कैरी की मीठी मीठी बतियां
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अमरीका के विदेश मंत्री के नाते 23 जून को पहली बार तीन दिन के लिए भारत आए जॉन कैरी ने अमरीकी हेकड़ी की झलक दिखाई तो मीठी मीठी बातों से भारत के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद और प्रधानमंत्री मनमोहन का मन मोहना भी चाहा। भारत-अमरीका के बीच चौथे दौर की रणनीतिक बातचीत में अफगानिस्तान न उभरता, ऐसा संभव ही नहीं था। वहां तालिबानियों से बातचीत बढ़ाने को राष्ट्रपति ओबामा और राष्ट्रपति हामिद करजई के बीच सहमति होने के बाद भला कैरी भारत की चिंताओं के आगे ढीले क्यों पड़ते। उन्होंने पूरी दमदारी से जता दिया कि, भई बात तो अब होकर रहेगी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय तौर पर मान्य कायदों पर कोई समझौता नहीं होगा। लेकिन साथ ही कैरी ने मुलामियत दिखाते हुए कह दिया कि आने वाले अफगानी चुनावों में नई दिल्ली को केन्द्रीय भूमिका निभानी होगी, उसका चुनाव तंत्र सुधारने में मदद देनी होगी। कैरी ने मिठास बढ़ाते हुए कहा कि, भारत और अमरीका में वह कुव्वत है कि वैश्विक शिक्षा की अगुआई कर सकें। दोनों देशों के कई शिक्षा संस्थानों ने लगे हाथ कई करार कर डाले। कैरी ने कहा, दोनों देशों में बड़ी तादाद में नौजवान हैं जिन्हें प्रशिक्षित किया जाना है। काम के अलावा उन्हें लोकतंत्र में भागीदारी के लिए भी प्रशिक्षित करना है ताकि वे तथ्य और कल्पना में भेद करना जान सकें। भारत और अमरीका, दोनों दुनिया के साथ यह साझा कर सकते हैं।
अब बात भारत-अमरीका परमाणु संधि की, जिसे अमरीका जल्दी से जल्दी अमल में लाना चाहता है। मनमोहन सिंह सितम्बर-अक्तूबर में अमरीका जाने वाले हैं, उससे पहले जुलाई में अमरीका के उप राष्ट्रपति जो बिडेन भारत आने वाले हैं। कैरी ने साफ कहा कि परमाणु करार के तहत दोनों देशों की परमाणु ऊर्जा कंपनियों के बीच करार समयबद्ध सीमा में हो जाए ताकि सिंह के अमरीका आने तक करार पर व्यापारिक तौर पर काम शुरू हो जाए।
स्नोडन के खुलासे का असर!
अल कायदा बदल रहा है संपर्क के तरीके
स्नोडन ने अमरीकी प्रिज्म जासूसी का पिटारा क्या खोला, जिहादियों के छतरी गुट अल कायदा ने अब आपसी बातचीत के अपने तौर- तरीके बदलने की कवायद शुरू कर दी है। उधर अमरीकी खुफिया एजेंसियां अब उग्रवादी गुटों के अपने जुटाए डाटा को बचाने की मुहिम में जुट गई हैं। अमरीकी गुप्तचरी के दो बड़े अफसरों के हवाले से यह बात सामने आई है कि अल कायदा और बाकी के तमाम छोटे-बड़े जिहादी गुट अमरीकी खुफिया नजरों से बचने के लिए एक-दूसरे से संपर्क के अपने हथकंडे बदलने की कोशिश में जुटे हैं। अमरीका के एक सांसद की मानें तो, यमन के अल कायदा गुट ने सबसे पहले मीडिया में आए स्नोडन के खुलासे पर हरकत में आते हुए अपने संपर्क करने के अंदाज में तब्दीली लाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। अभी यह बात पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती है कि वे अपने ईमेल खाते बदल रहे हैं या अपने मोबाइल फोनों की कंपनियां या फिर अपने कूट संदेश भेजने के तरीके। अमरीकी सांसद आंगुस किंग तय मानते हैं कि स्नोडन के खुलासे ने उनके देश के दुश्मनों के कान खड़े कर दिए हैं। वे अब उन तकनीकों को लेकर ऊहापोह में हैं कि आखिर अमरीका उनकी हरकतों पर कैसे नजर रख रहा है, कैसे उनकी साजिशों को नाकाम कर लेता है। आंगुस को लगता है स्नोडन ने अमरीका की इन तमाम कोशिशों को धक्का पहुंचाने का काम किया है। अमरीकी खुफिया एजेंसियां और राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी जिहादी गुटों की इंटरनेट के जरिए चल रहीं बातचीतों पर गौर करते हुए उनमें मौके-बेमौके आने वाले बदलावों पर नजर रखे हुए थी। उनकी कोशिश जिहादियों के उस पैंतरे को पकड़ने की थी जिसको वे किसी की नजर में आने से बचने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। जिहदी गुट कितने सतर्क हैं, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, अमरीकी खुफियागिरी के खुलासे के बाद उन्होंने इस खबर को पोस्ट करके साथी जिहादियों को सलाह दी कि किसी वेबसाइट पर रजिस्टर करते हुए अपना असली फोन नम्बर या ऐसी कोई जानकारी न दें।
अमरीकी संसद की गुप्तचरी कमेटी के सदस्य रहे जेन हारमन ने तो एक दिलचस्प जानकारी भी दी कि, जब यह बात पकड़ में आ गई कि बिन लादेन 'थुराया' मोबाइल फोन इस्तेमाल कर रहा था, तो उसने फौरन मोबाइल छोड़ कुरियर का रास्ता अपनाया था। बिन लादेन का सुराग पकड़ने में दस साल से ज्यादा लग गए थे। तब जाकर उसी के एक कुरियर का पीछा करते करते पता चला था कि वह पाकिस्तान में एबटाबाद के उस घर में छुपा बैठा था।
फिर भड़का मुस्लिम बहुल सिंक्यांग
चीन का सिंक्यांग प्रांत एक बार फिर भारी उथल-पुथल में उलझा है। चीन के इस मुस्लिम बहुल पश्चिमी इलाके में पिछले दिनों ऐसा दंगा भड़का कि भीड़ खुलेआम चाकू लहराती हुई पुलिसथानों पर टूट पड़ी। सिंक्यांग की एक सरकारी इमारत पर भी धावा बोला गया। कुल 27 लोग जान से गए और 3 घायल हुए। 9 पुलिस वालों सहित 17 लोग दंगे में मरे जबकि 10 दंगाइयों को पुलिस ने गोली से उड़ा दिया। लाक्गुन नगर में हुए इस दंगे के पीछे सालों से सुलगता नस्लीय तनाव ही वजह बताया जा रहा है। वहां ज्यादातर रहने वाले तो अल्पसंख्यक उइगर मुस्लिम हैं पर उन पर शासन चीन के हान लोगों का है। यहां रह-रहकर नस्लीय हिंसा होती रही है। 2009 में तो उरुम्की नगर में ऐसा उपद्रव मचा था कि 200 लोग मारे गए थे। चीन अपने इस सुलगते इलाके के लोगों के अलगाववादी ख्यालों से अच्छी तरह परिचित है और इसीलिए वहां जरा सी भी चिंगारी को लपट बनने से पहले बुझाने का पुख्ता इंतजाम रखता है। बताते हैं, वहां अलगाववादी भावनाएं भड़काने के कथित आरोप में उलझे कई उइगरों पर नजर रखी जाती है।
आलोक गोस्वामी
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