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मुसलमान समझें कि उनका हित कौन कर रहा है!

by
May 18, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 May 2013 13:34:12

 

देश में जब आतंकवादी घटनाएं चरम पर थीं तथा उसके कारण जन-आक्रोश उबलने लगा था, क्योंकि उन घटनाओं को अंजाम देने वाले या तो पाकिस्तानी नागरिक थे या फिर उनके हस्तक बने भारतीय मुसलमान, उस समय हमारे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने एक बयान में कहा कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं। जब उनसे पूछा गया कि किसने कहा है कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं, तो वे मौनी बाबा बन गए।

स्वतंत्रता मिलने के समय बड़ी संख्या में भारत में रहने वाले जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए, वे आज भी वहां मोहाजिर यानी शरणार्थी कहलाए जाते हैं। लेकिन जितने लोग पाकिस्तान गए उससे कहीं अधिक संख्या में मुसलमान भारत में ही रहे और आज इंडोनेशिया को छोड़कर दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान भारत में ही रह रहे हैं। आजादी के बाद भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को अवसर की समानता का हक दिया गया, लेकिन जो पिछड़े हुए थे, उनके लिए कुछ वर्षों के लिए विशेष प्रावधान शामिल किया गया। उस समय दो बड़ी गलतियां हुईं। एक तो हमने पिछड़ेपन को जाति से जोड़ दिया, और दूसरा यह कि जितनी अवधि में उनका पिछड़ापन दूर करने का संकल्प लिया था, उस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इसलिए पिछड़ी जाति का आरक्षण अब गले की फांस बन गया है। अब उसे न निगलते बन रहा है, न उगलते।

मजहबी आरक्षण का दंश

सर्वोच्च न्यायालय ने 49 प्रतिशत से अधिक आरक्षण तथा मजहब के आधार पर उसके निर्धारण को असंवैधानिक करार दिया। लेकिन मजहब के आधार पर आरक्षण की मांग जोर पकड़ती जा रही है। मुस्लिम समुदाय में पैठ बनाने के लिए कुछ राजनीतिक सौदागर न केवल मजहब के आधार पर आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं, बल्कि जनसंख्या के आधार पर भागीदारी की उठ रही मांग को भी हवा दे रहे हैं। यह जानते हुए भी कि यह संभव नहीं है। इसका नतीजा यह हुआ कि मुस्लिम समुदाय स्वतंत्रता के बाद भी वोट बैंक बनकर ही रह गया है। उसको भयभीत कर अपना बनाने के लिए कुछ संगठनों या व्यक्तियों द्वारा निरन्तर डराया जा रहा है। भले ही मुसलमानों को यह समझ में आ रहा हो कि वे इन सौदागरों के हाथ के खिलौना बने हुए हैं, फिर भी राष्ट्रीय मसलों पर उसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया बढ़ती जा रही है और मजहबी जुनून बढ़ता जा रहा है।

दुनिया भर में कहीं भी इस्लाम के अनुयायियों के साथ घटी घटनाओं पर यह उग्र होता है, लेकिन पाकिस्तान में यदि भारतीयों के साथ कोई अन्याय-अत्याचार होता है, तो वे चुप रहते हैं। कट्टर सोच के मुसलमानों की इस सोच का नवीनतम उदाहरण है पाकिस्तानी की जेल में सरबजीत पर हमला और उनकी मौत। जहां सारा देश, सभी प्रकार के संगठनों को इस मसले पर आक्रोशित देखा गया, वहीं किसी भी मुस्लिम संगठन या उसके तथाकथित नेता ने एक बयान तक जारी करने से परहेज किया।

इस्लाम पहले, देश बाद में

कुछ दशक पहले 'मुस्लिम ब्रदरहुड' नामक संगठन ने सारी दुनिया में यह अभियान चलाया था कि 'इस्लाम पहले देश बाद में।' कुछ समय के बाद यह उग्रता इस्लामी देशों में भी भर गई, लेकिन 'मुस्लिम ब्रदरहुड' पर वहां की राष्ट्रीयता भारी पड़ी। पर भारत में मुस्लिमों में इस समय 'मजहब पहले देश बाद में' की मानसिकता उभारी जा रही है। क्या इस प्रकार की मानसिकता के लिए पाकिस्तान ही जिम्मेदार है? जिस प्रकार कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 'सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं' कहकर समाज में फिर से वही दीवार खड़ी करने का काम किया जो 1947 के पूर्व थी। उसी प्रकार मुसलमानों को वोट बैंक मानकर उसे भुनाने वाले नेता आज भी कर रहे हैं।  आश्चर्य यह है कि मुसलमानों में पृथकता की भावना वे भर रहे हैं जो अपने को सेकुलर या समाजवादी कहते हैं।

मुलायम सिंह यादव चीन के मसले पर कितने मुखरित रहे हैं, यह हम सब जानते हैं, जबकि रक्षामंत्री रहते हुए वे एक बार भी चीन से लगी सीमा तक नहीं गए। उधर, उनके समान ही समाजवादी और सेकुलर लालू यादव का बयान आता है कि अफजल को फांसी दिए जाने की ऐसी प्रतिक्रिया हुई है। सरबजीत और अफजल का मामला क्या एक समान है? समाजवादी पार्टी भी सरबजीत के मामले पर मुखरित नहीं हुई, क्योंकि इससे उन्हें मुसलमानों के नाराज होने का खतरा दिखाई पड़ रहा था। ऐसे लोग यह मानकर चलते हैं कि भारत के मुस्लिम समुदाय का लगाव पाकिस्तान से ज्यादा है। एक तरफ उन्हें भयभीत किया जाता है और दूसरी तरफ राष्ट्रीय समस्याओं से उनके अलग खड़े रहने का समर्थन किया जाता है।

सच को जानना जरूरी

क्या महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, गरीबी जैसी समस्याओं का प्रभाव मुसलमानों पर नहीं है? लेकिन उनको मजहबी जज्बात में उलझाए रखने के लिए ही 'चांद खिलौना' दिखाने की होड़ लगी हुई है। यद्यपि जिन राज्यों की सरकारें 'सेकुलर' हैं वहां मुसलमानों की स्थिति 'साम्प्रदायिक' कही जाने वाली सरकारों के मुकाबले अधिक बदतर है। इसका एक ताजा उदाहरण है हज यात्रियों की राज्यानुसार संख्या-गुजरात के लिए तीन हजार यात्रियों का कोटा है, वहां सात हजार से ज्यादा लोगों ने यात्रा पर जाने के लिए आवेदन किया है और उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, जहां हज पर जाने का कोट जितना है उसके अनुपात में तीन चौथाई ही आवेदन आये हैं। गुजरात के मुसलमान सम्पन्न हैं, क्योंकि वहां उन्हें 'चांद खिलौना' दिखाकर भरमाया नहीं जाता बल्कि बराबरी के अनुरूप रोजगार, व्यवसाय और सेवा क्षेत्र में अवसर दिया जाता। सच्चर कमेटी के प्रतिवेदन में भी यह स्वीकार किया गया है कि गुजरात का मुसलमान अन्य किसी राज्य की अपेक्षा अधिक शिक्षित और सम्पन्न हैं।

मुसलमानों को कम से कम उस मुस्लिम देश का ही संज्ञान लेना चाहिए जहां वे हज करने जाते हैं। कभी सऊदी अरब ने भारत के एक राज्य द्वारा भारतीय हजयात्रियों के लिए मक्का में जो मुसाफिर खाना और मस्जिदों बनवाई थी, उसे गिरा दिया था। अब तो मक्का के आसपास सैकड़ों मस्जिद और इस प्रकार के बने स्मारकों को गिराकर उसने होटल आदि बनाए हैं, ताकि हजयात्रियों से आमदनी बढ़ाई जा सके। लेकिन भारत में मुसलमानों को राम मंदिर को ढहाने वाले एक हमलावर से नजदीकी दिखाई जाती है। क्यों?

क्या मिला इस विशेषता से?

आज जो पूर्णत: इस्लामी देश हैं उन्होंने भी इस्लाम स्वीकारने के पूर्व के अपने पूर्वजों से नाता बनाए रखा है। पाकिस्तान में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चाणक्य, तक्षशिला विश्वविद्यालय को अपनी धरोहर का स्थान दिया जा चुका है लेकिन भारत के मुसलमानों को अपने पूर्वजों पर गर्व करने की बजाय हमलावर के प्रति आस्था रखने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। इस्लाम को राष्ट्रीयता और संस्कृति के ऊपर  रखने की प्रेरणा दी जा रही है। यह कौन कर रहा है? और वे जो वोट बैंक बनाए रखने के लिए 'चांद खिलौना' लाने का दावा कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीयवाद या राष्ट्रवाद को क्षेत्रीय अथवा मजहब के आधार पर नकारने का युग समाप्त हो रहा है। विशेषाधिकार, जिसे आरक्षण का नाम दिया गया है, देश के अवाम को बांटने का काम कर रहा है। मुस्लिम सुमदाय को इस्लामी देशों से ही इस सम्बन्ध में प्रेरणा लेनी चाहिए। अमरीका में दूसरी बार ओबामा राष्ट्रपति बने हैं, अपनी लोकप्रियता के कारण, किसी की दया या आरक्षण का लाभ उठाकर नहीं। अमरीका में जो भारतीय मूल के लोग हैं, उनका बिना किसी आरक्षण के ओबामा प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान है।

भारत के मुसलमानों को उनके पृथक अस्तित्व के लिए प्रेरित करने वाले उनके सबसे बड़े शत्रु हैं, जो उनके भीतर भी हैं और बाहर भी। मुसलमानों को विशेष अवसर नहीं, समानता के स्वरूप का आग्रह करना चाहिए। सेकुलर गैंग उन्हें गुमराह कर रहा है और उनके नेता बन बैठे लोग सिर्फ दलाली। जैसे अमरीका में न कोई अल्पसंख्यक है न बहुसंख्यक। सभी नागरिक समान हैं। हमारे संविधान में मूल रूप से इसी का प्रावधान किया गया था। जहां तक पूजा पद्धति का सवाल है, वह चाहे व्यक्तिगत हो या समूहगत, उसकी मान्यता भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का आधार है। यही कारण है कि जब देश सैकड़ों राज्यों में बंटा था, तब भी एक राष्ट्र की भावना विद्यमान थी, जिसे आजकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी कहा जाता है। इस देश में ही सभी प्रकार की पूजा- पद्धति का संरक्षण मिला है। क्योंकि भारतीय आस्था, जिस प्रकार सभी नदियों का रुख सागर की ओर होता है, वैसे ही सभी आस्थाओं की दिशा परमात्मा की ओर होती है, ऐसी मान्यता है। मुस्लिम समुदाय 'चांद खिलौना' दिखाने वालों और उनके नाम पर सौदा करने वाले सौदागरों की गिरफ्त से निकलकर ही अपना भला कर सकता है।

मुसलमानों को कुछ अपराधी युवकों पर से मुकदमा वापिस लेने के मुलायमी दांव या केंद्र सरकार के अल्पसंख्यकों के लिए ही बैंक तथा शिक्षा संस्थान खोले जाने जैसे वायदे के पीछे छिपी भावना को ठीक से समझना चाहिए। उनका हित बहुजन समाज के साथ समरसता में है, सरकारों या राजनीतिक दलों को 'ब्लैकमेल' करने वाले बुखारियों या दर-दर जाकर सर झुकाने वालों से नहीं। मुसलमान राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के संघर्ष में भागीदारी करें और पृथकता के उन्माद में उलझकर वोट बैंक भर बनाने वालों के बहकावे को नकारकर समानता के आधार पर सहभागिता के लिए आगे बढ़े तभी उनका भला होगा।  राजनाथ सिंह 'सूर्य'

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