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बस्तर के दरभा इलाके की झीरम घाटी में 25 मई की शाम कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के काफिले पर हमला करके माओवादियों ने अपनी हताशा का बर्बर चेहरा उजागर कर दिया। इस वारदात में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, उनके पुत्र दिनेश, पूर्व मंत्री और सलवा जुडूम के पीछे की ताकत महेन्द्र कर्मा, पूर्व विधायक उदय मुदलियार समेत 25 लोग मारे गए और पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 लोग घायल हुए हैं।
समूचे देश को झकझोर देने वाली इस घटना ने सियासी गलियारों में सरगर्मी भी बढ़ा दी है। लिहाजा घटना के मूल में जाने की बजाय आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। घटना वाले दिन सुकमा में परिवर्तन यात्रा की सभा के बाद कांग्रेसियों का दल वहां से केशलूर के लिए निकला था। राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 30 पर तोंगपाल से लेकर कामागार तक साल घाटियां और साल के घने जंगल हैं, जो घात लगाकर हमला करने के लिहाज से बेहद उपयुक्त जगह है। सुरक्षा नियमों के मुताबिक ऐसी जगहों से विशिष्ट लोगों के गुजरने से पहले पुलिस की 'रोड ओपनिंग पार्टी' गुजरती है, जो बारूदी सुरंग की खोजबीन के साथ ही रास्ते के दोनों ओर जंगलों को भी खंगालती है। पर घटना वाले दिन ऐसा नहीं कर गंभीर लापरवाही बरती गई। घटनास्थल के दोनों ओर करीब 10-10 किमी पर तोंगपाल और दरभा थाना है। काफिले के आगे के वाहनों के लोगों ने, हमले में बचने के बाद, दरभा पहुंचकर पुलिस को हमले के बारे में बता दिया था। फिर भी पुलिस कुछ नहीं कर पाई।
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक घटना को अंजाम देने में करीब तीन सौ माओवादी शामिल थे, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी थीं। इतनी बड़ी संख्या में लोग पलक झपकते ही नहीं पहुंच सकते। आसपास के ग्रामीण बताते हैं दो तीन पहले से ही क्षेत्र में नए लोग दिख रहे थे। मौके पर दोहपर से ही पहाड़ियों और जंगलों में माओवादी घात लगाकर बैठ गए थे। राजमार्ग के किनारे घात लगाकर बैठे तीन सौ लोगों पर किसी की नजर न पड़ना भी आश्चर्यजनक है और पुलिस के खुफिया तंत्र की पोल खोलने को काफी है। घटना के बाद बस्तर के एसपी मयंक श्रीवास्तव को निलंबित कर दिया गया और आईजी हिमांशु गुप्ता और कलेक्टर अम्बलगन पी. का तबादला कर दिया गया। हर बड़ी वारदात खुफिया तंत्र की चूक मानी जाती है और हमेशा की तरह खुफिया विभाग के जिम्मेदार इस दफा भी साफ बच गए।
दरअसल अप्रैल 2010 में ताड़मेटला में हुए माओवादियों के हमले, जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए थे, से सबक लेते हुए बस्तर में भारी संख्या में पुलिस और कुछ सुरक्षाबलों की तैनाती के साथ ही इन्हें आधुनिक हथियार और संचार साधनों से लैस किया गया था। माओवादियों के खिलाफ मुहिम तेज की गई थी। देश में इनके सबसे बड़े ठिकाने अबूझमाड़ में सुरक्षा बलों ने दबिश दी और दक्षिण बस्तर को आंध्र प्रदेश से जोड़ने वाले उनके खास गलियारे, जिसे वे अपनी 'लिबरेटेड जोन' कहते हैं, को सुरक्षा बलों ने अवरुद्ध कर दिया। इन सबके चलते सुरक्षा बलों पर हमले में काफी कमी आई और बारूदी सुरंगों, जिसे माओवादियों का अचूक अस्त्र माना जाता है, के धमाकों के सिलसिले में 80 फीसदी तक की कमी आ गई।
बीते साल की तरह बारिश से पहले बस्तर में सीमावर्ती राज्यों की पुलिस के सहयोग से बड़ा अभियान चलाने की भी चर्चा थी। इस सबके चलते माओवादियों के लिए अपने अस्तित्व का सवाल खड़ा हो रहा था सो उन्होंने अपने लोगों का मनोबल बढ़ाने और विश्व स्तर पर सुर्खियां बटोरने के मकसद से पहली दफा शीर्ष नेताओं को निशाना बनाने की हिमाकत की।
यदि सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार अमला अपने दायित्वों के प्रति सचेत रहता तो निश्चित तौर पर इस हादसे को टाला जा सकता था। घटना के समय यदि पुलिस ने 'रोड ओपनिंग' की होती तो निश्चित तौर पर वहां छिपे माओवादियों का खुलासा हो जाता। खुफिया विभाग को ओडिशा सीमा पर माओवादियों के जमावड़े की जानकारी लगातार मिल रही थी। दरभा डिविजनल कमेटी की सक्रियता भी बढ़ी थी। खुफिया विभाग दरभा इलाके के थानों और चौकियों पर ही हमले का अंदाजा कर रहा था, लेकिन माओवादियों ने नेताओं पर हमला कर हमेशा की तरह चौंकाने वाली वारदात की।
पुलिस की तुलना में माओवादियों का सूचना तंत्र कहीं ज्यादा मजबूत दिखता है। माओवादियों की पीपुल्स सीक्रेट सर्विस इलाके में हो रही हर तरह की गतिविधियों की जानकारी रखती है तो शहरी ताना-बाना सरकार की गतिविधियों पर। वहीं इनकी 'मिलिट्री इंटेलीजेंस' सुरक्षाबलों की जानकारी जुटाकर रखती है। सुरक्षा बलों के कैंप से निकलते ही जंगलों में मौजूद माओवादियों को उनकी खबर लग जाती है। हर बड़े हमले से पहले 'मिलिट्री इंटेलीजेंस' इलाके का खाका तैयार कर अपने लड़ाकों से अभ्यास करवाती है। पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही बड़ी वारदात को अंजाम दिया जाता है।
बस्तर में माओवादियों की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के अधीन दो रिजनल कमेटी, सात डिविजनल कमेटी हैं। हर डिविजनल कमेटी में 3-4 एरिया कमेटी और हर एरिया कमेटी में 3-4 लोकल आर्गेनाइजेशन स्क्वाड और लोकल गुरिल्ला स्क्वाड होते हैं। इनमें एलओएस राजनीतिक इकाई और एलजीएस सैन्य इकाई है। इसके साथ ही अबूझमाड़ और दक्षिण बस्तर में माओवादी लड़ाकों की दो बटालियन हैं। माओवादियों की सैन्य इकाइयों में 40 फीसदी से अधिक महिलाएं हैं।
इस घटना को कांग्रेस भाजपा की साजिश बता रही है तो कांग्रेसियों का ही एक धड़ा कह रहा है कि इस वारदात में जोगी के सारे विरोधियों का खात्मा हो गया। वैसे राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि तीसरी पारी की आस लगाए भाजपा भला ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठाएगी। बहरहाल राजनीतिक तर्क-कुतर्क से कुछ नहीं होने वाला। माओवादियों को बर्बर हत्यारा, लुटेरा और देशद्रोही कहकर इस गंभीर समस्या का खात्मा नहीं किया जा सकता। क्योंकि अपने प्रभाव वाले इलाके के वनवासियों में उन्होंने एक छवि बना ली है। गुरिल्ला लड़ाई का सिद्धांत है- जीत उसी की जनता जिसके ºÉÉlÉ* nUôkÉÒºÉMÉg प्रतिनिधि
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