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गंगा नहीं, अब बस बिजली चाहिए!

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Jun 15, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Jun 2013 16:44:47

 

हमारे पूर्वजों ने हमें फार्मूला दिया था- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। अर्थात् धर्मानुकूल धन कमाना चाहिये। आर्थिक स्थिति के अनुसार भौतिक सुख भोगना चाहिये। मोक्ष के लिये समाज, आर्थिक विकास और भौतिक सुख, तीनों का त्याग कर देना चाहिये। इसी फार्मूले के अनुसार हमें गंगाजी और धारी देवी के विषय को समझना चाहिये। गंगा की आध्यात्मिक शक्ति उसके जल के बद्रीनाथ और केदारनाथ के मंदिरों के नीचे से बहने के कारण उत्पन्न होती है। इस ब्रह्मद्रव्य में विष्णु एवं शिव का प्रसाद रहता है। तीर्थयात्री द्वारा गंगा में स्नान करने से उसके हृदय का सीधा संपर्क विष्णु और शिव से स्थापित होता है। इसी वजह से गंगा को मोक्षदायिनी कहा गया है। गंगा के जल में विद्यमान यह प्रसाद जल-बूंदों के रूप में रहता है। पानी के हाइड्रोपावर टर्बाइन के पंखों से टकराने से बूंदों के समूह बिखर जाते हैं और गंगाजी की आध्यात्मिक शक्ति नष्ट हो जाती है। क्या इसका यह प्रमाण नहीं कि तीर्थयात्री अब हरिद्वार को कम पसन्द करते हैं और सीधा गंगोत्री जाने को आतुर रहते हैं?

देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा के संगम से गंगा बनती है। देवप्रयाग के ऊपर श्रीनगर में अलकनंदा पर हाइड्रोपावर परियोजना निर्माणाधीन है। इसकी झील के डूब क्षेत्र में सिद्धपीठ धारी देवी मंदिर आ रहा है। इस मंदिर में वैष्णो देवी की तरह शिला की पूजा-अर्चना होती है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने यहां तपस्या की थी। उनका स्वास्थ्य यहां बिगड़ गया था। तब ग्वालिन के रूप में देवी ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि 'तुम तो केवल ब्रह्म को मानते हो, उनसे ही अपने उपचार को कहो।' इस पर शंकराचार्य ने देवी के सामने मत्था टेका। तब उनका स्वास्थ्य ठीक हुआ। समयक्रम में शिला के सामने एक मूर्ति स्थापित कर दी गई है। श्रीनगर बांध परियोजना की कार्यदायी कम्पनी का प्रस्ताव है कि मूर्ति को उठाकर उसी स्थान पर खम्भों पर स्थापित कर दिया जाये और मूल शिला को झील में जलमग्न कर दिया जाये। धारी देवी को पानी में समा देना वैसा ही है जैसे हेमकुण्ड साहब अथवा मक्का को हाइड्रोपावर के लिये जल में विलीन करना। इस परियोजना से मोक्ष की दोहरी हानि हो रही है। गंगा में विद्यमान विष्णु एवं शिव का प्रसाद भंग हो रहा है और धारी देवी शिला की शक्ति से मानव समाज वंचित
होने को है।

हाइड्रोपावर के संदर्भ में धर्म के चार पक्ष हैं। पहला पक्ष पर्यावरण का है। अलकनंदा में माहसीर नाम की मछली होती है। इसका निवास नदी के निचले हिस्से में होता है किन्तु अन्डा देने के लिये यह ऊपर आ जाती है। बांध की अड़चन के कारण अब यह ऊपर अपने प्रजनन क्षेत्र तक नहीं जा पायेगी। इसके अतिरिक्त मछलियों, केंचुओं तथा कछुओं का भोजन 'गाद' होती है। यह बांध की झील में जमा हो जायेगी। ये जीव-जन्तु भूखे रह जायेंगे। इसके अतिरिक्त लगभग 350 हेक्टेयर जंगल इस झील में डूब जायेगा। इससे जैव विविधता नष्ट होगी।

धर्म का दूसरा पक्ष राष्ट्र की ऊर्जा सुरक्षा का है। सरकार की पॉलिसी है कि ऊर्जा की सम्पूर्ण भूख को पूरा किया जाये जो कि सम्भव नहीं है, चूंकि ऐसी भूख कभी पूरी होती ही नहीं। वर्तमान में ऊर्जा की खपत घरेलू क्षेत्र में तेजी से बढ़ रही है। बड़े शहरों की कोठियों में 4 व्यक्तियों के परिवार के लिये करीब 25,000 रु. प्रति माह का बिजली का बिल सामान्य हो गया है। एयर कंडीशनर इत्यादि चौबीस घंटे चलते हैं। इस खपत से आर्थिक विकास नहीं होता है। विकास मुख्यत: सेवा क्षेत्र से हो रहा है। ऊर्जा के लिए हम आयातित तेल, कोयले तथा यूरेनियम पर निर्भर होते जा रहे हैं। यदि पश्चिम एशिया के देशों ने हमें तेल देना बन्द कर दिया तो हम 15 दिन में ही घुटने टेक देंगे। अत: विलासिता के लिये ऊर्जा की खपत कम करनी चाहिये।

धर्म का तीसरा पक्ष अन्तरराष्ट्रीय है। विकसित देशों का दबाव है कि हम ताप ऊर्जा का उत्पादन कम करें, क्योंकि इसमें होने वाले कार्बन उत्सर्जन से वे प्रभावित होते हैं। वे चाहते हैं कि हम हाइड्रोपावर ज्यादा बनायें क्योंकि वे इसके दुष्परिणामों से बचे रहते हैं। हमें इस सलाह से दोहरा नुकसान है। दूसरे देशों द्वारा बढ़ते कार्बन उत्सर्जन से हम प्रभावित होंगे और उनको बचाने के चक्कर में हम अपनी नदियों को नष्ट कर देंगे, हमारा पर्यावरण दुबारा दूषित होगा।

धर्म का चौथा पक्ष जनहित का है। धर्म कहता है कि राजा को गरीब का विशेष ध्यान रखना चाहिये। यही गांधीजी का सपना था। परन्तु हाइड्रोपावर की चाल इसके विपरीत है। इन परियोजनाओं के दुष्परिणाम गरीब पर पड़ते हैं। वे नदी से मिलने वाली बालू और मछली से वंचित हो जाते हैं। उनके जल स्त्रोत सूखते हैं। खेती प्रभावित होती है। झील में पनपने वाले मच्छर और झील से निकलने वाली मीथेन गैस से उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है। जमीन धसने से उनके मकान टूटते हैं। दूसरी ओर बिजली महानगरों और राजधानी के लोगों को आराम देने के लिये चली जाती है। इस प्रकार परियोजना के माध्यम से गरीब के संसाधन छीन कर अमीरों को पहुंचाए जा रहे हैं। पर्यावरण, ऊर्जा सुरक्षा, अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति एवं गरीब पर पड़ने वाले प्रभावों को देखा जाये तो ये परियोजनायें अधर्म की मूर्तियां हैं। ये परियोजनायें आर्थिक विकास में भी सहायक नहीं हैं। कार्यदायी कम्पनी को उत्पादन में आने वाली सीधी लागत मात्र अदा करनी पड़ती है, जैसे 'डेप्रीशियेशन', 'इन्टरेस्ट', 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली राज्य को देना, इत्यादि। दूसरे तमाम दुष्प्रभावों का खामियाजा समाज भुगतता है, जैसे मछली, मच्छर, बालू, ऊर्जा सुरक्षा इत्यादि का। इन तमाम दुष्प्रभावों का आर्थिक आकलन कर लिया जाये तो सिद्ध हो जायेगा कि ये परियोजनायें आर्थिक विकास के लिये भी हानिकारक हैं।

हमारी पवित्र नदियों को बिजली बनाने का कच्चा माल मानकर नष्ट करने से अध्यात्म, धर्म और आर्थिक विकास, तीनों की हानि होती है। कार्यदाई कम्पनी और राज्य सरकार के नेताओं तथा अफसरों के स्वार्थ मात्र के लिये गंगाजी के साथ दुराचार किया जा रहा है।  b÷É. भरत झुनझुनवाला

गंगाजी पर बन रहीं परियोजनाएं

परियोजना क्षमता चालू होने का

                (मेगावाट) संभावित समय

टिहरी पीएसपी           1000   2017-18

तपोवन विष्णुगढ़    520   2015-16

लता तपोवन  171           2017-18

स्वर कुड्डू               111   2014-15

तांगू-रोमाई              44   2015-16

श्रीनगर      330           2013-15

फाटा ब्यूंग               76   2014-15

सिंगोली भटवारी       99    2015-16

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