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जान बचाने के लिए लाशों पर चलकर आए कांपते बच्चों की हकलाहट भरी कहानियां और आंखों के सामने साथी की मौत देखने वाले पति–पत्नियों की हिचकियां। केदारघाटी में 'हिमालय' की कराल गर्जना से देश थरर्ा गया है। सरकारी आंकड़ा जो हो, ऐसी सूचनाएं हैं कि हजारों घरों के दीपक इस एक लहर में बुझ गए। आंसू कम पड़ जाएं, शब्द खत्म हो जाएं, ऐसी आपदा!
औसत से ज्यादा बरसात हुई, यह एक तथ्य है, पूरी बात नहीं। यह सारी विनाशलीला चंद बौछारों की नहीं बल्कि कुदरत से जिद और नासमझी भरे विकास की कहानी है। प्रगतिपथ पर बढ़ते प्रकृति के संकेतों की अनसुनी करते कानों के लिए यह जलप्रलय एक चेतावनी है।
अथर्ववेद का एक सूक्त आज प्रासंगिक है–
यद्वदामि मधुमत्तद्वदामि यदीक्षे तद्वनन्ति मा।
त्विषीमानस्मि जूतिमानवान्यान्हन्मि दोधत:।।
संक्षेप में इसका अर्थ है कि प्रकृति का अत्यधिक दोहन विनाश लेकर आता है। बात कितनी सही है, आज खुद अंदाजा लगाइए। भारत को सही–गलत का ज्ञान सदियों से था, परंतु पोथियों की सभी बातों को पुरानी कहकर तरक्की की नई–नई राह पर बढ़ते नीतिनिर्धारकों और योजनाकारों ने समाज को जाने कैसी पट्टी पढ़ाई कि सब उलट–पलट हो गया। नदियों को पूजने वाला समाज उनके पाट पर चढ़ बैठा। विविधतापूर्ण जैव जगत से गूंजती घाटियां, कंपनी जगत की तिजोरियां भरने के लिए खंगाली, कंगाल की जाने लगीं। तीर्थाटन की पुण्य कमाई का संस्कार हमने पर्यटन और 'पैकेज डील' में लुटा डाला।
'गति' के लिए प्यास रखने वाला समाज सिर्फ और सिर्फ 'प्रगति' के लिए बावला हो उठा? तरक्की के पश्चिमी मॉडल के अंधानुकरण पर सवाल ना उठे हों, ऐसा नहीं है। इसके टिकाऊपन पर भी सदा अंदेशा रहा। कुदरत को रौंदते हुए आगे बढ़ने का यह विकासमार्ग, पूरा मॉडल, आज भरभराकर गिर गया लगता है। प्रगति की राह में प्रलय का यह साक्षात्कार राष्ट्र और समाज के रूप में हमारे लिए आंखें खोलने वाला है। प्रकृति से तादात्मय रखते हुए विकास की संस्कृति छोड़ हम किस दिशा में जाएंगे!!
समाज जीवन को एक पल के लिए संज्ञाशून्य कर देने वाले इस झटके के बाद गति लड़खड़ाना स्वाभाविक है। मगर कुदरत से खिलवाड़ की इस जानलेवा राह पर हम कब और कहां तक बढ़ेंगे, यह सोचना होगा। देशहित किसी 'इंडेक्स' से मापी जा सकने वाली चीज नहीं है। सरकारी या कंपनी जगत के मुनाफे की देश क्या कीमत चुकाएगा, यह देखना होता है। यह सिर्फ जमीन नहीं, जन और जीवन के संपूर्ण तंत्र से जुड़ी बात है। स्थाई विकास की राह पर बढ़ने की नीतियों में देशहित सर्वोपरि होना चाहिए। ऐसी नीतियां दीर्घसूत्री कार्ययोजना, दृढ़संकल्प और व्यक्तिगत हितों का बलिदान मांगती हैं। त्वरित प्रगति और तिमाही नतीजों के उलट इस सब में जरा वक्त लगता है।
समय पर हम नहीं चेते, गलत राह पर अड़े रहे इसलिए काल ने हमें मर्मांतक पीड़ा भरी सीख दी है। इस सदमे से उबरने के बाद नीति–निर्धारकों को मिल–बैठकर नए सिरे से सोचना चाहिए।
फिलहाल यह समय, यह घड़ी, मिलकर उठ खड़े होने की है। आइए, आगे बढ़ें। इस महाआपदा के बाद सहारा ढूंढते हाथों को थामना और मदद तलाशती आंखों में आशादीप बुझने ना देना, यही आज का राष्ट्रधर्म है।
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