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फैसला कैसे लें नाम के प्रधानमंत्री
लद्दाख में चीनी सेना द्वारा भारतीय क्षेत्र के कई किलोमीटर अन्दर आकर अपनी चौकियां बनाने की हरकत हुए आधा महीना बीत चुका है। लेकिन जो प्रधानमंत्री महज नाम के ही हों, उनसे किसी कड़े फैसले की उम्मीद कैसे की जा सकती है। उधर इस पूरे प्रकरण पर भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ऐसे बयान दे रहे हैं जैसे वह भारत के नहीं, बल्कि चीन के विदेश मंत्री हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त नौ मई को उनका चीन की यात्रा पर जाना तय है। जबकि सारा देश मांग कर रहा है कि उनको अपनी यह यात्रा रद्द कर देनी चाहिये। लेकिन खुर्शीद का कहना है कि चीन के साथ बातचीत का तंत्र काफी मेहनत से तैयार हुआ है और यह लम्बे अरसे से ठीक काम कर रहा है, इसके सही नतीजे भी आ रहे हैं। इसलिये इसे इस 'छोटी सी स्थानीय घटना' के कारण त्यागा नहीं जा सकता।
वार्ता का 'सही नतीजा' फिलहाल तो यही आया है कि चीनी सेना भारत के बीस किलोमीटर अन्दर आकर अपनी चौकियां बना कर बैठी है। लेकिन खुर्शीद का सबसे ज्यादा जोर इस घटना को 'स्थानीय महत्वहीन घटना' सिद्ध करने में लगा हुआ है। क्या खुर्शीद सचमुच यह विश्वास करते हैं कि भारतीय सीमा के बीस किलोमीटर अन्दर आकर चौकियां स्थापित करने का निर्णय चीनी सेना के सीमा पर तैनात किसी छोटे-मोटे अधिकारी ने लिया होगा और इसका बीजिंग से कोई सम्बध नहीं है? अब उनको लगता है कि जब वे बीजिंग जाकर बड़े अधिकारियों से उस छोटे-मोटे अधिकारी की शिकायत करेंगे तो चीन सरकार उसे डांटेगी और वह अपने तम्बू समेट कर वापस अपने इलाके में चला जायेगा? वैसे अब चीन सरकार ने इस घटना पर बोलना प्राय: बन्द कर दिया है। शायद वे सलमान खुर्शीद के बयानों को ठहाके मारकर सुन भी रहे होंगे।
भारत की जनता की भावना की बात करें तो पूरा देश एक स्वर से कह रहा है कि इस वक्त विदेश मंत्री चीन की तथाकथित 'सद्भावना यात्रा' पर न जायें, क्योंकि चीन पहले ही जिस प्रकार की 'सद्भावना' लद्दाख में दिखा रहा है, हो सकता है उनकी यात्रा के बाद वह इस प्रकार की 'सद्भावना' ज्यादा दिखाना शुरू कर दे, क्योंकि उसे इतना तो समझ आ ही गया है कि भारत के चीन भक्त नेताओं के लिये इस प्रकार की घटना सदा 'स्थानीय घटना' ही रहेगी।
अगर सलमान खुर्शीद को ही चीन जाने से नहीं रोका जा सकता तो भारत सरकार से यह आशा करना भी बेकार है कि वह चीन के प्रधानमंत्री को फिलहाल अपनी भारत यात्रा रोकने के लिये कहेगी। दिल्ली के साउथ ब्लाक ने चीन पर गहरी नजर रखने के लिये जो दल बना रखे हैं और जो समय-असमय सरकार को चीन के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये, इसकी सलाह देते हैं, उनमें से बहुत से अब यह तर्क दे रहे हैं कि 'दौलत बेग ओल्दी तक चीन के आ जाने में चीन का दोष नहीं है, क्योंकि चीन सचमुच यह समझता है कि उसकी सीमा इससे भी कहीं आगे है।' उनके अनुसार चीन इस गलतफहमी का शिकार है, इसलिये दौलत बेग ओल्दी तक आने में उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। चीन की ऐसी मान्यताओं पर इसी प्रकार की उल्टी सीधी बातें करने वाले उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को एक मौके पर डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि लद्दाख से जम्मू होते हुये, चीन दिल्ली में आपके दरवाजे तक पहुंच जायेगा, क्या तब आपकी आंखें खुलेंगी?
देश का दुर्भाग्य है कि संकट की इस घड़ी में दिल्ली में निर्णय लेने वाला कोई नहीं है। जिन दिनों नेहरू प्रधानमंत्री थे, उन दिनों वे स्वयं निर्णय लेने में सक्षम थे। निर्णय गलत था या ठीक था, यह विवादास्पद हो सकता था, लेकिन निर्णय होता था। लालबहादुर शास्त्री भी निर्णय लेने में सक्षम थे। इंदिरा गांधी ने तो अमरीका की भी परवाह न करते हुये बंगलादेश का निर्माण करवा दिया था। मोरारजीभाई, अटल बिहारी वाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्री निर्णय ले सकते थे, क्योंकि वे अपने अपने राजनीतिक दलों का नेतृत्व करते थे और वहां से शक्ति ग्रहण करते थे। लेकिन इस समय जो प्रधानमंत्री के पद पर विराजमान हैं वे उस राजनीतिक दल के नेता भी नहीं हैं, जिसने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया है। इसके कारण उनके पास निर्णय लेने की शक्ति का कोई आधार नहीं है। तब प्रश्न है कि इस समय देश में निर्णय लेने की नैतिक या संवैधानिक शक्ति किसके पास है? क्या सोनिया गांधी के पास? ऊपर से देखने पर लग सकता है कि यह शक्ति उनके पास है। लेकिन उनका विदेशी मूल का होना उनके रास्ते की सबसे बड़ी, संवैधानिक न सही, मनोवैज्ञानिक बाधा तो है ही। यही कारण है कि सलमान खुर्शीद चीन की तरफदारी सी कर रहे हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है। डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
चीनी सामान का बहिष्कार हो
चीनी सेना के हमारी सीमा के अंदर अपनी चौकियां बनाने की घटना पर देश में तीखा आक्रोश है। पूरा देश भारत भूमि के कण-कण की रक्षा के लिए तन-मन-धन अर्पित करने को तैयार हैं। ऐसे समय में एक काम जो हम सब कर सकते हैं, जो देखने में बहुत साधारण भी है पर जिसकी चोट सीधे चीन की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगी, वह तो हमें संभाल ही लेना चाहिए। भारत सरकार ने चीन के साथ जो व्यापारिक समझौते किए उसी का यह दुष्परिणाम है कि भारत के गली-बाजारों तक अब चीनी सामान पहुंच चुका है। घर में उपयोग की साधारण वस्तुएं भी चीन निर्मित और सस्ती मिल रही हैं। ऐसे में हर व्यक्ति सस्ता चीनी माल खरीदने को प्रेरित होता है। हमारे देश के अरबों-खरबों रुपये चीन में जा रहे हैं और निश्चित ही इससे अपने देश के उद्योग-धंधों को धक्का लगता है। आज हर भारतवासी को संकल्प कर लेना चाहिए कि चीन में बनी और भारत के बाजारों में बिक रही कोई भी वस्तु न खरीदी जाए। हमारा धन चीन के कोष में न पहुंचे और इसी धन के बल पर चीनी सेना हमारी मातृभूमि की ओर नापाक कदम न उठाए।
याद रखना होगा कि 1905 में जब लार्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव ही नहीं रखा, अपितु आदेश ही जारी कर दिया तब बंगाल के पत्रकारों ने जनता को अंग्रेजी माल के बहिष्कार का रास्ता दिखाया। उस समय के एक देशभक्त पत्रकार श्री कृष्ण कुमार ने संजीवनी पत्रिका के माध्यम से जनता को यह प्रेरणा दी कि किसी भी कार्य के लिए इंग्लैंड में बने माल का प्रयोग न किया जाए। उन दिनों श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, कृष्ण कुमार मिश्र, पृथ्वीशचंद्र राय जैसे बंगाल के नेताओं और पत्रकारों ने बंगाली, हितवादी एवं संजीवनी जैसे अखबारों और पत्रिकाओं के जरिए जहां एक ओर बंगाल विभाजन का विरोध किया, वहीं स्वदेशी आंदोलन की घोषणा की, विदेशी माल के बहिष्कार का ऐतिहासिक प्रस्ताव भी पारित किया।
तत्कालीन बंगाल, जिसमें उड़ीसा, बिहार और पूर्वी बंगाल का क्षेत्र भी शामिल था, की जनता ने कमाल कर दिखाया। जन्म-मरण, विवाह तथा अन्य किसी भी सामाजिक-धार्मिक उत्सव में अगर कोई विदेशी वस्तुओं का प्रयोग करता था तो उसका भी बहिष्कार कर दिया जाता था। यह भी कहा जाता है कि अगर विवाह की रस्म पूरी करते समय किसी पंडित-पुरोहित को भी विदेशी वस्तुएं दिखाई दे जातीं तो वे देशभक्त पंडित विवाह की रस्म पूरी करवाने से ही इनकार कर देते थे। इसी दृढ़ संकल्प का यह परिणाम निकला कि मैनचेस्टर के व्यापारी एवं उद्योगपतियों ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को विवश किया और बंगाल का विभाजन रद्द करवाने की सलाह दी, क्योंकि उनका उद्योग-धंधा उजड़ रहा था। यही एक आंदोलन था जिसमें हम अंग्रेज सत्ता को झुकाने में सफल हुए थे। कौन नहीं जानता कि इसी आंदोलन में वंदेमातरम् गीत और वंदेमातरम् का नारा देशभक्तों का कंठहार बना था।
याद यह भी रखना होगा कि 19वीं शताब्दी के आठवें दशक में जब देश में नामधारी संतों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशक्त आंदोलन शुरू किया तो उन्होंने भी स्वदेशी को ही अपना मजबूत शस्त्र बनाया और जन साधारण ने सहयोग भी दिया। इतिहास के इन स्वर्णिम पृष्ठों से कुछ सीखते हुए आज जब चीन हमारी धरती की ओर अपने नापाक कदम बढ़ा रहा है, उस समय हम आम नागरिकों को जो पहला शस्त्र उठाना चाहिए, वह है चीनी माल का बहिष्कार। अच्छा तो यह रहेगा कि भारत सरकार ही चीन के साथ इस संबंध में किया हुआ समझौता तोड़ ले, पर हमें सरकार की घोषणा की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आज ही तय करें कि कोई भी भारतीय नागरिक चीन निर्मित वस्तु, चाहे वह कितनी भी सस्ती क्यों न हो, कितनी भी बढ़िया क्यों न बनी हो, नहीं खरीदेगा। अपनी खून पसीने की कमाई, अपने देश के व्यापारी और उद्योगपति को देकर अपनी आवश्यकताएं पूरी करेंगे। देश के उद्योगपतियों का भी यह कर्तव्य है कि वे जनता को बढ़िया और सस्ता सामान बनाकर दें।
हमें बार-बार यह नहीं कहना चाहिए कि चीन 1962 दोहरा रहा है। 1962 में जो कुछ हुआ उसको भुलाकर अब एक नया इतिहास लिखना है। चीन हम पर एक वार भी करता है तो उसका हमें कड़ा उत्तर देना है। भारतभक्त जनता आज सड़कों पर उतरी है, उसमें गुस्सा है, जिसे इस सरकार को समझना ही होगा। लक्ष्मीकांता चावला
देशभक्त नागरिकों की मांग
चीन की हेकड़ी को मुंहतोड़ जवाब दो
चीन का दु:साहस लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत में लद्दाख से सटी सीमा से करीब 20 किलोमीटर अंदर तक घुसकर 750 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा जमाए बैठी चीन की सेना ने हमारी धरती पर पांचवां तंबू लगाकर अपना अड़ियल रुख स्पष्ट कर दिया है। इतना ही नहीं वहां जमे चीनी सैनिकों को चीन के फौजी ट्रक रसद पहुंचाने में लगे हैं। यानी यह लंबे समय तक जमे रहने का निर्लज्ज संकेत है। चीन के इस दु:साहसपूर्ण रवैये पर भारत सरकार लचीला रुख अपनाए हुए है। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद चीन की यात्रा पर जाने को उत्सुक हैं। चीन की भारतीय सीमा में घुसपैठ और भारत की भौगोलिक अखंडता को लेकर यूपीए सरकार के ढुलमुल रवैये से खिन्न है देश की जनता। उसमें जबर्दस्त आक्रोश है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक चीन की घुसपैठ पर सरकार के रीढ़हीन व्यवहार का तीखा विरोध हो रहा है। देशभर में विभिन्न सामाजिक संगठनों- विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिमालय परिवार, हिन्दू मंच, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, 'फिन्स', भारत-तिब्बत सहयोग मंच आदि के कार्यकर्ता और देशभक्त नागरिक सड़क पर उतर आए हैं। प्रस्तुत है देश में जगह-जगह हुए विरोध प्रदर्शनों की चित्रमय झलक।
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