भारतवर्ष को 'राजीववर्ष' कहने में देर क्यों?
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भारतवर्ष को 'राजीववर्ष' कहने में देर क्यों?

by
May 27, 2013, 12:00 am IST
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दिंनाक: 27 May 2013 14:53:19

 

 

21 मई की प्रात: का टाइम्स आफ इंडिया सामने आया तो उसके लगभग प्रत्येक पन्ने पर एक सुंदर युवा चेहरे का बहुरंगा आकर्षक चित्र आंखों को बरबस खींच रहा था। पाया कि यह युवा चेहरा भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों और उत्तराखण्ड, हिमाचल राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली व केरल (जहां-जहां सोनिया पार्टी सत्ता में है) की सरकारों के विज्ञापनों का हिस्सा है। अकेले टाइम्स आफ इंडिया में ऐसे 11 विज्ञापन थे। कोई पूरे पृष्ठ का, कई आधे-आधे पृष्ठों के और एक-दो चौथाई पृष्ठ के। कुल मिलाकर सात-आठ पृष्ठ विज्ञापन टाइम्स आफ इंडिया के गुड़गांव संस्करण में छपे देखे। यह सौगात केवल टाइम्स आफ इंडिया के हिस्से में नहीं आयी, पूरे भारत के लगभग सभी भाषाओं के समाचार पत्रों को यह सौगात बांटी गयी। जो विज्ञापन जगत से जुड़े हैं वे अनुमान लगा सकते है कि इस सौगात को बांटने में जनता के पसीने यानी सरकारी खजाने की कितनी राशि खर्च हुई होगी। इन विज्ञापनों के द्वारा स्व.राजीव गांधी को उनके बलिदान के प्रति श्रद्धांजलि प्रचारित की गयी। इन श्रद्धांजलियों में कहीं उनको 'इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माता, कहीं करोड़ों लोगों की नियति को आकार देने में एक व्यक्ति की दूरदृष्टि, कहीं महिला सशक्तिकरण के स्वप्नदर्शी' जैसे अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया। राजीव जी के प्रति श्रद्धांजलि के विज्ञापनों में उनकी पत्नी सोनिया का चित्र भी एक कोने में देना पता नहीं 'क्यों'आवश्यक समझा गया।

राजनीति के अनिच्छुक राजीव

राजीव गांधी की 21 मई, 1991 को लोकसभा चुनाव अभियान के अंतिम चरण में तमिलनाडु के पेरम्बदूर नामक स्थान पर श्रीलंका में 'तमिल एलम' की मांग के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहे लिट्टे के आत्मघाती दस्ते ने हत्या कर दी थी। जिन परिस्थितियों में उनकी हत्या हुई, उस पर पूरे राष्ट्र का शोकमग्न व विक्षुब्ध होना स्वाभाविक था। वह होना ही चाहिए। क्योंकि इस हत्या के साथ ही उनके 11 वर्ष लम्बे राजनीतिक जीवन का पटाक्षेप हो गया। राजनीति या राष्ट्र निर्माण राजीव के जीवन की प्राथमिकता कभी नहीं थे। विमान चालन में उनकी सहज रुचि थी। भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आवास में रहते हुए भी उन्हें गैरराजनीतिक जीवनशैली ज्यादा पसंद थी। राजधानी के अनेक वरिष्ठ पत्रकारों ने उन्हें अपनी विदेशी पत्नी और बच्चों की उंगली पकड़कर कनाट प्लेस के 'रेस्तरां' में आम नागरिक की तरह चाट-पकोड़े और फास्टफूड के चटखारे लेते देखा था। राजनीति को उन्होंने अपने छोटे भाई संजय के लिए छोड़ दिया था।

   उनकी विदेशी पत्नी सोनिया ने भी उन्हें राजनीति के खतरों से दूर रखने की पूरी कोशिश की थी। आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनावों में पराजित इंदिरा गांधी जब जनता पार्टी सरकार के गृहमंत्री चौ.चरणसिंह की बदला नीति से अकेले जूझ रही थीं, तब उनका छोटा पुत्र संजय तो उनके साथ खड़ा था, पर सोनिया अपने पति राजीव और दोनों बच्चों को लेकर दिल्ली स्थित इतालवी दूतावास के सुरक्षित परिसर में चली गयी थीं। किंतु 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी के बाद 23 जून, 1980 को एक विमान दुर्घटना में संजय की अकस्मात मृत्यु से सन्न इंदिरा गांधी को अपनी वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए राजनीति में आने के अनिच्छुक राजीव को विमान चालन से खींचकर सक्रिय राजनीति में लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। उन्होंने राजीव का राजनीतिक प्रशिक्षण आरंभ कर दिया। उन्हें इंदिरा कांग्रेस का महामंत्री बनाकर संगठन की बागडोर सौंप दी। अभी इस प्रशिक्षण के पांच साल भी पूरे नहीं हुए थे कि 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री निवास के भीतर ही उनके दो निजी अंगरक्षकों ने जून, 1984 के आपरेशन 'ब्लूस्टार' का बदला लेने की नीयत से उनकी हत्या का अकल्पित दृश्य खड़ा कर दिया। राष्ट्रीय संकट के उन क्षणों में राजीव के कंधों पर कार्यकारी प्रधानमंत्री का भार आ गिरा। और फिर शीघ्र ही लोकसभा चुनावों में इंदिरा जी की अवांछित हत्या से उत्पन्न देशव्यापी शोक और सहानुभूति की लहर पर सवार होकर वे 404 सदस्यों का बहुमत प्राप्त कर पूर्णाधिकार सम्पन्न प्रधानमंत्री बन गये। इस 404 संख्या का महत्व इस बात में है कि इसके पहले जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक किसी को इतना भारी बहुमत कभी प्राप्त नहीं हुआ था।

अप्रभावी प्रधानमंत्री   

यह अवसर था राजीव गांधी के अपने सपनों के भारत के निर्माण का, अपनी स्वप्नदर्शिता को साकार करने का, अपने को करोड़ों भारतीयों का नियति पुरुष सिद्ध करने का। किंतु वे अपने मंत्रिमंडल को भी एक नहीं रख पाये, भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गये और अगले ही चुनाव में (1989 में) 404 सदस्यों वाले बहुमत को टिकाना तो दूर वे सत्ता भी गंवा बैठे। पांच साल के प्रधानमंत्रित्व काल में उनके राजनीतिक चातुर्य के अनेक किस्से चर्चित थे। शाहबानो की अन्तर्कथा के साक्षी उस समय के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान हैं, सलमान रुश्दी की पुस्तक 'सेटेनिक वर्सेज' को देखे बिना ही उस पर प्रतिबंध लगाने की घटना सर्वज्ञात है। इस प्रकार मुस्लिम वोटों को पटाने के बाद हिन्दू वोटों के लिए 1986 में रामजन्मभूमि मुंदिर का ताला खुलवाना और 1989 में राममंदिर के शिलान्यास की अनुमति देने की कहानी उस समय के गृहमंत्री बूटा सिंह के शब्दों में उपलब्ध है। पर इस राजनीतिक चातुर्य और बोफर्स तोप खरीद में दलाली के आरोपों का परिणाम हुआ कि 1989 के चुनावों में राजीव सत्ता से बाहर हो गये। उनकी दूरदर्शी राजनीति को 'मूर्ख मतदाता' समझ ही नहीं पाये।

   1989 में सत्ता राजीव से खिसक कर उनके अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा गठित जनता दल के पास चली गयी। पर अपने दोगले आचरण के कारण वी.पी.सिंह की सरकार दो साल में ही धराशायी हो गयी और तब राजीव ने जनता दल से टूटे चन्द्रशेखर की अत्यंत अल्पमत सरकार को अपने बाहरी समर्थन की बैसाखी पर खड़ा करने की कोशिश की, पर भोंडसी में भैंसों की जासूसी ने उस सरकार को भी गिरा दिया। और तब राजीव नई लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरे और उसके अंतिम अर्थात चौथे चरण में लिट्टे के आतंकियों के हाथों बलि चढ़ गये। उनके आत्म बलिदान के बाद भी कांग्रेस पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं कर पायी। पर राजनीति में कुशल पी.वी.नरसिंह राव ने अल्पमत की कांग्रेस सरकार को पूरे पांच साल तक चलाकर दिखा दिया। उन पांच सालों में सोनिया लगभग अज्ञातवास में चली गयीं। राजीव जी की प्रतिभा, दूरदर्शिता और मौलिक कल्पनाओं का देश को पता तक नहीं चला। उनके आदमकद पोस्टर कहीं नहीं दिखायी पड़े। भारत सरकार के मंत्रालयों को अखबारों में उनके चित्र छपाने का स्मरण ही नहीं आया। शायद उन्हीं दिनों सोनिया ने राजीव की एक चित्रमय जीवन कथा प्रकाशित की। उसकी भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने कभी भी नहीं चाहा कि राजीव राजनीति के क्षेत्र में उछल कूद करें। 1996 से 2004 तक सोनिया पार्टी सत्ता से बाहर थी। इसलिए उन दिनों राजीव की महानता का साक्षात्कार देश को होता तो कैसे? 'प्रतिमा का सूर्य' सत्ताहीनता के बादलों के पीछे छिपा रह गया।

यूं बदला चरित्र   

2004 में सत्ता के सूत्र सोनिया के हाथों में आते ही गुमनामी के बादल छंट गये और 2004 से 2013 तक के नौ वर्षों में राजीव गांधी पूरे मीडिया पर, सरकारी तंत्र पर राष्ट्र गगन पर छा गये। इन नौ वर्षों में जवाहर लाल नेहरू भी पीछे चले गये। इंदिरा गांधी भी पीछे चली गयीं। सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री और पी.वी.नरसिंह राव तो किसी गिनती में ही नहीं थे। अगर कोई है तो केवल राजीव, सोनिया और उनकी संतानें- राहुल व प्रियंका। अब वंशवाद का आरंभ जवाहरलाल नेहरू से नहीं राहुल से होता है। जरा प्रतिवर्ष के समाचार पत्रों में नेहरू जी, इंदिरा जी एवं राजीव के जन्मदिवस और मृत्यु दिवस पर प्रकाशित सरकारी विज्ञापनों की संख्या और आकार का तुलनात्मक अध्ययन कीजिए,  पता चलेगा कि राजीव का ग्राफ कैसे ऊपर चढ़ता चला गया। इन 9 वर्षों में केन्द्र एवं सोनिया कांग्रेस शासित राज्यों में सरकारी भवनों, सड़कों, मुहल्लों, सरकारी प्रतिष्ठानों, योजनाओं और पुरस्कारों आदि का नामकरण इतनी तेजी से किया गया है कि उनकी विस्तृत सूची को देखकर लगता है कि भारतमाता की कोख ने राजीव से महान कोई दूसरा पुत्र जन्मा ही नहीं। राष्ट्रहित में, राष्ट्र के आत्मालोचन के लिए केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों, नगर निगम आदि स्थानीय संस्थाओं से यह सब जानकारी एकत्र करने का काम होना ही चाहिए था। पर हमारे राजनेताओं को और बड़े-बड़े काम करना है, इसलिए भारतीय लोकतंत्र की छाती पर मूंग दल रहे इस निर्मूल वंशवाद का खतरा उन्हें दिखायी ही नहीं देता।

  इसका श्रेय तो सोनिया जी को देना ही होगा कि उन्होंने केवल 9 वर्षों की अल्पावधि में राजीव को गुमनामी के अंधेरे से निकालकर भारत के आकाश का सूर्य बना दिया है। पूरा देश राजीवमय लगने लगा है, तो क्या इसकी सहज परिणति यह नहीं होनी चाहिए कि इस अभागे देश को भारत या इंडिया नाम से छुट्टी दिलाकर 'राजीववर्ष' नाम से गौरवान्वित किया जाए। भले ही इन दोनों नामों के पीछे हजारों साल का इतिहास हो, लेकिन नया इतिहास रचने के लिए नया नामकरण भी उतना ही आवश्यक है। यदि 'राजीववर्ष' नाम देना है तो वह जल्दी करना होगा। क्योंकि वक्त सोनिया जी के हाथ से निकलता जा रहा है। पिछले सप्ताह के कई सर्वेक्षणों ने उनके लिए खतरे की घंटी बजा दी है। अभी तो वे जो चाहें कर सकती हैं। तो देर काहे की 'मत चूको चौहान'। म

राजीव…सिर्फ राजीव

एक वरिष्ठ पत्रकार ए.सूर्यप्रकाश ने इस दिशा में स्वेच्छा से अपने सीमित साधनों के आधार पर इस दिशा में कुछ प्रयास किया है। उन्होंने जो जानकारी संकलित की है, उसे इंटरनेट पर भी डाल दिया है ताकि वह सर्वजन सुलभ हो सके। इंटरनेट से प्राप्त जो जानकारी मेरे सामने है उसको संक्षेप में यहां प्रस्तुत कर रहा हूं-

बारह केन्द्रीय योजनाओं/प्रकल्पों की सूची में से छह राजीव गांधी के नाम पर, चार इंदिरा गांधी के नाम पर और केवल दो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर हैं। (हालांकि यह सूची बहुत अपूर्ण लगती है।) राज्य सरकारों की 52 योजनाओं में से 25 राजीव के नाम पर और 27 इंदिरा जी के नाम पर हैं। खेलकूद प्रतियोगिताओं और ट्राफी की 28 नामों की सूची में से 23 राजीव, 3 इंदिरा गांधी और 2 जवाहरलाल नेहरू जी को समर्पित हैं। देशभर में बिखरे 19 क्रीड़ागनों (स्टेडियमों) में 11 राजीव, 6 इंदिरा, 1 जवाहरलाल और 1 बेचारे असली गांधी (महात्मा गांधी) के नाम दिये गये हैं। 5 विमानपत्तनों में 2 राजीव, 2 इंदिरा और 1 नेहरू को मिले हैं। विश्वविद्यालयों एवं शैक्षणिक संस्थानों की सूची में 98 नाम हैं, जिनमें 55 राजीव, 21 इंदिरा और 22 जवाहर लाल नेहरू को मिले। 51 पुरस्कारों की सूची में 17 राजीव,23 इंदिरा और 11 नेहरू के नाम पर हैं। 15 छात्रवृत्तियां/शोध प्रकल्पों में से 10 राजीव गांधी, 1 इंदिरा गांधी और 4 नेहरू जी के नाम पर। राष्ट्रीय उद्यानों, अभ्यारण्यों एवं संग्रहालयों की 15 संख्या में से 6 राजीव, 7 इंदिरा एवं 4 नेहरू के नाम पर। 39 अस्पतालों में से 15 राजीव, 15 इंदिरा और 9 नेहरू को। संस्थाएं/उत्सव व पीठ की कुल संख्या 37 में से 17 राजीव, 10 इंदिरा और शेष नेहरू। सड़क, भवन और स्थानों की सूची में कुल 73 नाम हैं जिसमें 22 राजीव , 23 इंदिरा और शेष नेहरू के नाम पर हैं। हालांकि यह सूची बहुत अपूर्ण है। उसे शीघ्र पूरा करना आवश्यक है। ंथन्

 

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