसा आवेदन करने आए थे, पर जब राज्य से गंभीर खबरें आयीं तो बहाना गढ़ा कि राहत मांगने आए थे।
0 पहले कहा कुछ लोग फंसे हैं, कुछ दिन में निकाल लेंगे, पर 17 दिन बाद पता चला कि 1 लाख 10 हजार लोग बाहर निकाले गए।
सिर्फ और सिर्फ सेना, वायुसेना, भारत तिब्बत पुलिस बल, सीमा सड़क संगठन और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन विभाग के जांबाजों के सेवाभाव और अदम्य साहस की बदौलत बचे लोग और रा.स्व.संघ सहित अनेक सामाजिक संगठनों के लोग ही पीड़ितों तक मदद पहुंचाते दिखे। न कहीं तहसीलदार न एसडीएम और न ही कहीं चिकित्सालय, पूरा प्रशासनिक तंत्र भगवान भरोसे या सेना के भरोसे।
प्रशासनिक अधिकारी पहाड़ों में घाटियों में बिखरे पड़े शवों की सुरक्षा तक नहीं कर पा रहे थे। ऐसी आपदा में भी चोरी-चकारी की घटनाओं और शवों से कीमती आभूषण निकालने के लिए अंगुलियां तक काटकर ले जाने की घटनाओं ने देवभूमि के मूल निवासियों का सिर शर्म से झुकवा दिया।
पर्यटकों के बाहर जाते ही सामने आ रहा है कि पहले से ही अभावों और कठिनाइयों का सामना कर रही स्थानीय जनता भुखमरी की कगार पर है, राज्य सरकार राहत पहुंचाने में नाकाम। एक तरफ राहत सामग्री खुले में सड़ रही है तो दूसरी तरफ उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी और पिथौरागढ़ जिलों के कुल मिलाकर 642 गांवों में लोग निवाले को तरस रहे हैं।
ध्वस्त सड़कों, टूटे सम्पर्क मार्गों, बदहाल संचार नेटवर्क और धुप्प अंधेरे में डूबे इन गांव वालों के पास न तो मिट्टी का तेल पहुंच पा रहा है और न ही राशन। चावल-आटा-दाल अगर किसी स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं ने पहुंचा भी दिया तो मिट्टी का तेल या सिलेण्डर पहुंचाना उनके बस में नहीं। कैसे पकाएं और क्या खाएं स्थानीय जन।
आपदा के दौरान भी राजनीति इस कदर हावी कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की मदद तो छोड़िए, एकता मंच नामक एक स्वयंसेवी संस्था, जोकि शवों को निकालने और उसके अंतिम संस्कार करने का नि:शुल्क कार्य सुनामी के दौरान कर अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर चुकी है, उसे भी प्रभावित क्षेत्रों में नहीं जाने दिया, क्योंकि वह गुजरात की संस्था थी।
सरकार की नाकामी पर विपक्षी दल भाजपा ही नहीं, खुद कांग्रेसी विधायक भी आक्रोश में। रूद्रप्रयाग की कांग्रेसी विधायक शैलवाला रानी देहरादून सचिवालय में अंबिका सोनी के सामने ही चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थीं कि 'सरकार ने कुछ नहीं किया, मैं अपने क्षेत्र की जनता को क्या मुंह दिखाऊंगी।'
कांग्रेसियों से युवराज राहुल द्वारा हरी झण्डी दिखाकर भेजे गए राहत के ट्रकों को भी डीजल उपलब्ध नहीं करा पाई राज्य की सरकार। हरिद्वार-देहरादून के बीच खड़े ट्रकों के चालक राहत सामग्री बेचकर डीजल खरीदने की बात टी.वी. पर कहते देखे गए तो कांग्रेसी मुंह चुराने को हुए मजबूर। सिर्फ एक ही चेहरा सामने-बिजय बहुगुणा, जिनके चेहरे पर इस महान विपदा के दु:ख की छाया तक देखने को नहीं मिलती। बद्रीनाथ से लौटकर जितेन्द्र तिवारी
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