मौत से लड़कर आए जो
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कुदरत के इस महाविनाश में जिन्होंने अपने खाये हैं, वे मायूस और बदहवास होकर लौट रहे है। जो लोग सही सलामत बचकर निकल आए हैं, उन्होंने मौत को इतने करीब से देखा है कि जिंदा होने का अहसास करना पड़ा है। सकुशल बचकर शांतिकुंज हरिद्वार पहुंचे सूरत (गुजरात) के बटुक सोलंकी ने बताया कि वह तबाही के दिन गौरीकुंड में ही रुके हुए थे। अचानक देखा कि लोग बदहवास हो रहे हैं। जैसे किसी ने उनके ऊपर कूड़े का ढेर डाल दिया हो और लोग उस ढेर के तले दबते चले गये। गौरीकुंड के पास खड़े सभी वाहन बह गये, जिनमें वहां से भागने के लिए सवारियां भी बैठी हुई थीं। मैंने किसी तरह पहाड़ पर चढ़कर जान बचाई। पांच दिन तक भूखे-प्यासे रहकर मौत से जंग लड़ी। साथ के सभी लोगों के बह जाने का दु:ख जिंदगी भर परेशान करेगा।
उदय डोडिया भी गुजरात से ही हैं। उन्होंने कहा कि उस दिन केदारनाथ धाम में अचानक पानी बढ़ने लगा, हम लोग घबराकर पहाडियों-जंगलों की ओर भाग गये। उसके बाद क्या हुआ, हमें पता ही नहीं चला। सब कुछ पलक झपकते ही नष्ट हो चुका था। पानी अपने साथ मिट्टी, पत्थर, धूल का गुबार लेकर पूरे केदारनाथ धाम को बहा ले गया। पांच दिन झाडियों, जंगलों में बिताये। फिर कहीं सेना का हैलीकॉप्टर दिखायी दिया। सेना द्वारा हमें नहीं बचाया जाता तो हम जिंदा नहीं बच सकते थे।
गंज बसौदा (मध्य प्रदेश) के कपिल शर्मा ने मौत का तांडव बहुत करीब से देखा है। कपिल ने बताया कि मेरे साथ 17 लोगों का दल गया था, केवल मैं जिंदा बचा हूं, और सभी लोग केदारनाथ में दब गये। वह भी बह गये थे, लेकिन पानी ने उन्हें किनारे लगा दिया, फिर भागकर जान बचायी। वहां लोग बहे भी और दबे भी। तीन दिन लाशों के बीच बिताये। यहां तक कि ठंड से बचने के लिये मैंने एक लाश से जैकेट निकालकर उसे पहना। लोगों को मलबे के नीचे दबते, चीखते और दम तोड़ते देखा।
मध्य प्रदेश (भोपाल) से आये कैलाश पालीवाल ने रामबाड़ा को पूरी तरह नष्ट होते साफ-साफ देखा। कैलाश के अनुसार हजार से अधिक लोग रामबाड़ा में थे। तूफान के रामबाड़ा पहुंचने से पहले ही वे कुछ लोगों के साथ पहाडियों की तरफ भागे और उनकी जान बच गयी। भूखे-प्यासे चार दिन काटे। बारिश का पानी पीकर प्यास शांत की। कुछ बिस्कुल के पैकेट साथ थे। उसके सहारे तीन और लोगों ने भी मौत का सामना किया। सेना के जवानों ने भगवान बनकर हमारी मदद की। हमें नया जीवन सेना के जवानों ने ही दिया है। मनोज गहतोड़ी
विश्व हिन्दू परिषद के संरक्षक श्री अशोक सिंहल राहत कार्यों को देखने व अपने कार्यकर्ताओं का हौंसला बढ़ाने देहरादून आए तो भाऊराव देवरस सेवाकुंज में डा.नित्यानंद जी का भी हालचाल लेने पहुंचे। ऐतिहासिक और मन को छू लेने वाले पल थे वे। दोनों के बीच पहले तो प्रकृति की विनाशलीला और बाबा केदारनाथ के द्वार पर हुई मानवीय त्रासदी को लेकर चर्चा हुई। इतिहास-भूगोल के ज्ञाता डा.साहब ने बताया कि केदारनाथ के ऊपर ग्लेशियर और उसके ताल के ऊपर बादल फटने से कैसे तबाही हुई होगी। फिर आपसी कुशलक्षेम-88 वर्षीय डा.साहब 86 वर्षीय अशोक जी से कह रहे थे कि आपके गीत याद आते हैं, आपकी वाणी अभी भी वैसी ही कड़क है। शरीर अब कैसा है? किसने स्वयंसेवक बनाया था, मोघे जी ने या रज्जू भैया ने। अशोक जी बोले, 'रज्जू भैया ने।' फिर अशोक जी ने इलाहाबाद की यादें ताजा कीं। विनम्र अशोक जी ने जब चलते समय नित्यानंद जी के पैर छुए तो स्पष्ट देख पाने में असमर्थ डा. साहब उनके स्पर्श से चौंके और बोले, 'यह क्या कर रहे हैं आप?'
88 साल के हो गए हैं हिमालय पुत्र डा.नित्यानंद जी। रा.स्व.संघ, मेरठ प्रांत के कार्यवाह रहे डा.नित्यानंद जी ने आजीवन अविवाहित रहकर अपने जीवन को राष्ट्रकार्य, विशेषकर हिमालय की सेवा को समर्पित कर दिया। उत्तरकाशी में 1990 में आए भूकंप के बाद तो मनेरी स्थित सेवा आश्रम ही उनका केन्द्र बन गया और वहीं रहकर उन्होंने राहत और पुनर्वास की सारी योजनाओं का संचालन किया। उन्हीं की प्रेरणा से उत्तरांचल दैवी आपदा पीड़ित सहायता समिति का गठन हुआ, जो आज प्रकृति की विनाशलीला के बाद पूरे हिमालयी क्षेत्र में राहत और बचाव कार्य को चला रही है। प्रकृति की इस नई विपदा से अत्यंत दु:खी, आहत और आक्रोशित डा.नित्यानंद जी बोले-'भुगतेंगे सब। प्रकृति से खिलवाड़ का परिणाम पूरी मानव जाति भुगतेगी। हम नदियों को जीने नहीं देंगे तो नदियां हमें जीने नहीं देंगी।
एक बात साफ-साफ समझनी होगी कि प्रकृति के अपने नियम हैं। वह इंसानों के चलाए नहीं चलती। प्रकृति बदलती है, अपने अनुरूप बदलती है। हिमालय में भी समय के अनुसार प्राकृतिक बदलाव आएंगे। पर हम इंसानों ने कुछ ऐसा किया कि वह बदलाव की गति तीव्र हो गई और अब अप्राकृतिक बदलाव आ रहे हैं। जल विद्युत परियोजनाओं के लिए सुरंगें बनाने के दौरान डायनामाइट लगाकर विस्फोट कराने से क्या पहाड़ कमजोर नहीं होते, हिलते नहीं। हम इंसानों ने ही पहाड़ों को भीतर से खोखला कर दिया है और उसके दुष्परिणाम भी हमें ही भुगतने होंगे।'
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